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मुसलमान से इतर आम इंसान के लिए भी अहम है “रोजा” का विज्ञान

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(यह लेख चेतना विकास मिशन के निदेशक डॉ. विकास मानवश्री के मार्गदर्शन और निराश्रितों की सेवा संबंधी उनके सफ़र की हमसफ़र गुलबानो फातिमा, दिल्ली द्वारा प्रदत्त सामग्री पर आधारित है.)


~ प्रखर अरोड़ा

रमजान के अध्यात्मिक- दार्शनिक- सामाजिक पहलू पर पिछले लेख में हम प्रकाश डाल चुके है. वैज्ञानिक पहलू की बात करें तो मनुष्य के शरीर में मेदा एक ऐसा कोमल अंग है जिसकी सुरक्षा न की जाए तो उस से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार रोज़ा मेदा के लिए उत्तम औषधि है क्योंकि एक मशीन यदि सदैव चलती रहे और कभी उसे बंद न किया जाए तो स्वभावतः किसी समय वह खराब हो जाएगी। उसी प्रकार मेदे को यदि खान-पान से विश्राम न दिया जाए तो उसका कार्यक्रम बिगड़ जाएगा।


मेडिकल साइन्स का मत है कि रोज़ा रखने से आंतें दुरुस्त एंव मेदा साफ और शुद्ध हो जाता है। पेट जब खाली होता है तो उसमें पाए जाने वाले ज़हरीले कीटाणु स्वंय मर जाते हैं और पेट कीड़े तथा बेकार पदार्थ से शुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार रोज़ा वज़न की अधिकता, पेट में चर्बी की ज्यादती, हाज़मे की खराबी(अपच), चीनी का रोग (DIABATES) बलड प्रेशर, गुर्दे का दर्द, जोड़ों का दर्द, बाझपन, हृदय रोग, स्मरण-शक्ति की कमी आदि के लिए अचूक वीण है।
“इस्लाम और मेडिकल साइंस” नामक शोध में इसाई चिकित्सक रिचार्ड कहते हैं – “जिस व्यक्ति को फाक़ा करने की आवश्यकता हो वह अधिक से अधिक रोज़ा रखे। मैं अपने इसाई भाइयों से कहूंगा कि इस सम्बन्ध में वह मुसलमानों का अनुसरण करें। उनके रोज़ा रखने का नियम अति उत्तम है।”
“नर्विज कमेटी” नें एक रिसर्च द्वारा स्पष्ट किया कि रोज़ा जोड़ों के दर्द और सूजन के लिए सब से उत्तम औषधि है शर्त यह है कि निरंतर चार सप्ताह ( और यही इस्लामी रोज़े की अवधि है) तक रखा जाए।
आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डा. मोर पाल्ड “सुन्नते नबवी और आधुनिक विज्ञान” नामक अपने शोध में कहते हैंः ”मैंने इस्लामी शिक्षाओं का अध्ययन किया और जब रोज़े के विषय पर पहुंचा तो चौंक पड़ा कि इस्लाम ने अपने अनुयाइयों को इतना महान फारमूला दिया है, यदि इस्लाम अपने अनुयाइयों को और कुछ न देता तो केवल यही रोज़ा का फारमूला उसके लिए काफ़ी था।”

