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महाभारत युद्ध का कारण द्रौपदी नहीं अपितु कापुरूष युधिष्ठिर था !

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-निर्मल कुमार शर्मा

किसी भी व्यक्ति के सत्कर्म,सुविचार,सत्यनिष्ठा, न्यायप्रियता,दया,करूणा,कर्मठता, सच्चरित्रता,जनहितकारी कार्य आदि ही उसे इतिहास पुरूष बना देते हैं,चाहे वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हों,श्रीकृष्ण हों,ईसा हों,बुद्ध हों या गाँधी हों।अपने वर्तमान समय में इन कार्यों से इतर काम करनेवाले अपनी सत्ता के बल पर चाहे जबर्दस्ती ‘सुयश ‘पाने का लाख यत्न कर लें,लेकिन उनके पराभव के बाद इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करता,इतिहास इस मामले में बहुत निर्मम और सत्यपरक होता है।इस मामले में जवलंत उदाहरण के तौर पर एडोल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी का नाम लिया जा सकता है,जिनके जीवनकाल में उनके भय से दुनिया थर्राती थी,लेकिन आज उनके किए ‘कुकर्म ‘से दुनिया उनको आज अत्यंत हिकारत भरी नजरों से देखती है,ठीक उसी प्रकार महाभारतकालीन एक और पात्र है,जो कहलाता तो अभी भी ‘धर्मराज ‘है,लेकिन उसके जीवन काल में किए कृत्यों को देखें तो वह किसी भी दृष्टिकोण से ‘धर्मराज ‘ कहलाने का कतई अधिकारी ही नहीं है।   

   महाभारतकाल से आज तक युधिष्ठिर को ‘धर्मराज ‘ की उपाधि से नवाजा जाता रहा है ! यही कथित ‘जुआरी धर्मराज युधिष्ठिर ‘जब खुद अपने चारों भाईयों सहित अपनी साझी पत्नी द्रौपदी को भी जुए में दाँव पर लगाकर,हार जाता है,तब दुर्योधन उन पाँचों भाईयों को आदेश देता है कि ‘मेरे अधीन हो चुके दासों ! दासों के सिर पर यह मुकुट पहनना अच्छा नहीं लगता,इसे उतारो और मेरे चरणों में रखो,उसके बाद दुर्योधन द्वारा अपने सेवक को जुए में विजित अभागी महारानी द्रौपदी के अन्तःपुर वाले महल के कक्ष से इस द्युतसभा में बुलाकर लाने का आदेश दिया जाता है ।      सेवक द्वारा महारानी द्रौपदी को सभी बातों से अवगत कराने के बाद महारानी द्रौपदी ,जो अब दुर्योधन की दासी बन चुकी है  उस सेवक से कहती है कि ‘ये प्रश्न केवल द्रौपदी नहीं कह रही है,ये प्रश्न पूरी स्त्री जाति कर रही है। ‘ 

    ‘मैं पाँचों पाँडुपुत्रों की पत्नी हूँ। ‘   

  ‘अपनी पत्नी को तो कोई अधर्मी भी दाँव पर नहीं लगाता..क्या धर्मराज युधिष्ठिर मदिरा पीकर द्युतक्रीड़ा खेल रहे थे ?वे अपने भाइयों और मुझे जानते-बूझते हार गये ?उस जुआरी से पूछकर आओ कि पहले वो खुद को हारा था या मुझे ? ‘   

   महाभारतकालीन सामंती समाज का यह एक अलिखित नियम था कि ‘जैसे युद्ध का आह्वान स्वीकार करना पड़ता था,ठीक वैसे ही द्युतक्रीड़ा के निमंत्रण को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। प्रश्न है युधिष्ठिर एक राजा थे उनको इस द्युतक्रीड़ा जैसी कुप्रथा के खिलाफ जाकर इस कुप्रथा को बन्द भी करवा सकते थे,लेकिन उनकी कायरता,भीरूता और नपुंसकता की सबसे बड़ी भुक्तभोगी द्रौपदी को होना पड़ा। यक्ष के प्रश्न का सफलतापूर्वक उत्तर देनेवाले युधिष्ठिर के पास द्रौपदी के इस प्रश्न का कोई जबाब नहीं था,जिसमें द्रौपदी ने उनसे पूछा था कि ‘आप द्युतक्रीड़ा के निमंत्रण को क्यों स्वीकार किए ? आपको अपने चारों भाईयों को दाँव पर लगाने का अधिकार किसने दिया ? एक जुए में खुद हारा व्यक्ति अपनी पत्नी को दाँव पर कैसे लगा सकता है ? और वह भी तब जब वो आपकी नहीं पाँच पतियों की पत्नी है। ‘ द्रौपदी ने युधिष्ठिर द्वारा चारों भाईयों,साझी पत्नी और खुद को हार जाने के बाद उन्हें एक गुड़हल के पुष्प को द्युतक्रीड़ा स्थल पर इस संदेश के साथ भिजवाया था कि ‘इस पुष्प की पाँच पंखुड़ियां एक डंठल से जुड़ीं हैं अगर डंडी को तोड़ देंगे तो पाँचों पंखुड़ियां बिखर जाएंगी ‘,लेकिन मूर्ख और जाहिल युधिष्ठिर उस ‘द्युतधर्म ‘ की रक्षा के लिए अपनी साझी पत्नी द्रौपदी को ही दाँव पर लगाकर,उसे भी हार भी गया ! महाभारतकालीन तत्कालीन सभ्य और कुलीन समाज में और आज के वर्तमानकाल के सभ्य समाज में भी जुए जैसे कर्म को ‘नीच कर्म ‘माना जाता था और है,उदाहरणार्थ द्वारिका में भी छोटे-छोटे दंगलों और प्रतियोगिताओं में भी औरतों को दाँव पर लगाने की कुप्रथा प्रचलित थी,लेकिन उस समय के एक समाज के सुप्रसिद्ध हित चिन्तक श्री बलराम जी,ये इतिहास प्रसिद्ध कृष्ण-बलराम की जोड़ी के वही श्री बलराम जी हैं,ने उसी समय युधिष्ठिर के इन तमाम कुकृत्यों की तीव्ररूप से और सार्वजनिक तौर पर भर्त्सना करते हुए कहा था कि ‘राजनीति और समाज में सुचिता के लिए स्त्रियों को दाँव पर लगाना एक सामाजिक कलंक है,इस प्रथा को मैं समाप्त करता हूँ। राज्य पत्नी को दाँव पर लगाने का अधिकार नहीं देता। ‘

