“संजय कनौजिया की कलम”✍️
कांशीराम जी की प्रिय शिष्या, कु० मायावती की ज्वलंत राजनीतिक महत्वकांक्षा को समझने के लिए 1993 में हुए सपा-बसपा गठबंधन पर जरूर नज़र डालनी चाहिए.. “जागरण डॉट कॉम” की वैब-साईट में एक विस्तारित लेख, पत्रकार अरुण कुमार सिंह का दिनांक-11/1/2009 को प्रकाशित हुआ था..जिसके कुछ शुरूआती मुख्य अंश, प्रेषित हैं..अरुण ने लिखा कि 1992 में अयोध्या के विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया और उत्तर प्रदेश, चुनाव के मुहाने पर खड़ा था..भाजपा को पूरा भरोसा था कि रामलहर उसे आसानी से दोबारा सत्ता में पहुंचा देगी..उस समय बसपा सुप्रीमो कांशीराम और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की नजदीकियां चर्चा का केंद्र बन रही थी..दोनों पार्टियां ने पहलीबार चुनावी गठबंधन किया और भाजपा के सामने मैदान में उतरी..इस दौरान यह नारा उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र बन गया “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम”..1993 में उ०प्र० की 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे..इसमें बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था..बसपा ने 164 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमे 67 जीते थे..सपा ने इन चुनावों में अपने 256 उम्मीदवार उतारे और 109 जीते थे..भाजपा जो 1991 में 221 सीटें जीती थी वह 1993 के चुनाव में 422 में से, 117 सीटों तक सिमट कर रह गई..मामला विधानसभा में संख्याबल की कुश्ती तक खिंचा तो यहाँ सपा-बसपा ने भाजपा को हर तरफ से मात देते हुए जोड़-तोड़ कर सरकार बना ली और मुलायम सिंह दूसरी बार उ०प्र० के मुख्यमंत्री हुए..सपा-बसपा गठबंधन ने 4-दिसंबर, 1993 को सत्ता की बागडोर संभाल ली..बसपा इससे पहले उ०प्र० में मात्र 13 सीटें ही जीत पाई थी, 1993 में सपा के साथ गठबंधन करने से बसपा 67 सीटों पर विजय प्राप्त कर पाई..कांशीराम ने पार्टी उपाध्यक्ष मायावती को उ०प्र० की प्रभारी क्या बनाया..वे पूरा शासन ही परोक्ष रूप से चलाने लगी..मुलायम पर हुक्म चलाना, उल्टे-सीधे ब्यान, बे-बुनयादी फ़रमान, सौदेबाजी जैसे पैंतरे आदि, जो मुलायम को स्वीकार ना थे..!
यहाँ पर में अपनी ओर से कहना चाहूंगा कि दिनांक-1-जून, 1995 को उ०प्र० के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह, सपा नेताओं से मिल रहे थे..कांग्रेस के एक नेता पी. एल. पूनियां उसवक्त नौकरशाह के तौर पर मुख्यमंत्री के दफ्तर में तैनात थे..पूनियां उस बैठक में बिना बुलाये चले गए थे..उन्होंने मुलायम सिंह की तरफ एक पर्ची बढ़ा दी..सपा नेताओं के मुताबिक पर्ची पढ़ते ही मुलायम सिंह का रुख बदल गया, उन्होंने उसी वक्त ऐलान कर दिया कि सपा कार्येकर्ता चुनाव के लिए तैयार रहें और पार्टी की बैठक वहीँ समाप्त हो गई..पर्ची में बसपा द्वारा, शीघ्र ही गठबंधन तोड़कर समर्थन वापस लेने की बात कही गई थी..हालांकि मुलायम इस बात को काफी पहले से भांप चुके थे जैसे मायावती द्वारा कांशीराम के कान भरना, भाजपाइयों के मंडराते खतरे को समझना, कांशीराम द्वारा मुलायम सरकार पर कुछ ना बोलने के बावजूद मुलायम सिंह किसी भी आने वाले खतरे के प्रति सजग बने रहे..