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एनडीटीवी के जबरिया और तिकड़मी टेकओवर…. मसला सिर्फ एक चैनल या पत्रकार का नहीं है

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बादल सरोज

एनडीटीवी के जबरिया और तिकड़मी टेकओवर पर देश भर में विक्षोभ और चिंता की लहर सी उठी है। मीडिया के भविष्य को लेकर फ़िक्र बढ़ी है – ज्यादातर लोगों ने इसे ठीक उसी तरह लिया है, जिस तरह लिया जाना चाहिए और वह यह कि : एनडीटीवी का अधिग्रहण उसे चलाने के लिए नहीं, उसे उसके मौजूदा स्वरूप में न चलने देने के लिए किया गया है। यह अधिग्रहण भारत के इतिहास में अब तक की सबसे देशघाती और निरंकुश हुकूमत को चलाने वाले गंठजोड़ के अपकर्मों को उजागर करने वाली हर छोटी–बड़ी संभावना को समाप्त करने के लिए है। सूचना के हरेक छोटे–बड़े स्रोत को गोद में बिठाकर उसे मालिक की अपनी आवाज – हिज मास्टर्स वॉइस – में बदल देने के लिए है।  

ठीक यही वजह है कि इस अधिग्रहण को सिर्फ रवीश कुमार या एनडीटीवी तक सीमित रखकर देखना समस्यापूर्ण नजरिया है। निस्संदेह रवीश कुमार हमारे समय के बड़े पत्रकार हैं, एक बेहद कठिन समय में उन्होंने पत्रकारिता की लाज ही नहीं रखी, उसे एक नयी वर्तनी, मुहावरा और जन, खासकर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच सम्मान प्रदान किया है। उन्होंने आम आदमी को – लोक को – खबरों का केंद्र बनाया है, पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है और इसी के साथ युवा पत्रकारों की एक पूरी टीम – जिसमे इसी वर्ष के लोकजतन सम्मान से अभिनंदित अनुराग द्वारी भी हैं – तैयार की है और ऐसा करते हुए जनता के बीच भी असाधारण लोकप्रियता हासिल की है। 

इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रणव और राधिका रॉय ने एनडीटीवी को व्यावसायिक संस्थान के रूप में चलाते हुए भी भारत के मीडिया – विजुअल मीडिया – का एक अलग तरह का मानक बनाया है। सनसनी और प्रायोजित तड़के में बघारे प्रोपेगंडा की जगह ख़बरों को अपेक्षाकृत सलीके से पेश करने की सलाहियत दी है। तात्कालिक राजनीतिक दबाबों में न आकर अक्सर अपनी रीढ़ की सलामती का सबूत दिया है। तय है, ऐसी हालत में कुछ घाटे उठाने पड़ते हैं और यह जबरिया अधिग्रहण ऐसे ही घाटों में से एक है, मगर फिर भी इस पूरे घटनाविकास को सिर्फ रवीश कुमार या एनडीटीवी तक पर केंद्रित कर देखने से इस घटना के वास्तविक निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। ऐसा करते में उन खतरों को भी अनदेखा कर दिए जाने की आशंका है, जो इस अधिग्रहण से सामने आये हैं। 

एनडीटीवी का अडानी टीवी बन जाना हमारे कालखण्ड की एक ऐसी दुर्घटना है, जिसका  प्रभाव आने वाले दिनों में समूचे मीडिया पर धनपशुओं और उनकी पालित-पोषित सत्ता के वर्चस्व की संपूर्णता के रूप में दिखेगा। इसलिए इसे व्यक्तियों से ऊपर उठकर प्रवृत्तियों के हिसाब से देखना उचित होगा।  इस अधिग्रहण के बाद लंदन में बोलते हुए गौतम अडानी ने दावा किया है कि अब तक भारत में कोई भी ऐसा चैनल नहीं है, जो विश्व स्तर का हो, इसलिए वे एनडीटीवी को नया रूप देकर उसे एक विश्व स्तर का चैनल बनाना चाहते हैं। वे भूल गए कि ऐसा कहते में वे एक तरह से खुद अपने स्वामित्व वाले मीडिया सहित भारत के बाकी चैनलों को स्तरहीन बताते हुए उन्हें आईना दिखा रहे थे। उसके क्षरण के 2014 के बाद पूर्ण पराभव का शिकार होकर गोदी मीडिया में बदल जाने की स्थिति को स्वीकार कर रहे थे। मगर स्वीकारोक्ति का यह पूर्ण सच भी असल में आंशिक सच ही है। जैसा कि ऊपर लिखा गया है : एनडीटीवी का अधिग्रहण उसे चलाने के लिए नहीं, उसे उसके मौजूदा स्वरूप में न चलने देने के लिए  किया गया है।

