नई फिल्म ‘इन गलियों में’ एक ऐसी कहानी है जो भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। यह फिल्म अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने वाले आर्थिक रूप से पिछड़े एक युवा जोड़े की प्रेम कहानी है। अवंतिका दसानी और विवान शाह की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म का निर्देशन ‘अनारकली ऑफ आरा’ का निर्माण करने वाले अविनाश दास ने किया है। ये फिल्म वसु मालवीय के किरदारों की जिंदगियां हैं। चार अप्रैल से यह फ़िल्म फिर से देश के सिनेमा घरों में प्रदर्शित होने जा रही है।

विशेष संवाददाता
कभी-कभी कोई फ़िल्म आती है जो सिर्फ कहानी नहीं कहती, बल्कि वक़्त की नस पकड़ लेती है। वह दस्तावेज़ बन जाती है — एक कलात्मक, राजनीतिक और आत्मिक दस्तावेज़। अविनाश दास की फ़िल्म ‘इन गलियों में’ ठीक वैसी ही एक रचना है। यह फ़िल्म महज़ एक सिनेमाई अनुभव नहीं है, यह अपने समय का बयान है — एक ऐसा बयान जो नारे की तरह नहीं, फुसफुसाहट की तरह सुनाई देता है, लेकिन भीतर तक गूंजता है।
चार अप्रैल से यह फ़िल्म फिर से देश के सिनेमा घरों में प्रदर्शित होने जा रही है। यह पुनःप्रदर्शन कोई साधारण वापसी नहीं, बल्कि उस चुप्पी की चुनौती है जो आज हमारे समय के सबसे ज़रूरी सवालों को निगलती जा रही है।
एक फिल्मकार की ज़िम्मेदार आत्मा
अविनाश दास, जो पहले भी ‘अनारकली ऑफ आरा’ जैसी हिम्मती और अनसुनी आवाज़ों को सामने लाने वाली फिल्म बना चुके हैं, इस बार और भी गहरे उतरते हैं — समाज के उन अंधेरे कोनों में, जहां धर्म, राजनीति और पहचान की सड़ी हुई परतें दम घोंटती हैं। लेकिन ‘इन गलियों में’ कोई प्रतिकार का घोष नहीं करती, यह प्रतिरोध की गूंगी लेकिन गूंजती हुई भाषा में बात करती है।
फ़िल्म का कैमरा कोई तमाशा नहीं करता — यह वहां रुकता है जहां लोग आमतौर पर नज़र फेर लेते हैं। हर फ़्रेम, हर सीन, हर सन्नाटा — जैसे कोई पुराना शहर अपने घावों को दिखा रहा हो। यह फ़िल्म चमकती हुई रोशनी या नकली नाटकीयता की मोहताज नहीं है, इसकी ताक़त इसकी खामोशी में है।
कहानी नहीं, ज़माने की परतें

‘इन गलियों में’ की कहानी को एक लकीर में नहीं बांधा जा सकता। यह धर्म के नाम पर बंटते हुए समाज की कहानी है, यह उन किरदारों की कहानी है जो किसी भी ‘धर्म की रक्षा’ के नाम पर कुचले जाते हैं, यह एक औरत की कहानी है जो सवाल करती है, एक लड़के की जो गुम हो गया है, और एक शहर की जो अपनी रूह को धीरे-धीरे खो रहा है।
फिल्म के पात्र अभिनय नहीं करते — वे जैसे जीते हैं। कोई भी संवाद ऊंची आवाज़ में नहीं कहा जाता, लेकिन हर शब्द सुनाई देता है। यह फ़िल्म उन लोगों की है जिनकी आवाज़ों को सालों से म्यूट कर दिया गया है।
तकनीक और सौंदर्य — एक प्रतिरोध की भाषा
फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी कविता जैसी है — फ्रेम दर फ्रेम जैसे पुराने शहर की भीगी दीवारें बोलने लगती हैं। ध्वनि संयोजन में शोर नहीं, बल्कि एक ऐसा सन्नाटा है जो पूछता है — “तुम सच में इस सन्नाटे को नहीं सुन पा रहे?”
संगीत कहीं दूर से आता है, जैसे कोई पुराना फकीर गलियों से गुजर रहा हो। कैमरा अंधेरे में भी उम्मीद की एक किरण पकड़ लेता है — यह एक फ़िल्मकार की वो दृष्टि है जो केवल तकनीक से नहीं, संवेदना से उपजती है।
आलोचना नहीं, प्रशंसा नहीं — गवाही है यह
फ़िल्म समीक्षक सुभाष के. झा ने इसे “साल की सबसे साहसी फ़िल्म” कहा। The Hindu में अनुज कुमार ने लिखा, “यह फ़िल्म उस जगह से बात करती है जहां आमतौर पर सिनेमा चुप्पी साध लेता है।” यह सिर्फ समीक्षाएँ नहीं हैं, यह ऐसी पुकारें हैं जो दर्शकों को आमंत्रित करती हैं कि वे सिर्फ फ़िल्म देखने नहीं जाएं, बल्कि समय का साक्षी बनने जाएं।
कला का असली काम क्या है?
‘इन गलियों में’ हमें याद दिलाती है कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं है। जब दुनिया नफरत से अटी पड़ी हो, जब पहचान के नाम पर इंसान-इंसान से डरने लगे, तब सिनेमा वह आईना हो सकता है जिसमें हम अपना असली चेहरा देख सकें — चाहे वह कितना भी दर्दनाक क्यों न हो।
यह फ़िल्म धर्म और राजनीति के शोरगुल में इंसानियत की उस बहुत ही धीमी लेकिन सच्ची आवाज़ को खोजने की कोशिश है, जिसे सुनने के लिए कान नहीं, दिल की ज़रूरत होती है।
निष्कर्ष: सिनेमा का पुनर्जन्म
‘इन गलियों में’ किसी घोषणापत्र की तरह नहीं बोलती। यह किसी नारे या अभियान का हिस्सा नहीं बनती। यह उससे कहीं ज़्यादा है — यह एक प्रार्थना है, एक मरसिया है, और साथ ही साथ एक उम्मीद भी। जब यह फ़िल्म फिर से सिनेमा घरों में लौटेगी, तो यह एक साधारण रिलीज़ नहीं होगी। यह हमारी चेतना की एक परीक्षा होगी।
क्या हम अब भी ऐसी फ़िल्में देखना चाहते हैं जो हमें अपने समय का आईना दिखाएं?
या हम अपनी आंखें मूंदकर केवल मनोरंजन की तलाश में हैं? इस सवाल का जवाब हर दर्शक को अपने भीतर देना होगा — और ‘इन गलियों में’ उस जवाब को खोजने की शुरुआत है।
जावेद जाफरी, इश्तियाक खान, सुशांत सिंह, अवंतिका दसानी, विवान शाह, राजीव ध्यानी, हिमांशु वाजपेयी जैसे चर्चित कलाकारों से सजी इस फिल्म की टीम में अरविंद कन्नाबिरन, जबीन मर्चेंट, अमाल मलिक, संजय चौधुरी और अरुण नांबियार भी परदे के पीछे से शामिल हैं।
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