यही वह सवाल है, जो देश में सोचने-समझने वाले हर मस्तिष्क में गूंज रहा है। लेकिन क्या करें, देश में चुनाव है, इसलिए शासन की मशीनरी मिशन मोड पर नए-नए तथ्यों के साथ सामने आ रही है। देश में गरीब की चिंता में सभी घुले जा रहे हैं। सरकार का पुर्जा-पुर्जा देश में खुशहाली की तस्वीर बयां करने के लिए एक से बढ़कर एक दावे करता नजर आ रहा है। जमीनी हकीकत से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में खूंटा गाड़ने को आतुर किसानों को इस बार दिल्ली से 200 किमी दूर ही रोक दिया गया है, जबकि पड़ोस में उत्तर प्रदेश के नौजवान एक अदद नौकरी की आस में हाल ही में 45 लाख से भी अधिक संख्या में प्रदेश के विभिन्न परीक्षा केंद्रों में उपस्थित होने की होड़ में यातायात व्यवस्था को चरमरा कर रख दिए थे।
मोदी सरकार में तो आंकड़ों का खेल ही सुखद अहसास देने वाला साबित हुआ है, अन्यथा शहर हो या गांव, हर जगह बुरा हाल है। पिछले दिनों ही देश के सामने आंकड़ों का एक गट्ठर पेश किया गया था, जिससे देश को पता चला कि 2013 से 2022 के बीच में करीब 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से उबार लिया गया है, और अब मात्र 11% लोग ही देश में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन बिताने को मजबूर हैं, जिन्हें जल्द ही मोदी जी के नेतृत्व में अपने तीसरे कार्यकाल में बाहर निकाल लिया जायेगा।
लेकिन शायद यह काफी नहीं था। अब नीति आयोग ने एक बड़ा खुलासा खपत में हुई वृद्धि के आधार पर निकालते हुए किया है कि देश में गरीब तो 5% भी नहीं बचे हैं। ये आंकड़े 24 फरवरी के दिन जारी किये गये हैं, लेकिन कल ही इसका खुलासा हुआ है, इसलिए आज के दिन देश के सभी समाचारपत्रों में ये सबसे बड़ी सुर्खियां बने हुए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नीति आयोग के द्वारा चुनाव की घोषणा से पहले-पहले एक और खुलासा कर दिया जाये, जिसमें बाक़ी के बचे 5% लोगों को भी गरीबी से मुक्त किये जाने की जानकारी मिल जाए।
नोटबंदी, जीएसटी और कोविड महामारी कई करोड़ लोगों को गरीब बना गई
है न अजीब बात! कहां तो 2017-18 में अखबार ये बता रहे थे कि देश में बेरोजगारी 45 वर्षों के अपने चरम पर पहुंच गई है, और साहिबाबाद इंडस्ट्रियल एरिया की चाय की दुकानों पर मजदूर चाय के साथ बिस्किट की खपत को बड़े पैमाने पर कम कर चुके हैं। एफएमसीजी कंपनियों का अलग रोना चालू था, और वे अपनी बिक्री को बनाये रखने के लिए नए-नए तरीके अपना रही थीं।
पार्ले-जी बिस्किट का पैक दिन-प्रतिदिन छोटा होता गया। इसी प्रकार विभिन्न खाद्य वस्तुओं एवं सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुओं की औसत साइज़ के बजाय शैसे का चलन बढ़ गया। मैगी के छोटे-छोटे पाउच से लेकर दूध के, दही के पाउच भी 500 एमएल से घटकर उपभोक्ता की जेब के हिसाब से आकार लेने लगे।
लेकिन हमें धन्यवाद देना चाहिए नीति आयोग और उनके सीईओ बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम का, जो खुलकर दावा पेश कर रहे हैं कि देश में उपभोक्ता खपत कम होने के बजाय दुगुने से भी अधिक हो चुकी है। उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात तो यह है कि शहरों के बजाय ग्रामीण क्षेत्र में यह चमत्कार सिर चढ़कर बोल रहा है। जहां पर खपत में ढाई गुना वृद्धि का दावा नीति आयोग कर रहा है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम जो तो यहां तक दावा कर रहे हैं कि हाल के वर्षों में ग्रामीण एवं शहरी खपत में भी जो खाई थी उसमें तेजी से कमी आ रही है।
नीति आयोग ने ये निष्कर्ष एनएसएसओ के ‘पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण-2022-23’ की रिपोर्ट के आधार पर निकाले हैं। इन आंकड़ों को एनएसएसओ की ओर से अगस्त 2022- जुलाई 2023 के बीच सर्वेक्षण के आधार पर निकाला गया है।