इसी कारण भांपे हुए खतरे अनुसार तथा अपनी सरकार को बचाने के लिए पहले “जनता दल”,”सी.पी.एम”, और “सी.पी.आई” के विधायकों को तोडा और अपना खुद का बहुमत सिद्ध करने हेतू बसपा पर भी डोरे डालने शुरू हो गए, और इसी आपसी मनमुटाव के चलते 2-जून, 1995 को कांशीराम ने सरकार से किनारा कर लिया और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी, और मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आकर गिर गई..इसके बाद 3-जून, 1995 को मायावती ने, ब्राह्मणवाद से सनी फासीवादी ताक़त भाजपा से हाँथ मिलाकर सत्ता की बागडोर संभाली और भाजपा के ब्राह्मण नेताओं के हांथों में राखी भी बांधनी शुरू कर दी..इससे एक दिन पहले 2-जून, 1995 को उ०प्र० की राजनीति में गैस्ट-हाउस काण्ड हुआ..हालांकि इस काण्ड की चारों ओर कड़ी निंदा हुई..इस काण्ड में मायावती को डराने के उद्देश्य को लेकर एक मूर्ख ठाकुर विधायक ने अपने कुछ निचले स्तर के कार्येकर्ताओं को लेकर हमला किया था, जो अकस्मात मर्यादा की सभी सीमायें लांघ गया..और मायावती द्वारा सारा ठीकरा मुलायम सिंह के माथे मढ़ दिया गया..राजनीति की परंपरा में अक्सर ऐसा ही होता आया है कि गलती सिपाही करता है और दण्ड सदर को भुगतना होता है..लेकिन इस हादसे ने दोनों ही दलों की ओर से “बाबा साहब अंबेडकर और डॉ० लोहिया” जैसे महान नेताओं द्वारा दिखाए “दशा और दिशा के सिद्धांत” की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी थी..गंभीरता से चिंतन की जरुरत यह है कि, इस कृत्य के कारण ने क्यों जन्म लिया ?..जाहिर सी बात है मायावती की ज्वलंत राजनीतिक महत्वकाँक्षा जिसे मान्यवर कांशीराम भी नहीं समझ सके थे और जब उन्हें समझ आया उन्हें अज्ञातवास में पहुंचा दिया गया, और इसी अज्ञातवास में 72 वर्ष की उम्र में 9-अक्टूबर, 2006 में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली थी..!
उसके बाद 25 वर्षों तक लगातार मायावती यही कहती रही कि वह इस गैस्ट-हाउस काण्ड को कभी नहीं भूल सकती और मुलायम के अलावा वह यादवों को व अन्य पिछड़ी समझीं जाने वाली जातियों को पानी पी पी कर सार्वजिक कोसती रही..जबकि सपा और बसपा को चाहिए था कि उ०प्र० की सत्ता प्राप्त हो जाने का लाभ “बाबा साहब अंबेडकर और डॉ० राममनोहर लोहिया के अधूरे एजेंडे को पूरा करने की दिशा में बढ़ते” तो शायद अब तक अधर्म का नाश होता और जाति के विनाश की ओर दलित-पिछड़ा वर्ग गतिमान होने की शुरुआत कर रहा होता बल्कि उ०प्र० को केंद्र बनाकर पूरे देश में सन्देश जाता और नव-भारत का उदय हो रहा होता..लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए की मायावती द्वारा सपा और पिछड़ी जातियों के खिलाफ अपनी व्यक्तिगत अहम को लेकर विलाप करती रही, कोसती रही और दलित, पिछड़े वर्गों में सद्भावना और सौहार्द बढ़ने की बजाए कटुता और दूरियों की खाई गहराती चली गई..इस गंभीर विषय पर सवाल यह उठता है कि सपा-बसपा गठबंधन के इस गैर जिम्मेदाराना प्रकरण पर कौन जिम्मेवार है ?..क्या ब्राह्मण या ब्रह्मणवाद को ही सदैव की भाँती हम दोषी माने ?..वह तो शान्ति और धैर्य सहित राजनीतिक कौशलता का परिचय देता हुआ उचित वक्त का इंतज़ार करता रहा..तो फिर कौन जिम्मेवार हुआ ?….
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)