_यहाँ हम रमजान से संबंधित कतिपय अन्य अहम पहलुओं से आपको रू-ब-रू कराते हैं :_

रोज़े का महत्वपूर्ण उद्देश्य आत्म~प्रशिक्षण :
धर्मविदों का कहना है कि सबसे अधिक बुरा प्रभुत्व मानव के अस्तित्व पर उसकी मनेच्छाओं का नियंत्रण नहीं होना है। रोज़ा मानव की आंतरिक इच्छाओं को बे-लगामपन के बंधन से मुक्त करवाने में सक्षम है।
रोज़े का प्रशिक्षणात्मक कार्यक्रम मनुष्य के लिए यह अवसर उपलब्ध करवाता है कि, वह दिन और रात के निर्धारित समय में अपने शरीर तथा आत्मा को अपनी बहुत सी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित करे।
यह समय अनियंत्रित आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित करने का अच्छा अवसर है। रोज़ा मनुष्य की इच्छाशक्ति को मज़बूत करने में सहायक सिद्ध होता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल कहते हैं :
माहे रमज़ान का महीना, धैर्य का महीना है और धैर्य का बदला स्वर्ग है।
इस्लामी शक्षाओं में धैर्य को मानवीय विशेषताओं में से एक महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में प्रस्तुत किया गया है और धैर्य करने वालों का सम्मान किया गया है।
वे लोग जो संसार में अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए धैर्य का सहारा लेते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं और स्वर्ग तक पहुंचने के योग्य हो जाते हैं।

क़ुरान की सूरे रअद की आयत संख्या 24 में आया है कि तुम पर सलाम है। यह तुम्हारे सब्र का बदला है। तो क्या ही अच्छा है “आख़िरत के” घर का परिणाम। परिपूर्णता के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की आंतरिक क्षमताएं और योग्यताएं सामने आएं।
समस्याओं के सामने आते समय निश्चित रूप से धैर्य, मनुष्य की योग्यताओं और क्षमताओं को उजागर करने का सबसे उचित साधान है।
इस आधार पर धैर्य के माध्यम से प्रगति तथा कल्याण के मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है। जैसा कि हमने बताया कि रोज़े का सबसे महत्वपूर्ण लाभ, मनुष्य की इच्छाशक्ति का सुदृढ़ होना और उसकी बेलगाम इच्छाओं को नियंत्रण है।
आंतिरक इच्छाओं का मुक़ाबला करने में जिन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है वे उस वृक्ष की भांति हैं जो नहर के किनारे या किसी बाग़ की दीवार के निकट लगा हुआ है।
ऐसे वृक्षों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। यदि कुछ दिनों तक इनकी सिंचाई न की जाए तो यह मुरझा जाएंगे। इसके विपरीत वे वृक्ष जो जंगलों में उगते हैं उनकी प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती है।
रोज़ा भी मनुष्य की आत्मा के साथ कुछ एसा ही कार्य करता है। यह निर्धारित समय के लिए कुछ प्रतिबंध लगाकर मनुष्य की इच्छा शक्ति को मज़बूत तथा समस्याओं के मुक़ाबले में प्रतिरोध क्षमता को बहुत बढ़ा देता है: क्योंकि रोज़े और धैर्य से मनुष्य की अनियंत्रित इच्छाएं नियंत्रित हो जाती हैं, रोज़ा रखने वाले का मन और उसकी भावनाएं स्वच्छ तथा प्रकाशमई हो जाती हैं।

इंसान के बुनियादी सवाल और इस्लाम
इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। अल्लाह ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया।
इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया. इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
मुलभूत सवाल हैं : इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है? इंसान को पैदा क्यों किया गया? इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है? इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर? अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है? मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि।

इस्लाम के अनुसार इंसानों में से अल्लाह ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम अलै० से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स०अ०व० तक अनेक ईशदूत आए, जो दुनिया के बहुत से इलाक़ों में और हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल था। दूसरे यह कि लोग अल्लाह के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा अल्लाह का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि अल्लाह एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद ज़िन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स०अ०व० का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर अल्लाह का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं अल्लाह ने ली है।
चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसका कोई एक लफ़्ज़ नहीं बदल सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।

 वेद कहते हैं - मनुर्भव. क़ुरआन का केन्द्रीय विषय भी इंसानमात्र है. क़ुरआन इंसान के बारे में अल्लाह के निज़ाम (सिस्टम) को बताता है. क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है।

जीवन के दो पार्ट :
अल्लाह ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :

  1. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
  2. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है।
    यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।

इंसानी ज़िन्दगी का मक़सद :
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य अल्लाह की इबादत (उपासना) है।
-क़ुरआन, 51:56)
इबादत का अर्थ अल्लाह केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह अल्लाह की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। अल्लाह की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हों, इसलिए नमाज़~ रोज़ा, ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया।
इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
अल्लाह (ईशवर) सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। अल्लाह इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता है, करना ॥हराम॥ (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता है, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।