इसमें देश की जनसंख्या को 12 अलग-अलग आर्थिक श्रेणियों में रखा गया है। सबसे निचली पायदान पर 5% लोग हैं, जिनमें मासिक खपत ग्रामीण 1,441 रूपये तो शहर में 2,087 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह आंकी गई है।
इसके बाद 5 से 10% और फिर 10-10% जनसंख्या के लिए खपत व्यय का आंकड़ा दिया गया है। सबसे अमीर 95%-100% वर्ग का खर्च ग्रामीण 10,581 रुपये और शहर 20,846 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह का आकलन किया गया है। पहली नजर में ही 5% सबसे अधिक कमजोर आर्थिक वर्ग का आंकड़ा चौंकाने वाला लगता है। मान लेते हैं कि गरीबी रेखा में रहने वाले ग्रामीण की यदि प्रति व्यक्ति खपत 1,441 रुपये है, तो इसका अर्थ हुआ कि 4 सदस्यों वाले परिवार की मासिक आय कम से कम 5,800 रुपये अवश्य होगी।
जबकि वास्तविकता यह है कि देश में मनरेगा 200 रुपये के आसपास है। देश में रोजगार के अधिकार के रूप में मनरेगा की शुरुआत की गई थी, जिसमें वर्ष में न्यूनतम 100 दिन रोजगार की गारंटी का प्रावधान है, लेकिन औसत 30 दिन से अधिक नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र में लगातार मनरेगा के तहत काम की मांग बनी हुई है, लेकिन राज्यों को फंड मुहैया नहीं कराया जा रहा है। ऐसे में एनएसएसओ यह आंकड़ा किस आधार पर पेश कर रहा है?
नीति आयोग के मुताबिक गांवों में खुशहाली का आलम
सीएनबीसी के साथ अपनी बातचीत में नीति आयोग के सीईओ बी. वी. आर. सुब्रह्मण्यम बता रहे हैं कि असल में देश में गरीबी 5% से भी कम हो चुकी है। ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति खपत में लगभग ढाई गुना की वृद्धि हुई है, जो बताता है कि शहर ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में भी तरक्की हो रही है।
उल्टा, ग्रामीण क्षेत्रों में खपत व्यय की रफ्तार शहरी क्षेत्र से कहीं तेज गति से बढ़ी है। यह लगभग 20% अधिक बढ़ा है, जिसका मतलब है कि 10 वर्ष पूर्व शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र में जो गैप था वह 80% या उससे भी अधिक था, आज यह 70% रह गया है। 20 साल पहले यह फासला करीब 90% था, यह कह सकते हैं कि शहरी आय करीब-करीब दुगुना थी, जो आज 70% रह गया है। सुब्रह्मण्यम आशा व्यक्त करते हैं कि आने वाले वर्षों में ग्रामीण और शहरी आय और खपत समान हो जाये।
खाद्यान्न खपत में कमी पर उनका कहना है कि वास्तविक खपत में कमी नहीं आई है, बल्कि उसमें बढ़ोत्तरी हुई है। लोगों की आय में वृद्धि हो जाने की वजह से खाद्यान पर होने वाले खर्च में 3 से चार गुना कमी आ गई है। शहरों में जो पहले 22% हिस्सा खाद्यान की खरीद पर खर्च किया जाता था, अब उसकी हिस्सेदारी मात्र 5% जबकि ग्रामीण क्षेत्र में 12% से घटकर 4% रह गई है।
सुब्रह्मण्यम के अनुसार, चावल, दाल या मक्के सहित यदि हम कुल खाद्य बास्केट को देखें तो ग्रामीण क्षेत्र में इन पर खर्च में 50% की कमी आई है, जबकि शहर में 40% की कमी आई है। दोनों ही क्षेत्रों में यह अपनेआप में एक रिकॉर्ड है। इसका अर्थ हुआ कि लोग संपन्न हो रहे हैं, और वे खाने के बजाय अन्य चीजों पर खर्च कर रहे हैं। यहां तक कि खाने में भी दूध, फल और सब्जी की खपत बढ़ी है, यहां तक कि प्रोसेस फ़ूड पर ज्यादा खर्च किया जा रहा है। इसका मतलब है कि गांव और शहर दोंनों जगह आदमी अमीर हो रहा है।
सुब्रह्मण्यम यहीं पर नहीं रुकते। उनका दावा है कि ग्रामीण क्षेत्र में 3 चीजों पर खर्च में बढ़ोत्तरी हुई है। वाहन की खरीद और यात्रा पर खर्च तीन गुना बढ़ा है। सबसे अधिक इसी पर खर्च हो रहा है। इसके बाद मोबाइल फोन जैसे कंज्यूमर उत्पादों पर खर्च बढ़ा है। तीसरा कंज्यूमर ड्यूरेबल उत्पादों, जैसे कि फ्रिज या टीवी की खरीद पर खर्च किया जा रहा है। यही कारण है कि कंपनियां आजकल ग्रामीण क्षेत्रों से उम्मीद बांधे हुए हैं।
