दुनिया में रेत खनन के बढ़ते व्यापार से समुद्र भी सुरक्षित नहीं हैं, जिन पर लगातार दबाव बढ़ रहा है। यहां तक कि संरक्षित क्षेत्रों पर भी इसका असर पड़ रहा है और इस वजह से समुद्री जीवन को बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को हो रहे नुकसान के बावजूद इस समस्या को अनदेखा किया जा रहा है। हर साल 800 करोड़ टन तक रेत समुद्रों से निकाली जा रही है, जो प्रतिदिन रेत से भरे जाने वाले दस लाख ट्रकों के बराबर है। यह जानकारी एक अध्ययन में सामने आई है।
रेत खनन के समुद्री जीवन पर बढ़ते प्रभावों को उजागर करते हुए एलिकांटे विवि, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी गेन्ट, जिनेवा विवि और मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है जिसके नतीजे जर्नल वन अर्थ में प्रकाशित हुए हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि रेत और बजरी उन संसाधनों में शामिल हैं जिनका सबसे ज्यादा अधिक दोहन हुआ है। 1970 से 2019 के बीच प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तीन गुना से भी ज्यादा हो गया है। इसका मुख्य कारण रेत और अन्य निर्माण सामग्री के खनन में होने वाली भारी वृद्धि है, जिन्हें एग्रीगेट्स के नाम से जाना जाता है। संसाधनों के दोहन में हो रही यह वृद्धि जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ प्रजातियों को भी नुकसान पहुंचा रही है साथ ही दुनिया में जल संकट को भी बढ़ावा दे रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का भी कहना है कि पानी के बाद रेत दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा उपयोग की जाने वाली वस्तु है। समुद्री रेत, निर्माण का एक मुख्य घटक है जिसके भण्डार बड़ी तेजी से कम हो रहे हैं।
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अध्ययन के अनुसार, एक तरह से रेत दुनिया भर में मानव विकास का आधार है। यह कंक्रीट, डामर, कांच और इलेक्ट्रॉनिक्स का एक प्रमुख घटक है। अपेक्षाकृत सस्ता होने के साथ-साथ इसका दोहन आसान है। गहरे समुद्र में खनन या महत्वपूर्ण खनिजों के विपरीत, समुद्रों में होते रेत खनन पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। यह मछली पकड़ने के बाद इंसानों द्वारा की जाने वाली दूसरी सबसे आम तटीय गतिविधि है और इसे अक्सर हल्के में लिया जाता है।
तटीय क्षेत्र कटाव के साथ समुद्री जीवों के आवास को भारी नुकसान
रेत खनन से न केवल तटीय क्षेत्र कटाव का सामना कर रहे हैं बल्कि इससे समुद्री जीवों के आवास को भी बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है। यह आक्रामक प्रजातियों के प्रसार में सहायक हो रहा है और इसकी वजह से मत्स्य पालन में भी कमी आ रही है। रेत खनन से पानी धुंधला हो जाता है और यह समुद्री घास और मूंगे को नष्ट कर देता है। इसकी वजह से समुद्री आवास खंडित हो जाते हैं। इसके कारण 500 से ज्यादा समुद्री प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इतना ही नहीं यह लहरों के पैटर्न में भी बदलाव की वजह बन रहा है। इसी तरह खनन, अन्य तरीकों से भी समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचा रहा है।
मानव के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी बेहद जरूरी है रेत
शोधकर्ताओं का कहना है कि रेत खनन से समुद्री जीवन और विविधता को नुकसान पहुंच रहा है। रेत न केवल इंसानों बल्कि प्रकृति के लिए भी बेहद आवश्यक है। ऐसे में इसे संतुलित किए जाने की आवश्यकता है।रेत प्रकृति और मानव विकास दोनों के लिए आवश्यक है। यह न केवल निर्माण बल्कि प्राकृतिक दुनिया को भी आकार देती है। इसका दोहन एक वैश्विक चुनौती बन चुका है। मेटाकपलिंग फ्रेमवर्क जैसे उपकरण जटिलता को सुलझाने के लिए आवश्यक हैं। यह न केवल रेत खनन के स्थानों बल्कि परिवहन मार्गों और जिन स्थानों में निर्माण के लिए रेत का उपयोग किया जा रहा है वहां भी इनके छिपे प्रभावों को उजागर करने में मदद करते हैं। मोटेतौर मेटाकपलिंग अध्ययन करने का एक ऐसा नया तरीका है जो बताता है कि किस तरह से मनुष्य और प्रकृति परस्पर क्रिया करते हैं।
