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वंचितों की लड़ाई और उनका साहित्य केवल रोने-धोने तक सीमित नहीं होना चाहिए

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फूलन देवी ने एक ऐसी मिसाल छोड़ी है, जिसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। उनकी जीवनगाथा हमें यही सिखाती है कि वंचितों की लड़ाई और उनका साहित्य केवल रोने-धोने तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह संघर्ष का भी साहित्य होना चाहिए। पढ़ें, जेएनयू छात्र संघ के कार्यालय में बीते 10 अगस्त, 2024 को फूलन देवी की जयंती के मौके पर अभय कुमार के संबोधन का संपादित अंश

सबसे पहले, मैं समाजवादी छात्र सभा के उन सभी साथियों का धन्यवाद करना चाहता हूं, जिन्होंने फूलन देवी जैसी महत्वपूर्ण शख्सियत और समाज में व्याप्त शोषण के खिलाफ संघर्ष करनेवाली महिला को याद किया।

फूलन देवी के बारे में मेरे से पहले एक साथी ने अपने विचार प्रस्तुत किए और उनका परिचय हमें बताया। फूलन देवी पर कुछ किताबें लिखी गई हैं, जिनमें से एक किताब, जिसे पढ़ने के लिए मैं आप सभी से अनुरोध करूंगा, वह है– ‘दी बैंडिट क्वीन ऑफ इंडिया एंड इंडियन वुमैन्स अमेजिंग जर्नी फ्रॉम पीज़ेंट टू इंटरनेशनल लेजेंड’, जिसका पहले संस्करण का शीर्षक था– ‘आई फूलन देवी: दी ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज बैंडिट क्वीन’।

फूलन देवी की आत्मकथा को प्रकाशित करने में दो लेखकों– मैरी-थेरेज़ क्यूनी और पॉल रामबली का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दोनों ने मिलकर फूलन देवी की कहानियों को आम लोगों तक पहुंचाने में बड़ी मदद की। इस किताब की खासियत यह है कि यह फूलन देवी के खुद के बयानों पर आधारित है। चूंकि वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं, इसलिए लेखकों के सामने जो भी बातें वे कहती थीं, उन्हें लिखा जाता था। फिर ये लिखित बातें फूलन देवी को सुनाई जाती थीं। जब वे पढ़कर सुनाई जाती थीं, तो वे ध्यान से सुनती थीं। अगर उन्हें लगता था कि उनकी बातों को सही तरीके से दर्ज नहीं किया गया है या उसमें कोई गलती है, तो वे उसमें बदलाव करवाती थीं और जुड़ी अन्य बातें बताती थीं। उनके सुझावों को शामिल करके फिर से पढ़ा जाता था। जब वे पूरी तरह से संतुष्ट हो जाती थीं, तब वे हर पृष्ठ पर हस्ताक्षर करके अपनी मंजूरी देती थीं। इस प्रकार, यह किताब एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है।

किताब के ‘इंट्रोडक्श’ में लेखक एक दिलचस्प बात बताते हैं कि फूलन देवी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों वर्षों की डकैती के इतिहास में तीसरी महिला डकैत नेता थीं। यह तथ्यात्मक रूप से सही है। किताब के शीर्षक में ‘बैंडिट क्वीन’ शब्द उल्लेखित है,  जिसका अर्थ होता है– चोर और लुटेरे लोग, जो हथियार के बल पर लोगों की धन-संपत्ति छीनते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि किताब का एक खास शीर्षक रखना प्रकाशक की एक मजबूरी हो सकती है।

फूलन देवी को “बैंडिट क्वीन” कहना मुझे गलत लगता है, क्योंकि उनका आंदोलन ‘बैंडिट’ शब्द के प्रयोग से ठीक से नहीं समझा जा सकता। फूलन कोई चोर-लुटेरा नहीं थीं, जो दूसरों की धन-संपत्ति लूट रही थीं। इसके बरअक्स वह जातिवादी समाज के खिलाफ मानवीय गरिमा और इंसानियत की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। असल में, फूलन एक ‘इटरनल रेबल’(सार्वकालिक विद्रोही) थीं, जो लगातार शोषण के खिलाफ बग़ावत कर रही थीं।