रोजे कि फज़ीलत :
जब रमज़ान आता है तो आसमान (बरकत) के दरवाजे खोल दिए जाते है, जहन्नम के दरवाजे बन्द कर दिए जाते है, और शयातीन को ज़ंज़ीरों से जकड़ दीये जाते है.
~हदीस : 642, अबू हुरैरह रजी.
रमजान में उमरह करने से हज का सवाब मिलता है।
~मुस्लिम:2254-46, इब्ने अब्बास रजी.
रमज़ान में सवाब कि नीयत से रोज़ा रखने और क़याम (तरावीह पढना) करने वाले के अगले (जो ग़ुज़र चुके) सब (लग़ीरा) गुनाह माफ़ कर दीये जाते है।
~बुख़ारी: 1801, इब्ने मजा:1641,
अबू हुरैरह रजी.
रोज़ा क़यामत के दिन रोज़ेदार कि सिफ़ारिश करेगा।
~मुसनदे अहमद, तबरानी इब्ने अम्र बिन आस रजी.
रोज़े का अज्र (बदला) बे-हिसाब है. और रोज़ेदार कि मुंह कि बू क़यामत के दिन अल्लाहताला को मुश्क़ कि ख़ुसबू से भी ज़्यादा पसंद होगी। ~बुखारी:1894, मुस्लिम: 1997,98, अबू हुरैरह रजी.
‘जन्नत में रय्यान’ नाम का एक दरवाज़ा है, क़यामत के दिन उस दरवाज़े से सिर्फ रोज़ेदार जन्नत में दाख़िल होंगे।
~मुस्लिम बुखारी:1896, इब्ने माजा : 1640 सहल बिन सअद रजी.)
रमज़ान का पूरा महीना अल्लाहताअला हर रात में लोगो को जहन्नम से आज़ाद करते है.
~इब्ने माजा:1642 अबू हुरैरह रजी.
अल्लाहताअला हर रोज़ इफ्तार के वक़्त बहूत से लोगो को जहन्नम से आज़ाद करते है।
~इब्ने माजा:1643 जाबिर रजी.

रमज़ान : अहमियत की बा
रमजान के महीने में एक रात ऐसी है जो हज़ार महीनों से बेहतर है। जो शख़्स इसकि (सआदत हासिल करने) से महरूम रहा, वह हर भलाई से महरूम रहा।
~इब्नेमाजा:1964 अनस रजी.
उस शख़्स के लिए हलाकत है जिसने रमज़ान का महीना पाया और अपने गुनाहों कि बख़्शीश और माफ़ी ना पा सका.
~मुस्तदरक हाकिम-काअब बिन उज़रा रजी.
~कोई शख़्स अगर बग़ैर शरई उज्र के रमज़ान का रोज़ा छोड़ दे या तोड़ दे तो ज़िन्दगी भर के रोज़े़ भी उसकी भरपाई नहीं कर सकते।
~अबू दावूद:239 ज़ईफ, तिरमिजी:621 अबू हुरैरह रजी.