दूसरी बात यह कि जैसा कि कुछ विद्वानों द्वारा दावा किया जा रहा है – यह वैसा, एक कंपनी का दूसरी में मिल जाना या किसी के द्वारा उसे खरीद लिया जाना जैसा कारोबारी कारनामा नहीं है। यह सिर्फ व्यावसायिक मामला नहीं है। यह मिल्कियत और स्वामित्व का एक धन्ना सेठ के हाथ से निकल कर दूसरे के हाथ में जाना भर नहीं है। हालाँकि किसी लोकतांत्रिक समाज में सवाल तो यही होना चाहिए  था कि मीडिया किसी औद्योगिक घराने या धनासेठ के हाथ में होने ही क्यों चाहिये? बहरहाल यह “अखबार और अब आज का मीडिया टीवी वगैरह तो हमेशा ही किसी न किसी की पूंजीपति के हाथ में रहे हैं, इसलिए इसमें नया क्या है” जैसा अति सरलीकरण भी नहीं है। अडानी सामान्य धन्नासेठ नहीं है – उनकी उत्पत्ति और विकास पूंजीवाद के सामान्य नियमों – पैसा जुटाना, उसके निवेश से संसाधन जुटाकर उत्पादन में लगाना, माल पैदा करना, उसे बेचकर मुनाफे के जरिये और पैसा कमाना – जैसी प्रक्रिया के अनुसार नहीं हुई है। सत्ता से सांठगांठ करके की गयी तिकड़मों से राष्ट्र और जनता की सम्पत्तियाँ हड़पने, बैंकों को लूटने के जरिये हुयी है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे आदिम संचय कहते हैं और पूंजीवाद की इस किस्म को दरबारी पूंजीवाद – क्रोनी कैपिटलिज्म – कहते हैं। इस दरबारी पूंजीपति का एनडीटीवी पर कब्जा करना पत्रकारिता को नयी ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए नहीं है। यह दरबार के लिए, दरबार द्वारा, दरबार का कारनामा है, जिसका मुख्य मकसद सिर्फ और केवल राजा का बाजा बजे, यह पक्का करना है।  

यह बात अधिगहण की पूरी साजिश में बरती गयी रहस्यमयी गोपनीयता और सभी प्रचलित नियम, कानूनों को ताक पर रख इसे अंजाम देने में “ऊपर वाले” की भूमिका से भी साफ़ हो जाता है। एनडीटीवी द्वारा लिए गए 400 करोड़ रूपये का  ऋण कर्जदाता कम्पनी से होते हुए अम्बानी के खाते में ट्रांसफर हो जाना और अम्बानी द्वारा उसे 300 करोड़ का घाटा उठाकर अडानी को सौंप देना  व्यावसायिक गतिविधि नहीं है। यह घाटे का सौदा – बैड इकोनॉमिक्स – है और रिलायंस समूह इतना नादान और भोला नहीं है कि वह ऐसे नुकसानदायी  सौदे करे, खासतौर से तब जब अम्बानी खुद मीडिया के धंधे में हैं, इसके बहुत बड़े वाले कब्जाधारी हैं। अगर वे चाहते, तो जो 29.18 प्रतिशत शेयर्स उनके पास थे, उनके आधार पर एनडीटीवी का सम्पादकीय और प्रबंधकीय नियंत्रण हथिया सकते थे – मगर उन्होंने यह काम अडानी को सौंप दिया। जो मुकेश भाई अम्बानी इतनी उदारता अपने इकलौते सगे भाई अनिल अम्बानी के साथ भी नहीं दिखाए थे, उन्होंने यह सद्भावनावश तो नहीं ही किया होगा।  इसमें जरूर “ऊपर वाले” का हाथ रहा होगा। इसलिए यह काण्ड सिर्फ व्यावसायिक चतुराई नहीं है, यह राजनीतिक घपला है। एक ऐसा घपला जिसमे प्रधानमंत्री कार्यालय की लिप्तता है – उन्होंने स्वयं अपने और अपने चहेते दरबारी पूंजीपति के हितसाधन के लिए सारी डोरों को हिलाया–डुलाया है।  