फूलन देवी की कहानी अन्याय के खिलाफ विद्रोह की कहानी है। मुझे लगता है कि वंचितों की लड़ाई के दो पहलू होते हैं– पहला, शोषण और दूसरा, शोषण के खिलाफ विद्रोह और संघर्ष। हमें सिर्फ शोषण की कहानी नहीं लिखनी चाहिए, बल्कि संघर्ष की दास्तान भी बतानी चाहिए। यदि कोई लेखक केवल शोषण की कहानी कहकर रुक जाए, तो कहानी अधूरी मानी जाएगी। इस तरह की कहानी को पूरा करने के लिए हमें संघर्ष की कहानी भी प्रस्तुत करनी होगी। इसलिए, यदि आज मुझे फूलन देवी पर केंद्रित नई किताब लिखनी हो तो, तो मैं उसका शीर्षक इस प्रकार रखना चाहूंगा– ;फूलन देवी डाकुओं की रानी नहीं, बल्कि एक इटरनल रेबल।’ वजह यह कि उनकी बगावत स्वयं के लाभ के लिए नहीं थी और न ही किसी नेता की तरह पार्टी टिकट पाने के लिए थी। सच्चाई यह है कि फूलन का स्वभाव ही विद्रोही था। जहां कहीं भी उन्हें असमानता या भेदभाव दिखाई देता था, वे उसके खिलाफ लड़ती थीं।

जब फूलन खुद के दमन के खिलाफ खड़ी हुईं और विक्रम मल्लाह के सरगने में शामिल हो गईं, तब उन्होंने वहां भी अपनी क्षमता साबित की और दिखाया कि महिलाएं किसी भी काम में पुरुषों से कम नहीं हैं। फूलन देवी ने पुरुषों की ‘मर्दानगी’ पर भी सवाल उठाया। पुरुषवादी समाज ‘मर्दानगी’ को ताकत के इज़हार से जोड़ता है और समझता है कि केवल पुरुष ही घोड़े चढ़ सकते हैं, दौड़ सकते हैं, लड़ाई कर सकते हैं, और बंदूक चला सकते हैं। लेकिन फूलन देवी ने इन सभी कामों में अपनी दक्षता साबित की और यह सिद्ध किया कि वे किसी भी पुरुष से कम नहीं हैं।

जेएनयू छात्र संघ के कार्यालय में फूलन देवी की जयंती के मौके पर आयोजित सभा में बाएं से लेखक अभय कुमार, समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता तूफानी निषाद, स्वतंत्र पत्रकार सुनील कश्यप व छात्रा प्रियांशी यादव

अफ़सोस की बात है कि फूलन की बहादुरी को नजरअंदाज़ किया गया है और उन्हें सवर्ण लॉबी द्वारा हिंसा करने वाली ‘डकैत’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सवर्ण मीडिया फूलन के बारे में कहता है कि वह डकैत थीं, लुटेरी थीं, और उन्होंने एक विशेष जाति के लोगों की हत्या की। हालांकि, यह सच्चाई नहीं बताई जाती कि वे जातिवादी-पितृसत्तावादी अत्याचार के खिलाफ लड़ रही थीं।

ऐसा नहीं है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में बैठे द्विज प्रोफेसरों को विदेशी लेखकों से विशेष प्रेम है, जिसके कारण उनकी रचनाएं पाठ्यक्रम में शामिल की जाती हैं। बल्कि, प्रोफेसर लोग फूलन देवी के बजाय दूर के लेखकों को पढ़ना पसंद करते हैं, क्योंकि फूलन ने उनके समाज में हो रही अन्याय की आवाज उठाई है। द्विज प्रोफेसरों की कोशिश रहती है कि जो भी व्यक्ति उनके समाज में घटित अन्याय के खिलाफ बोलता है और लोगों को शोषण पर आधारित समाज में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करता है, उसे दूर रखा जाए। यही कारण है कि फूलन देवी के बारे में हमारे अकादमिक जगत में चुप्पी बनी हुई है।

यह केवल फूलन देवी के मामले में ही नहीं है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को भी द्विज स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उन्हें डर है कि डॉ. आंबेडकर की बातें उनके समाज में लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित कर सकती हैं। अगर डॉ. आंबेडकर कहीं दूर, जैसे कि अरब या यूरोप में जन्मे होते, तो शायद द्विजों को इतनी आपत्ति नहीं होती, क्योंकि तब आंबेडकर भारत के नहीं बल्कि अपने देश के समाज की समस्याओं की बात कर रहे होते।