विज्ञान के इस आधुनिक युग में इस्लामी उपवास के विभिन्न, आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक लाभ बताय गए हैं।
इस्लाम में रोज़ा का मूल उद्देश्य ईश्वरीय आज्ञापालन है, इसके द्वारा एक व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाता है कि उसका समस्त जीवन अल्लाह की इच्छानुसार व्यतीत हो।
एक व्यक्ति सख़्त भूक और प्यास की स्थिति में होता है, खाने पीने की प्रत्येक वस्तुयें उसके समक्ष होती हैं, एकांत में कुछ खा पी लेना अत्यंत सम्भव होता है, पर वह नहीं खाता पीता। क्यों?
इस लिए कि उसे अल्लाह की निगरानी पर दृढ़ विश्वास है। वह जानता है कि लोग तो नहीं देख रहे हैं पर अल्लाह तो देख रहा है। इस प्रकार एक महीने में वह यह शिक्षा-योग ग्रहण करता है कि सदैव अल्लाह के हुक्म का पालन करेगा और कदापि उसकी अवज्ञा न करेगा।
रोज़ा अल्लाह के इनामों को याद दिलाता औऱ अल्लाह कि कृतज्ञता सिखाता है क्योंकि एक व्यक्ति जब निर्धारित समय तक खान-पान तथा पत्नी के साथ सम्बन्ध से रोक दिया जाता है।
रोज़े से शैतान भी निंदित और अपमानित होता है क्योंकि पेट भरने पर ही कामवासना उत्तेजित होती है, फिर शैतान को पथभ्रष्ट करने का अवसर मिलता है। इसी लिए मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम के एक प्रवचन में आया है : शैतान मनुष्य के शरीर में रक्त की भांति दौड़ता है। भूख (रोज़ा) के द्वारा उसकी दौड़ को तंग कर देती है.”
महान स्तंभ का मनावीय संबंध :
रोज़ा एक व्यक्ति में उत्तम आचरण, अच्छा व्यवहार, तथा स्वच्छ गुण पैदा करता है : कंजूसी, घमंड, क्रोध जैसी बुरी आदतों से मुक्ति दिलाता है।
इनसान में धैर्य, सहनशीलता और निःस्वार्थ भाव को जन्म देता है। जब वह भूख की पीड़न का अनुभव करता है तो उसके हृदय में उन लोगों के प्रति दया-भाव उभरने लगता है जो प्रतिदिन अथवा सप्ताह या महीने में इस प्रकार की पीड़नाओं में ग्रस्त होते हैं।
इस प्रकार उसमें बिना किसी स्वार्थ और भौतिक लाभ के निर्धनों तथा ज़रूरतमंदों के प्रति सहानुभूति की भावना जन्म लेती है, और उसे पूर्ण रूप में निर्धनों की तकलीफों- आवश्यकताओं का अनुभव हो जाता है
रोज़ा का सामाजिक जीवन पर भी बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। वर्ष के विशेष महीने में प्रत्येक मुसलमानों का निर्धारित समय तक रोज़ा रखना, फिर निर्धारित समय तक खाते पीते रहना, चाहे धनवान हों या निर्धन समाज को समानता एवं बंधुत्व के एकसुत्र में बाँधता है।
धनवान जब भूख एवं प्यास का अनुभव करके निर्धनों की सहायता करते हैं तो उन दोंनों में परस्पर प्रेम एवं मुहब्बत की भावनायें जन्म लेती हैं और समाज शत्रुता, घृणा और स्वार्थ आदि रोगों से पवित्र हो जाता है, क्योंकि सामान्यतः निर्धनों की सहायता न होने के कारण ही चोरी एवं डकैती जैसी घटनाएं होती हैं।
सारांश यह कि रोज़ा से समानता, भाईचारा तथा प्रेम का वातावरण बनता है। समुदाय में अनुशासन और एकता पैदा होती है। लोगों में दानशीलता, सहानुभूति और एक दूसरों पर उपकार करने की भावनायें उत्पन्न होती हैं।
रोज़ा में एक व्यक्ति को शुद्ध एवं शान्ति-पूर्ण जीवन मिलता है। उसका मस्तिष्क सुस्पष्ट हो जाता है। उसके हृदय में विशालता आ जाती है। फिर शरीर के हल्का होने से बुद्धि विवेक जागृत होती है। स्मरण-शक्ति तेज़ होती है। फलस्वरूप एक व्यक्ति के लिए कठिन से कठिन कामों को भलि-भांति कर लेना अत्यंत सरल होता है।