अगले 38 वर्षों में रेत की मांग 44 फीसदी बढ़ जाएगी
शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर अगले 38 वर्षों में रेत की मांग करीब 44 फीसदी बढ़ जाएगी। 2020 में रेत की मांग 320 करोड़ मीट्रिक टन प्रति वर्ष थी वह 2060 तक बढ़कर 460 करोड़ मीट्रिक टन प्रति वर्ष पर पहुंच जाएगी। यानी इन 40 वर्षों में इसमें करीब 140 करोड़ मीट्रिक टन की बढ़ोतरी होने की सम्भावना है। शोधकर्ताओं ने इस बात को भी स्वीकार किया है कि रेत का कुल कितना प्राकृतिक भंडार मौजूद है इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि जिस तेजी से इसकी मांग बढ़ रही है, आने वाले वक्त में इसकी भारी किल्लत हो जाएगी।
दुनिया भर में हर साल 5,000 करोड़ टन रेत और बजरी निकाली जा रही
इसके अलावा दुनिया भर में हर साल करीब 5,000 करोड़ टन रेत और बजरी नदियों, झीलों आदि से निकाली जा रही है। यह दुनिया में सबसे ज्यादा खनन की जाने वाली सामग्री है। पिछले कुछ वर्षों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बढ़ते शहरीकरण की वजह से रेत, बजरी और छोटे पत्थरों की मांग में तेजी से वृद्धि हुई है। वहीं यदि सीमेंट की मांग को देखें तो पिछले 20 वर्षों के दौरान दुनिया भर में इसकी मांग में 60 फीसदी की वृद्धि हुई है। सीमेंट की मांग सीधे तौर पर रेत और बजरी की बढ़ती खपत से जुड़ी है।
2060 तक भारत की मांग में 294.4 फीसदी बढ़ोतरी संभव
इसी विषय से जुड़े हुए एक अन्य शोध में लीडेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि भारत में भी तेजी के साथ बढ़ते शहरीकरण के कारण अलगे 38 वर्षों में रेत की मांग में 294.4 फीसदी का इजाफा हो सकता है। इसी तरह 2020 से 2060 के बीच अमेरिका में रेत की कुल मांग 568 करोड़ टन रहने की सम्भावना है, उसके विपरीत भारत में यह करीब 2,590 करोड़ टन पर पहुंच जाएगी। वहीं चीन में इसके सबसे ज्यादा 4,570 करोड़ टन रहने की सम्भावना है। पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन में इसकी मांग में करीब 438 फीसदी की जबरदस्त वृद्धि दर्ज की गई है। पिछड़े और कम आय वाले देशों में 2060 तक रेत की मांग में 300 फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है। पूर्वी अफ्रीका में यह मांग सबसे ज्यादा 543.6 फीसदी रहने की सम्भावना है। इसके बाद पश्चिम अफ्रीका में 488.5 फीसदी की वृद्धि की सम्भावना है।
मानव प्रकृति के बीच के संतुलन को बिगाड़ रहा है खनन
मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता जियांगुओ लियू का इस बारे में कहना है कि दुनिया में शहरीकरण और बढ़ते निर्माण के साथ रेत की मांग लगातार बढ़ रही है। इसे मांग को पूरा करने के लिए रेत खनन में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका सीधा असर पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। आज जिस तेजी से खनन किया जा रहा है वह मानव प्रकृति के बीच के संतुलन को बिगाड़ रहा है। ऐसे में मानव विकास की अंधी दौड़ की कीमत प्रकृति को चुकानी पड़ रही है।ऐसा नहीं है कि धरती पर रेत नहीं है सहारा, थार जैसे रेगिस्तानों में रेत के विशाल भण्डार मौजूद हैं, लेकिन समस्या यह है कि उस रेत का अधिकांश भाग औद्योगिक उपयोग के लिए अनुपयुक्त है। ऐसे में निर्माण सम्बन्धी जरूरतों के लिए सबसे उपयोगी रेत समुद्र और नदियों के तल से ली जाती है।
रेत खनन को समुद्री संरक्षण, जलवायु योजनाओं में शामिल करने की जरूरत
शोध के निष्कर्ष में कहा गया है कि चूंकि रेत खनन कटाव, जलवायु अनुकूलन और जैव विविधता को प्रभावित करता है ऐसे में इसे समुद्री संरक्षण, जलवायु योजनाओं और संसाधन प्रबंधन जैसी पर्यावरण संबंधी नीतियों में शामिल किया जाना चाहिए। इससे पहले कि समस्या और बदतर हो जाए इससे उबरने के लिए बेहतर समझ, सख्त नियमों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने के प्रयासों पर जोर दिए जाने की आवश्यकता है।