मुझे लगता है कि नारीवाद का विमर्श भी वंचितों के मुद्दे को पूरी तरह से नहीं उठा पा रहा है। ज्यादातर लोग जो कॉलेज और विश्वविद्यालयों में खुद को नारीवादी कहते हैं, उनमें बड़ी संख्या सवर्णों की होती है। यदि मैं कहूं कि ये लोग केवल ‘रिप्रेजेंटेशन’ तक ही सीमित रहते हैं, तो गलत नहीं होगा। सवर्ण नारीवादियों ने नारीवाद के विमर्श को सीमित कर दिया है। उदाहरण के तौर पर, वे केवल यह सवाल उठाते हैं कि कितनी महिलाएं कॉलेज में हैं, कितनी महिलाएं विश्वविद्यालय में हैं, कितनी महिलाएं इस संस्थान में हैं, और कितनी उस संस्थान में हैं। द्विज नारीवादियों को यह बात समझ में नहीं आती है कि सभी महिलाएं समान नहीं होती हैं; उनमें भी जाति और वर्ग की असमानता होती है।

दैनिक जीवन में कितनी घटनाएं आपके सामने आती हैं, जब सवर्ण महिलाओं की इज़्ज़त पर हमला होता है? ऐसा नहीं कि ऐसा नहीं होता है, लेकिन उसकी संख्या कम है। जबकि दलित, पिछड़े, और आदिवासी महिलाओं के ऊपर तो हर दिन हमले होते हैं। सवर्ण नारीवादियों की सीमित सोच यह है कि वे महिलाओं को एक समान विचारधारा वाले समूह के तौर पर देखती हैं और महिलाओं के अंदर जाति और वर्ग की बुनियाद पर जो असमानता है, उसे नजरअंदाज़ करती हैं। सवर्ण नारीवादी ग्रुप जाति के सवाल को दबा देता है।

अब डॉ. आंबेडकर की लेखनी को देखिए। उन्होंने कहा है कि महिलाएं भी ‘शूद्र’ हैं। ऊंची जाति की महिलाएं भी अपने समाज में बराबरी नहीं पा पातीं। जब मैंने फूलन देवी की आत्मकथा पढ़ी, तो पता चला कि उनकी शादी 11 साल की उम्र में कर दी गई थी, जो बाल विवाह था। शादी के बाद फूलन को उनके ससुराल वाले खेलने से रोकते थे। उन्हें घर में बंद कर दिया जाता था। महिलाओं को घर में कैद करने की प्रथा सवर्णों में भी देखी जाती है। मेरे गांव के अनुभव से कह सकता हूं कि पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला जब अपने घर से बाहर जाती थीं, तो अपनी बहू को घर के अंदर कमरे में बंद कर ताला लगा करके जाती थीं।

महिलाओं की सभी गतिविधियों, जैसे उनका आना-जाना, बोलना, पढ़ना-लिखना, सब पर पितृसत्ता द्वारा नियंत्रण किया जाता है। यह नियंत्रण सवर्ण समाज में अधिक है। इसलिए सवर्ण महिलाओं की स्थिति भी बेहतर नहीं है, लेकिन यह उनके लिए चर्चा का विषय नहीं है। बाबासाहेब आंबेडकर ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया है, लेकिन उसे दबाया जाता रहा है। महिलाओं की समानता की बात केवल एक जाति या वर्ग तक सीमित नहीं होनी चाहिए। नारीवाद का विमर्श केवल प्रतिनिधित्व तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि जाति और वर्ग की असमानता को भी उजागर करना चाहिए।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि जाति का विनाश तब तक संभव नहीं होगा, जब तक अंतर-जातीय शादियां नहीं होतीं। लेकिन आप देखें कि भाजपा और आरएसएस जिसे ‘लव-जिहाद’ कह रही है, का मसला क्या है? ‘लव-जिहाद’ एक हद तक हिंदू बनाम मुसलमान का मामला दिखता है, लेकिन असल में इसका संबंध जाति प्रथा से भी है। मेरे गांव में सवर्णों को यह कहते हुए सुना जाता है कि सवर्ण जातियों की लड़कियों के ऊपर अवर्ण जातियों के लड़के, जैसे दलित और ओबीसी, डोरे डाल रहे हैं। उन्हें दुख है कि सवर्णों की ‘इज्जत’ मिट्टी में मिल गई है।