समयबद्धता और सहरी संबंधी सच :
यदि रमज़ान का चाँद देख लें या कोई आदिल (सच्चा) मुसलमान चाँद देखने की गवाही दे तो उसकी बात पर विसश्वास करते हुए रोज़ा रखने की घोषणा कर दी जायेगी। हाँ अगर आसमान में बदली छाई हो तो शाबान (महीने) के तीस दिन पूरे होने पर रमज़ान के रोज़े रखे जायें।
हदीस में है : चाँद देख कर रोज़ा रखो और चाँद देख कर इफ्तार करो यदि तुहारे ऊपर बादल छा जाये तो शाबान के दिनों की मात्रा तीस पूरी करो।
नीयत का सम्बन्ध हृदय से है क्योंकि यह अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है “संकल्प” इस लिए नीयत दिल में की जाए ज़बान से बोलना ज़रूरी नहीं. “मैं कल रोज़ा रखने की नीयत करता हूँ” : यह मानसिक संकल्प व्यक्ति के लिए श्रेष्ठ है कि वह फर्ज़ रोज़े की नीयत फज्र (उदय) से पहले कर ले।
हदीस के अनुसार : जो व्यक्ति फज्र (उदय) से पहले रोज़ा नीयत न करे वो ज़वाल (मध्यान्ह) से पहले तक करलें.

इस्लाम एक प्रकृतिक धर्म है इसलिए उसने रोज़े में भी मानव जाति की स्थिति का लिहाज़ किया है। अत: एक व्यक्ति पर रोज़ा उसी समय अनिवार्य होता है जब वह मुसलमान हो, बालिग़ हो, बुद्धि विवेक रखता हो, अर्थात् पागल और बेहोश न हो, उसे रोज़ा रखने का सामर्थ्य प्राप्त हो, तथा महिलाएं मासिक चक्र और निफ़ास के ख़ून से पवित्र हों।
इस प्रकार कुछ लोग ऐसे हैं जिन पर रोज़ा अनिवार्य नहीं या अनिवार्य तो है परन्तु उनसे उस स्थिति में रोज़े का मुतालबा नहीं.
ग़ैर मुस्लिम पर रोज़ा अनिवार्य नहीं और न ही उस से इसका मुतालबा है, यदि वह रोज़ा रखे तो उस से अस्वीकार भी न किया जाएगा। हाँ, उस से पहले वह ईमान लाने का मुकल्लफ़-जिम्मेदार है.
विदित है कि जब वह अपने पैदा करने वाले का ज्ञान ही नहीं रखता तो उसके लिए रोज़ा कैसे रख सकेगा? यदि कोई गै़र-मुस्लिम रोज़ा रखता है तो उसको रोज़ा रखने से मना नहीं किया जाएगा. सम्भव है कि इसी तरीक़े से उसे इस्लाम का ज्ञान प्राप्त हो जाए।