इसके साथ ही सुब्रह्मण्यम असली एजेंडे पर आ जाते हैं। असल में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में खाद्यान पर वेटेज का मुद्दा हाल के वर्षों में नीति आयोग और मोदी सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। लेकिन अब चूंकि एनएसएसओ के नवीनतम आंकड़ों में दिखाया जा रहा है कि गरीब से गरीब आदमी भी खाद्यान पर मामूली खर्च कर रहा है, तो फिर इस केटेगरी में इतना अधिक वेटेज देने में क्या तुक है? इसी के साथ सीपीआई के डेटा में बदलाव की जरूरत नीति आयोग को समझ में आती है। एक बार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के वेटेज में बड़ा बदलाव कर दिया जाता है तो टमाटर, प्याज और आलू के दामों में तेज बढ़त से सीपीआई पर खास फर्क नहीं पड़ेगा और देश में महंगाई के आंकड़े सरकार को परेशान नहीं करेंगे।
सुब्रह्मण्यम कहते हैं कि एनएसएसओ सर्वे के बाद उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) और वास्तविक खपत सूचकांक में कुछ अंतर आ गया है, जिसे बैलेंस करने की जरूरत है। खाद्य वस्तुओं को सीपीआई में उतना ही वेटेज दिया जाना चाहिए, जितना कि वास्तविक खपत की जा रही है। ऐसा हुआ तो आरबीआई रेपो रेट में कमी ला सकती है, बैंकों को भी व्याज दर को कम करने का मौका मिलेगा, और आम लोगों को भी कम ब्याज दर पर मकान, दुकान और वाहन की खरीद में आसानी होगी।
एनएसएसओ ने पेय पदार्थों पर खर्च का जो आंकड़ा पेश किया है, वह वाकई में चौंकाने वाला है। इसके अनुसार, गाँवों में पेय पदार्थ एवं प्रोसेस फ़ूड पर सबसे अधिक 363 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च किये जा रहे हैं, जबकि शहरों में यह खर्च 687 रूपये तक पहुंच गया है। गेहूं चावल में यह खर्च ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में मात्र 267 और 294 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह दर्शाया गया है। यह ज्यादती है, या कहा जा सकता है कि आंकड़े सही ढंग से इकट्ठा नहीं किये गये हैं। और भी उदाहरण हैं, जिनपर ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में देश में अर्थशास्त्री विवेचना करेंगे।
कॉर्पोरेट निवेश नहीं कर रहा, लेकिन सरकारी आंकड़ों में रिकॉर्ड खपत
लेकिन एक बात तो तय है। मोदी सरकार भारत की इमेज विश्व की सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यस्था बना रही है। ऐसे में 20-25 करोड़ लोग यदि गरीबी की रेखा में नजर आते हैं, तो अच्छा नहीं लगता और सरकार की परफॉरमेंस भी बिगड़ती है। हाल ही में 25 करोड़ लोगों को मल्टी पावर्टी इंडेक्स की मदद से बाहर निकाला गया था। अब एनएसएसओ के नवीनतम आंकड़े 6 करोड़ अतिरिक्त भारतीयों को गरीबी की रेखा से निकालने में सफल रहे हैं।
बुरा हो हमारे देश के कॉरपोरेट्स का, जिन्हें पिछले 7 वर्षों से नजर ही नहीं आ रहा है कि देश में उपभोक्ता अपनी खपत को दुगुना और गांव में तो ढाई गुना बढ़ा चुके हैं। मोदी सरकार ने देश में कॉर्पोरेट के द्वारा नए निवेश और उद्योग लगाने के लिए ही कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट दी थी, जिसके चलते हर वर्ष कॉर्पोरेट 2 लाख करोड़ रुपये की मुनाफावसूली मुफ्त में कर रहा है। लेकिन वित्त मंत्री के तमाम अपील के बावजूद देश का कॉर्पोरेट खपत न होने का बहाना बनाकर निवेश से लगातार कन्नी काट रहा है।
ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि या तो खपत वृद्धि के बारे में सरकारी आंकड़े झूठे हैं, या कॉर्पोरेट धोखा दे रहा है, या फिर बिना उत्पादन के ही भारत के आम लोग वर्चुअल खपत में इजाफा कर देश की अर्थव्यस्था में अपना योगदान दे रहे हैं। अब यह बात न तो हमारे देश की मीडिया बताने जा रही है, और न ही नीति आयोग, लेकिन 2024 आम चुनाव में इससे मोदी सरकार, एक बार फिर से का दावा तो निश्चित ही मजबूत होने जा रहा है।