आप देखिए कि किस तरह से समाज में अफवाहें फैलाई जा रही हैं और महिलाओं की ‘सेक्सुअलिटी’ को नियंत्रित किया जा रहा है। जातिवादी और पुरुषवादी समाज इसी प्रकार की नफरत फैलाकर महिलाओं को घर में कैद करने, उनकी पढ़ाई छुड़वाने का रास्ता तैयार कर रहा है। कहना चाहिए कि यही आज के हक़ीकत है, और हमें फूलन देवी जैसी महिला की जरूरत है, जो इस असमानता और अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ बग़ावत करे। मैं यहां दोहराना चाहता हूं कि फूलन देवी की लड़ाई न केवल पिछड़ी जातियों और दलित महिलाओं के लिए मुक्ति का द्वार खोलेगी, बल्कि उनकी लड़ाई सवर्ण जातियों की महिलाओं की मुक्ति का भी मार्ग प्रशस्त करेगी।

मुझे लगता है कि फूलन देवी की लड़ाई महिला के अधिकारों की रक्षा की लड़ाई है। यह जाति प्रथा के खिलाफ और जाति को तोड़ने की लड़ाई है। फूलन की लड़ाई केवल सवर्ण समाज के खिलाफ नहीं है। सवर्ण समाज को भी सोचना चाहिए कि जो लोग जाति के ऊपर इतना गर्व महसूस करते हैं, उस जाति ने समाज को आखिर दिया क्या है?

जाति से जुड़ी एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। मेरे गांव के निवासी – गेंदा भइया (गेंदा सहनी) – पुराने ज़माने के ग्रेजुएट हैं। वे मल्लाह जाति में पैदा हुए। जब हमारे गांव में बीए पास की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी। सवर्णों में भी बीए कम ही थे। कुछ साल पहले जब मैं गांव में था, तब वह मेरे घर आए। उम्र में बड़ा अंतर होने के बावजूद, हम दोनों एक-दूसरे के साथ सहज थे। मैंने उनके लिए चाय बनाई। जब हम चाय पी रहे थे, तब ब्राह्मण समाज के एक छोटे बच्चे ने उन्हें ‘घटवार’ कहकर संबोधित किया। “मेरा नाम नहीं है क्या, जो आप मुझे मेरी जाति से पुकार रहे हैं?” गेंदा भइया ने अपने पोते की उम्र के उस बच्चे से पूछा।

सवर्ण समाज बार-बार यह दावा करता है कि उसे देश के बारे में बहुत चिंता है और वह स्वयं को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी भी मानता है। लेकिन सवर्ण समाज जाति में इतनी गहराई से जकड़ा हुआ है कि उसकी रक्षा भी करता है। सवर्ण समाज को यह समझना चाहिए कि उनके समाज का छोटा-सा बच्चा भी अपने दादा के उम्र के बहुजन को “घटवार” कहकर अपमानित करता है। सवर्ण समाज के छोटे बच्चों को भी दलित और पिछड़ी जातियों के बुजुर्गों को सम्मान नहीं देने की आदत है, जबकि वे पूरी तरह से उम्मीद करते हैं कि सवर्णों को सम्मान मिले। क्या इस जातिवादी मानसिकता के लिए फूलन देवी जिम्मेदार हैं? क्या फूलन देवी ने घर-घर जाकर सवर्णों के बच्चों को यह कहा कि आप हमें जातिवादी शब्दों से पुकारें? मल्लाह समाज के व्यक्ति की पहचान और योगदान को नजरअंदाज कर सवर्ण समाज उसे ‘घटवार’ कहकर क्यों पुकारता है?

फूलन देवी के बारे में जो दुष्प्रचार किया जा रहा है, वह गलत है। जातिवादी प्रथाओं के खिलाफ लड़ने के लिए फूलन देवी को सम्मान मिलना चाहिए। उनके संघर्षों और उनके विचारों को पढ़ाया जाना चाहिए। आज हम फूलन देवी का जन्मदिन मना रहे हैं। मगर दुख की बात है कि वह हमारे बीच नहीं हैं। अगर आज वह हमारे बीच होतीं, तो वह सांप्रदायिकता विरोधी लड़ाई में अग्रणी होतीं और आज की जातिवादी नीतियों के खिलाफ खड़ी होतीं।