रोज़ानिषेध और सहूलियत संबंधी संविधान :
बालिग़ होने के बाद ही रोज़ा अनिवार्य होता है इसलिए बच्चों पर रोज़ा रखना फर्ज़ नही है. अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
तीन प्रकार के लोगों से क़लम उठा लिया गया है (अर्थात शरई क़ानून लागु नही होगें) :
बच्चे से यहां तक कि वह बालिग़ हो जाए,’सोने वाले से यहां तक कि वह जाग जाए, और पागल से यहां तक कि वह होश में आ जाये।
लेकिन उन्हें रोज़ा की आदत डालने के लिए सात आठ वर्ष से ही रोज़ा रखने पर उभारना चाहिए, बताना चाहिए, बेटा हो या बेटी। बारह साल की उम्र से बक़ायदा शुरू हो जाये.
महिलायें मासिक चक्र तथा निफ़ास (बच्चे की पैदाईश से 40 दिन) की स्थिति में हों उनके लिए रोज़ा रखना और नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं परन्तु रमज़ान के बाद छूटी हुई नमाज़े तो नही पढ़ेंगी, लेकिन छूटे हुए रोज़ों को अदाएगी ज़रूरी है।
हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में मासिक चक्र की स्थिति में होते तो हमें रोज़ा की अदाइगी का आदेश दिया जाता लेकिन नमाज़ की अदाएगी का आदेश नहीं दिया जाता था।
गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली महिलाओं को अपने ऊपर अथवा बच्चे पर किसी प्रकार का भय हो तो उनके लिए रोज़ा तोड़ने की अनुमति है परन्तु बाद में उन्हें छूटे हुए रोज़ों को अदा करना होगा।
जिसकी यात्रा का अभिप्राय वैध हो उसे भी इस्लाम ने रोज़ा तोड़ने की अनुमति दी है लेकिन रमज़ान के बाद उसे पूरा करना ज़रुरी होगा, हाँ यदि कोई यात्री रोज़ा रखना चाहता हो तो वह रोज़ा रख सकता है। परन्तु प्रश्न यह है कि यात्री के लिए रोज़ा रखना श्रेष्ठ है अथवा रोज़ा न रखना तो इस सिलसिले में संक्षिप्त बयान यह है कि,
यदि यात्री को रोज़ा रखने में कोई परेशानी न हो रही हो, अर्थात् उसके लिए रोज़ा रखना न रखना दोनों बराबर हो तो ऐसी स्थिति में रोज़ा रख लेना श्रेष्ठ होगा। और यदि उसे रोज़ा रखने में परेशानी हो रही हो तो उसके लिए रोज़ा न रखना ही श्रेष्ठ होगा।
ऐसा रोगी जो निरोग होने से निराश हो चुका हो और रोज़ा में सख़्त कठिनाई हो रही हो, उसी प्रकार वह बुढ़े पुरुष एवं बुढ़ी महिलाएं जिनको रोज़ा रखने में बुढ़ापे के कारण परेशानी होती हो ऐसे व्यक्तियों से रोज़ा तो माफ़ है, परन्तु उन पर अनिवार्य है कि उसके बदले प्रतिदिन किसी निर्धन को एक समय का भर पेट खाना खिलायें। या निस्फ़ (आधा) (अनुमानतः डेढ़ किलो) अनाज दे दें या उसकी क़ीमत की कोई दूसरी चीज़।
हाँ अगर किसी रोगी को निरोग होने की आशा हो लेकिन रोज़ा रखने में सख़्त कठिनाई हो रही हो तो वह रोज़ा न रखेगा लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि निरोग होने के बाद उसकी अदाएगी करे। जिस व्यक्ति को किसी कारणवश रमज़ान के रोज़ा की छूट दी गई हो यदि दिन के किसी भाग में कारण जाता रहे : जैसे यात्री अपनी यात्रा से लौट आए, या मासिक चक्र तथा निफ़ास वाली महिलायें पवित्रता प्राप्त कर लें, ग़ैर-मुस्लिम इस्लाम स्वीकार कर ले, बेहोश को होश में आ जाए और ना बालिग़ बच्चा बालिग़ हो जाए, ऐसे प्रत्येक लोगों के लिए अनिवार्य है कि दिन के शेष भाग में कुछ न खायें पियें और बाद में उस दिन के रोज़ा की अदाएगी करें।
सहरी :
इस्लाम का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह जीवन के सारे भागों में संतुलन का आदेश देता है, अत: इस्लाम ने एक निर्धारित समय से निर्धारित समय तक रोज़ा रखने का आदेश दिया उसके साथ सहरी खाने पर भी उभारा है।
रात के अन्तिम भाग में सुबह सादिक़ से निकट सहरी खाना मस्नून है। हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है :
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमायाः
“सहरी खाया करो क्योंकि सहरी खाने में बरकत है.”
एक दूसरे स्थान पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं :
“इस्लामी उपवास तथा अन्य धर्मों के उपवास में फर्क़ करने वाली चीज़ सहरी का खाना है”

