मुनेश त्यागी
भारत के संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रावधान किए गए हैं, मगर आजादी प्राप्ति के 75 साल बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना पाया गया है और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के बजाय विदेशी भाषा अंग्रेजी आज भी लगातार बढ़ रही है और बलवती होती जा रही है। अंग्रेजी के प्रति लोगों की ललक बढ़ती जा रही है। यहीं पर अहम सवाल उठता है कि हमारी हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई है?
अगर हम इस तरफ केंद्र सरकार की भूमिका और प्रयासों पर नजर डालें तो हमें यहां पर हताशा और निराशा ही नजर आती है। आखिर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का कोई विज्ञानिक फार्मूला आज तक भी क्यों तैयार नहीं किया गया? इसका सारा दोष कांग्रेस और भाजपा पर जाता है। कांग्रेस ने अपने 60 साल के शासन में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। भाजपा भी इस दोष से बरी नहीं हो सकती। भाजपा तो हिंदू, हिंदी हिंदुस्तान की सदा से बात करती आई है पर उसने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए क्या काम किया? जबकि वह पांच साल पहले और अब पिछले 8 साल से केंद्र सरकार में आरूढ़ है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर उसने भी कोई ब्लूप्रिंट तैयार नहीं किया है। हां भाषणबाजी और जुमलेबाजी जरुर की है। हमारी सरकारों द्वारा अंग्रेजी को हटाने का कोई कार्यक्रम या नीतियां नहीं बनाई गई हैं। अधिकांश उच्च संस्थानों में शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून, परीक्षाओं और प्रौद्योगिकी में आज भी अंग्रेजी का साम्राज्य कायम है। इन सभी क्षेत्रों और विभागों में जनता द्वारा बोली और समझे जाने वाली हिंदी या हिंदुस्तानी भाषा का कोई प्रयोग नहीं किया गया है।
दुख देने वाले हालात यहां तक खराब है कि अधिकांश कानूनों की किताबें अंग्रेजी में हैं। भारत के अधिकांश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय आज भी अंग्रेजी में फैसले दे रहे हैं। वादकारियों को पता ही नहीं चलता कि उसके वकील और न्यायालय में क्या बहस कर रहे हैं और न्यायमूर्ति क्या कह रहे हैं? मेडिकल की किताबें अंग्रेजी में है। यही हाल प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग का है। हमारे देश में सारी परीक्षाएं अंग्रेजी माध्यम में होती हैं, इसीलिए जनता किसी भी तरह से अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहती है। भाजपा और कांग्रेस की सरकारें अपने-अपने राज्यों में हिंदी भाषी स्कूल न खोलकर, अंग्रेजी भाषा के स्कूल खोल रही हैं। यह कौन सी मानसिकता है? क्या ऐसा करके अंग्रेजी की गुलामी से निजात पाई जा सकती है और हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सकता है?
वैसे तो मोदी अंग्रेजी दासता के सबूतों को मिटाने की बात करते हैं, मगर वे अंग्रेजी भाषा की गुलामी और दासता से निजात पाने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने पिछले 8 साल में इस बारे में राजनीतिक पार्टियों और विशेषज्ञों से कोई बात नहीं की है, कोई चर्चा नहीं की है। कोई बैठक इस बारे में नहीं बुलाई गई है। सरकार की इस बेरुखी के चलते, हिंदी या हिंदुस्तानी कभी भी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती।
यहीं पर सवाल उठता है कि जब रूस, चीन, जापान, इटली, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, कोरिया, वियतनाम क्यूबा और दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में अपनी-अपनी भाषाओं को राष्ट्रीय भाषा बनाकर अपनी जनता में ज्ञान विज्ञान, प्रौद्योगिकी और साहित्य का विस्तार और प्रचार प्रसार किया गया है और इसी आधार पर उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में विकास के झंडे गाड़ दिए हैं, तब भारत की सरकार ने ऐसा क्यों नहीं किया?
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के मामले में हमारा कहना है कि यह काम जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता। ऐसा करने के लिए सरकार को सभी राज्यों को विश्वास में लेकर, सर्वसम्मत त्रिभाषा फार्मूला लागू करना होगा। हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी, संस्कृतनिष्ठ नहीं, बल्कि जनता की भाषा यानी बुद्ध, प्रेमचंद, फैज, निराला, साहिर लुधियानवी, सुभद्रा कुमारी चौहान और दिनकर वाली, आम जनता की बोलचाल की भाषा को अपनाना पड़ेगा। पूरे देश की जनता को इस राष्ट्रीय अभियान में लगाना होगा, इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जाएगी।
हमारे यहां कानून की शब्दावली तैयार की गई है। वह इतनी जटिल और संस्कृतनिष्ठ है कि उसे समझना और इस्तेमाल करना लगभग असंभव है। वह इतनी अवैज्ञानिक है कि उसे न्यायालय और आम बोलचाल की भाषा में समझना और प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए विदेशों के तौर तरीके और अनुभव से सबक लेने होंगे और उनसे सीखना होगा कि कैसे राष्ट्रभाषा विकसित की जाती है। इस विषय में सरकार को हिंदी और हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने में अपनी बेरुखी छोड़नी होगी। ऐसा करके ही हमारे देश और समाज में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिल सकता है। तभी जाकर अंग्रेजी की गुलामी और जंजाल से निजात पाई जा सकती है। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है।