      युधिष्ठिर ने अपने उस गुरू द्रोणाचार्य को,जो युधिष्ठिर पर सबसे ज्यादे भरोसा करते थे,उनके भरोसे को भी तोड़कर ‘अश्वत्थामा मरो,नरो..या कुँजरो ‘ में असत्य ‘नरो ‘ को जोर से और सत्य ‘कुँजरों ‘ को धीरे से बोलकर,उन्हें निःशस्त्र कर मौत के मुँह में धकेल दिया,अपने जीवन के हर मोड़पर संकट में साथ देनेवाले भीम और अर्जुन तथा पत्नी द्रोपदी को भी कथित स्वर्ग जाने में साथ छोड़कर,एक कुत्ते को साथ ले जाने की जिद करनेवाला मूर्खतापूर्ण कार्य किया ! यह ऐतिहासिक रूप से बिल्कुल सत्य तथ्य है कि सुप्रसिद्ध धनुर्धर अर्जुन एक विधिजन्य स्वयंवर से प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करके द्रौपदी को जीतकर लाए थे,नियमतः और न्याय की कसौटी पर द्रौपदी अर्जुन की इकलौती पत्नी थीं,परन्तु यहाँ भी युधिष्ठिर का कपट उजागर होता है,जिसकी वजह से बेचारी बेकसूर द्रौपदी को आजीवन पाँच पतियों की पत्नी बनने को अभिशापित होना पड़ा !,क्योंकि माता कुँती ने अनजाने में ‘उस वस्तु को ‘बाँट लेने की बात कह दी थी,लेकिन बाद में कुँती ने अपनी गलती मानते हुए यह स्पष्ट किया कि ‘द्रौपदी कोई अनाज या फल नहीं है,जो बाँटी जाय,इसलिए मैं अपनी कही बात वापस लेती हूँ। ‘लेकिन युधिष्ठिर एक अधर्मी और तामसी प्रवृत्ति के व्यक्ति की तरह अपने पक्ष में एक तर्क गढ़ लिए,कि माता के आदेश का पालन करना मेरा धर्म है,लेकिन बाद वाला माँ का आदेश भी तो ‘धर्मपालन ‘करना ही था,लेकिन चूँकि उसमें युधिष्ठिर का स्वार्थ सिद्धि नहीं हो रही थी,इसलिए वह बाद वाला माँ का आदेश त्याग दिया। इसके अतिरिक्त वह एक अनजाने ऋषि की पत्नी का उदाहरण ले आया ‘जो बहुपतित्व प्रथा की समर्थक थी। ‘अंततः युधिष्ठिर जैसा पतित व्यक्ति इस ‘गलत परंपरा ‘ को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करके अपने छोटे भाई की पत्नी को ‘अपनी पत्नी ‘ बना लेने में सफल हो जाता है, जबकि तत्कालीन महाभारतकालीन समाज में भी बहुपति की कबीलाई प्रथा समाप्ति के कगार पर थी,उस समय भी सभ्य और सुस्कृंत समाज में छोटे भाई की पत्नी को ‘पुत्री समान ‘ समझा जाता था। आज के वर्तमान समाज में भी छोटे भाई की शादी में बड़ा भाई उसके नई ‘गृहस्थी ‘ को सम्भालने में अपना एक बड़ा दायित्व निभाता है। 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री बलराम जैसे महानायक महाभारतकाल में भी तत्कालीन समाज की कुरीतियों और जड़ता को समाप्त कर भारतीय समाज को प्रगतिशील बनाना चाहते हैं,परन्तु युधिष्ठिर जैसे पतित,जुआरी,निकृष्ट सोच के लोग तमाम बुराइयों, रूढ़ियों को जिंदा रखकर भारतीय समाज को सांमती युग में झोंकने को उद्यत थे व उसकी कुचेष्टा कर रहे थे। आज के वर्तमान समाज में भी युधिष्ठिर जैसे कदाचारी धर्म का चोला ओढ़कर समाज में भयंकर गंदगी और सामाजिक प्रदूषण फैला रहे हैं। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि श्री बलराम जी,भीम और अर्जुन के समक्ष युधिष्ठिर का व्यक्तित्व कहीं भी नहीं ठहरता,वह उन नायकों के समकक्ष किसी स्तर पर समतुल्य कहलाने का कतई हकदार नहीं है।

-निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र

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