सहरी का समय आधी रात से सुबह सादिक़ तक है परन्तु उस में देर करना श्रेष्ठ है। सहरी और नमाज़ के बीच इतनी अवधि होनी चाहिए जिस में आदमी पचास आयतें पढ़ सके। जैसा कि ज़ैद बिन साबित बयान करते हैं कि हमने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सेहरी की फ़िर नमाज़ के लिए खड़े हुए, किसी ने पूछाः सहरी और नमाज़ ए फर्ज में कितना फ़ासला था ?
उन्हों ने कहाः इतना कि जिसमें पचास आयतें पढ़ी जा सकें। यदि खाने की इच्छा न हो तो कम से कम पानी का एक घोंट भी पी लेना चाहिए।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कहते हैं :
“सहरी खानें में बरकत है इसलिए तुम उसे न छोड़ो चाहे तुम में से एक व्यक्ति पानी का एक घोंट ही क्यों न पी ले.” और इस लिए भी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते सहरी खाने वालों पर सलामती भेजते हैं.
अल्लाह के रसूल सल्ल. के मुताबिक :
”निःसंदेह अल्लाह और उसके फ़रिशते सहरी करने वालों पर सलामती भेजते हैं।” यदि कोई सहरी के समय नही जग सकता तो उसके लिए भी रोज़ा रखना आवश्यक है। क्योंकि सहरी खाना सुन्नत रोज़े फर्ज़ के लिए शर्त या अनिवार्यता नहीं।

इफ्तार :
सूर्य डूबते ही इफ्तार करना सुन्नत है. अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है :
लोग उस वक़्त तक अच्छाई में रहेंगे जब तक इफ़्तार में जल्दी करते रहेंगे।
खुजूर से इफ्तार करना श्रेष्ठ है यदि ताज़ा खुजूर न मिल सके तो सुखे खुजूर से वरना पानी से, अगर पानी भी न मिल सके तो किसी हलाल खाने से, और अगर कोई हलाल खाना भी न मिल सके तो दिल में इफ़्तार की नीयत कर ले यहाँ तक कि कोई खाना पालें।
खुजूर से इफ़्तार करने की हिकमत यह है कि इस के अन्दर मधुरता और मिठास होती है, और मीठी चीज़ नज़र को शक्ति प्रदान करती है जो रोज़ा के कारण कमज़ोर हो जाती है. यह भी बताया गया है कि मधुरता ईमान के अनुकूल होती है और दिल को नर्म बनाती है।
इफ़्तार करने से कुछ देर पहले ख़ूब प्रार्थनायें-दुआ करें, क्योंकि वो वक़्त दुआ की क़ुबूलियत का होता है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अक़वाल (प्रवचनों) में आता है :
तीन व्यक्तियों की प्रार्थनायें-दुआ रद्द नहीं होती हैं, रोज़ेदार की प्रार्थना यहाँ तक कि इफ़्तार कर ले, न्यायवान शासक और मज़लूम की प्रार्थना-दुआ. इसलिए इस शुभ अवसर को इफ़्तार के सामान की व्यवस्था और पारस्परिक बात चीत में नष्ट नहीं करना चाहिए बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा दुआ करने में व्यस्त रहना चाहिए।

 _इफ़्तार के समय की दुआ :_

अल्लाहुम्म ल,क सुमतु वबिक आमन्तु वइलयही तवक्कलतु वअला रिज़क़िक अफ़तरतु.
ऐ अल्लाह मैं ने तेरे ही वास्ते रोज़ा रखा, तुझ ही पर ईमान लाया, तुझ ही पर भरोसा किया, और तेरे ही दीये हूए रीज़्क से रोज़ा ईफतार करता हूँ।
ऐ अल्लाह मैंने तेरी आज्ञाकारी के लिए रोज़ा रखा और तेरी प्रदान की हुई रोज़ी से इफ़्तार किया।

इफ़्तार के बाद की दुआ :
ज़,ह,बज़्ज़,म,ओ वब्तल्लतिल ओरुक़ु व स,ब,तल अज़्रु इंशाअल्लाह.
प्यास बुझ गई, रगें तर हो गई और अल्लाह ने चाहा तो पुण्य भी साबित हो गया।
यदि किसी दूसरे के यहाँ इफ़्तार करें तो दुआ पढ़े : अफ़्तर,र इन्दकुम अस्साएमून व अ,क,ल तआमकुम अलअबरारो व सल्लत अलैकुमुल मलाईकह.
तुम्हारे पास रोज़ेदार इफ़्तार करें और तुम्हारा खाना नेक लोग खायें और फ़रिश्ते तुम्हारे ऊपर रहमत की दुआ करें। (चेतना विकास मिशन)

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