मेरी बातों का सार यही है कि फूलन देवी ने हमेशा संघर्ष किया। वह एक ‘इटरनल रेबल’ थीं। उन्होंने किस-किस से नहीं लड़ा? क्या उन्होंने केवल सवर्णों से लड़ा था? बिल्कुल नहीं। उनकी लड़ाई हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ थी। क्या उन्होंने अपने घर वालों से नहीं लड़ा, जिन्होंने उनका तिरस्कार किया? क्या उन्होंने अपने पति से नहीं लड़ा, जब उसने उन्हें कैद किया? क्या उन्होंने अपने ससुर से नहीं लड़ा, जिसने उनके आने-जाने पर रोक लगाई थी? उनके ही समाज के एक बिहारी थे, जिनके पास बहुत ज़मीन थी और बड़ा घर था। जब फूलन उस घर के पास से गुजरती थीं, तो बिहारी उन्हें परेशान करता था। क्या फूलन ने अपने ही समाज के इस अमीर और बेईमान व्यक्ति का विरोध नहीं किया था? जब मैं फूलन की आत्मकथा पढ़ रहा था और उसमें बिहारी के चरित्र का वर्णन पाया, तो मुझे समझ में आया कि किस तरह से निचली जातियों के लोग अपने ही समाज के गरीब और कमजोर लोगों को अपने घर से गुजरने नहीं देते। आत्मकथा में यह प्रसंग मल्लाह जाति के भीतर के शोषण और निजी संपत्ति के आधार पर हो रहे भेदभाव का भी उल्लेख करता है।

फूलन देवी ने अपने जीवन में न केवल सामाजिक असमानताओं और जातिवाद के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि धर्म और ईश्वर के अस्तित्व पर भी गंभीर प्रश्न उठाए। उनके ये सवाल उनके सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभवों से जुड़े हुए थे, और उन्होंने अपने सवालों को वंचितों और कमज़ोर वर्गों की स्थिति से जोड़कर देखा। उनके सवाल, जैसे कि क्यों भगवान ने उनके समाज को इतनी गरीबी में रखा, उनके समाज की कठिनाइयों को समझने और उन्हें चुनौती देने का एक तरीका था। इसी तरह, भगत सिंह ने भी ईश्वर और धर्म पर सवाल उठाए थे, और उनका “मैं नैस्तिक क्यों हूं” पंफलेट इसी भावना को दर्शाता है।

फूलन देवी के जीवन में धोखों की कोई कमी नहीं रही। जब उन्होंने आत्मसमर्पण किया, तो उनके साथ विश्वासघात हुआ, और उन्हें ग्यारह साल तक जेल में रहना पड़ा। तब के उत्तर प्रदेश सरकार में गृह मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की भूमिका महत्वपूर्ण थी, जिन्होंने उनकी रिहाई के लिए प्रयास किए और उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश की। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि फूलन देवी को मिर्ज़ापुर से लोकसभा का चुनाव जीतने का मौका समाजवादी पार्टी ने दिया, लेकिन उनके जीवन को केवल कुछ वर्षों में समाप्त कर दिया गया। 

आज तक जितने भी पुरस्कार और सम्मान मिले हैं, उनमें से अधिकांश सवर्ण जाति के लोगों को ही दिए गए हैं। इसीलिए हम पुरस्कारों को उतनी गंभीरता से नहीं लेते हैं। फिर भी, अगर पुरस्कार की कुछ गरिमा बचानी है, तो फूलन देवी को अवार्ड मिलना चाहिए। जीते जी फूलन देवी को कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन क्या आज भी हम उन्हें सम्मान नहीं दे सकते? क्यों न हम इस मंच से फूलन देवी के लिए ‘भारत रत्न’ की मांग करें?

मगर इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि हम फूलन देवी के संघर्षों को समझें। उनकी आत्मकथा और उनसे संबंधित लेखों का अनुवाद होना चाहिए। मुझे लगता है कि जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, पेरियार और डॉ. राम मनोहर लोहिया की विरासत को फूलन देवी ने आगे बढ़ाया है। उन्होंने न केवल जुल्म झेला, बल्कि उसके खिलाफ प्रतिरोध भी किया। फूलन देवी ने एक ऐसी मिसाल छोड़ी है, जिसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। उनकी जीवनगाथा हमें यही सिखाती है कि वंचितों की लड़ाई और उनका साहित्य केवल रोने-धोने तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह संघर्ष का भी साहित्य होना चाहिए।

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