स्वतंत्र भारत में पूँजी के वर्चस्व और एकाधिकार – मोनोपोली – को रोकने के लिए एमआरटीपी एक्ट जैसे क़ानून रहे। मीडिया के बारे में खासतौर से नीति रही कि इसमें विदेशी पूंजी न आये और देशी पूंजी भी अपनी थैलियों की दम पर अखबार, टीवी, रेडियो सहित चौतरफा एकाधिकार न जमाये। उदारीकरण की फिसलन शुरू होने तक आमतौर से इसका पालन हुआ। मगर 2014 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपने अपराधों के उजागर होने के डर से घबराने वालों के सत्तासीन होने के बाद से टाट उलट गया। आज भारत के जितने भी बड़े और ज्यादा प्रसार वाले अखबार, टीवी चैनल्स आदि मीडिया समूह हैं, वे अम्बानी या अडानी के बटुये में समा चुके हैं। तीन साल पहले तक अम्बानी के रिलायंस के स्वामित्व में 80 करोड़ दर्शकों तक पहुँच वाले 72 टीवी चैनल्स थे। अडानी  के हाथ में भी कोई आधा सैकड़ां चैनल्स की मालिकी थी। इस बीच यह संख्या और बढ़ी होगी। देश में सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले – खासकर हिंदी भाषा के – अखबारों को सीधे या आड़े–टेढ़े तरीकों से इन दोनों समूहों द्वारा कब्जाया जा चुका है। यह अभी आगाज है। अति केन्द्रीकरण पूँजीवाद का नियम और दूसरे देशों के अनुभव चिंताजनक तस्वीर दिखाते हैं। वर्ष 2011 में अमरीका में कोई 50-60 कम्पनियां थीं, जिन्होंने मीडिया के 90 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा किया हुआ था। दस साल के भीतर ही आज स्थिति यह है कि  90 प्रतिशत अमरीकी  मीडिया का कब्जा कुल जमा 5-6 कंपनियो के चंगुल में पहुँच गया। कहने की जरूरत नहीं कि इसके और अमरीकी राजनीति के ट्रंपीकरण के बीच सीधा संबंध है।  

भारत में अब तक दो प्रेस कमीशन बने हैं, पहला 1954 में और दूसरा 1980-81 में ; इन दोनों ही प्रेस कमीशन का मानना था कि भारत में प्रेस की स्वतन्त्रता को बुनियादी खतरा मीडिया के औद्योगिक घरानो के स्वामित्व से है। इससे बचने के लिए उसने अनेक उपायों पर भी राय–मशविरा किया था। मीडिया वर्चस्व निरुत्साहित करने के कदमों के अलावा उसने पूँजी घरानो पर मीडिया की अति-निर्भरता रोकने के लिए विज्ञापन नीति सुझाई थी, सरकारी विज्ञापनों के बारे में इस तरह के प्रावधान किये थे कि वे प्रकाशित सामग्री – कंटेंट – के आधार पर नहीं, प्रसार संख्या – सर्कुलेशन – के आधार पर मिले।  मीडिया पर एकाधिकार रोकने के लिए क्षेत्रीय तथा स्थानीय अखबारों को इस विज्ञापन नीति में संरक्षण प्रदान किया गया था। सार्वजनिक नियंत्रण वाले प्रसारण संस्थान बने, उनकी पारदर्शिता और निष्पक्षता की देखरेख के लिए प्रसार भारती और प्रेस कौंसिल जैसे स्वतंत्र निकाय गठित हुए। हालांकि इस समझदारी को ईमानदारी से कभी लागू नहीं किया गया। मोदी की अगुआई में कारपोरेट और हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता के गठजोड़ के सत्ता में आने के बाद तो इस स्थिति को पूरी तरह उलट ही दिया गया।  सरकारी और सार्वजनिक उद्यमों, संस्थानों के विज्ञापन दण्डवत कराने के औजार बना दिए गए। मोदी राज में तो कारपोरेट और धन्नासेठों के विज्ञापन भी इसी आधार पर दिए और रोके जाने लगे। इसका जो असर होना था, वह हुआ भी ; मीडिया का रूप–स्वरुप ही बदल गया, सम्पादक नाम की संस्था ही समाप्त हो गयी, पत्रकारों का गुणधर्म ही बदल दिया गया। नतीजा सामने है :  दुनिया के पत्रकारों के प्रतिष्ठित संगठन “रिपोर्टर्स विथाउट बॉर्डर्स” की रिपोर्ट के अनुसार भारत प्रेस स्वतंत्रता के मामले में 180 देशों में 150वे नंबर पर है – 2021 में यह नंबर 142 था – यह गिरावट लगातार जारी है। यह बढ़ती हुयी तानाशाही का एक प्रमुख संकेतक है। 

ठीक यही वजह है कि यह मसला सिर्फ एक पत्रकार या एक टीवी चैनल का नहीं है। इसलिए इसका जवाब यू–ट्यूब चैनल शुरू करके या ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर फॉलोअर्स बढ़ाकर नहीं दिया जा सकता। सोशल मीडिया कहे जाने वाले ये सभी माध्यम भी अब “बिग ब्रदर” की निगाहों में हैं।   अल्गोरिथम का प्रबंधन और इस्तेमाल करके उन पर भी अंकुश लगाया जाने लगा है। यह तानाशाही सिर्फ मीडिया का गला घोंटने तक सीमित नहीं रहने के लिए नहीं आयी है – यह पूंजीवादी लूट का निर्ममतम राजनीतिक रूप हैं, इसलिए इसका मुकाबला भी राजनीतिक धरातल पर ही हो सकता है। 

*(लेखक ’लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 9425006716)*

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