देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस आज बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही है। अनुशासन की धज्जियां उड़ाते नेता, राज्यों में गुटबाजी, आपसी सिर-फुटव्वल, बढ़ता असंतोष…पार्टी की अनचाही पहचान बनती जा रही है। इस चुनौती से निपटना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। गुरुवार को पार्टी हाई कमान ने महाराष्ट्र में क्रॉस वोटिंग करने वाले 11 विधायकों को कारण बताओं नोटिस जारी किया। दूसरी तरफ, वरिष्ठ नेता और केरल से सांसद शशि थरूर ने ट्वीट कर ऐलान करना पड़ा कि माइक्रो ब्लॉगिंग साइट पर लिखा हर शब्द उनकी निजी राय है, पार्टी से उसका कोई लेना-देना नहीं।
महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री ही फ्लोर टेस्ट से नदारद रहे!
सबसे पहले बात महाराष्ट्र कांग्रेस की। पिछले महीने तक कांग्रेस यहां की महाविकास अघाड़ी सरकार में भागीदार थी लेकिन बेमेल गठबंधन की ये सरकार अब अतीत हो चुकी है। कहने को तो उद्धव ठाकरे सरकार शिवसेना विधायकों की बगावत की वजह से गिरी लेकिन उसकी बुनियाद तो पिछले महीने राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में ही पड़ गई थी। रही-सही कसर 20 जून को हुए विधानपरिषद चुनाव ने पूरी कर दी। कांग्रेस विधायकों की क्रॉस वोटिंग से पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार और दलित नेता चंद्रकांत हंडोरे को हार का सामना करना पड़ा। पार्टी की किरकिरी हुई। इतना ही नहीं, शिवसेना के बागी नेता और महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे जब 4 जुलाई को फ्लोर टेस्ट से गुजर रहे थे तब भी कांग्रेस के करीब 10 विधायक सदन से नरारद थे। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का नाम भी शामिल है।
विधायकों की इस खुल्लमखुल्ला अनुशासनहीनता पर महाराष्ट्र कांग्रेस में इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग तेज होने लगी। पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने एमएलसी चुनाव में क्रॉसवोटिंग करने वाले विधायकों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। आखिरकार कांग्रेस आलाकमान ने सख्त रुख अपनाते हुए प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले को गुरुवार को दिल्ली तलब किया और अनुशासनहीनता के लिए 11 विधायकों के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी किया।
प्लेटफॉर्म सार्वजनिक मगर राय निजी… शशि थरूर का मामला
तिरुवनंतपुरम से लोकसभा सांसद और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने मां काली पर टीएमसी एमपी महुआ मोइत्रा के विवादित बयान को समर्थन देकर बैठे-बैठे विवाद को न्योता दे दिया। खास बात ये है कि मोइत्रा के बयान से खुद उनकी ही पार्टी टीएमसी किनारा कर चुकी है लेकिन थरूर उनके समर्थन में खड़े हो गए। महाराष्ट्र से कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने बयान से दूरी बनाने में देरी नहीं कही। उन्होंने कहा कि शशि थरूर का बयान उनकी निजी राय है, पार्टी का उससे कोई लेना-देना नहीं है। आखिरकार, थरूर को भी ट्वीट कर सफाई देनी पड़ी कि ट्विटर पर वह जो कुछ भी लिखते हैं वो उनकी निजी राय है, उसे कांग्रेस से न जोड़ा जाए। ऐसे में सवाल उठता है कि इतने वरिष्ठ नेता को सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर आखिर ऐसी कोई बात करनी ही क्यों चाहिए जिससे पार्टी को असहज होना पड़े। क्या थरूर जैसे कद के नेता को ये नहीं पता कि सार्वजनिक तौर पर पार्टी लाइन से इतर टिप्पणियां अनुशासनहीनता के ही दायरे में आती हैं, चाहे कितना भी निजी राय बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की जाए।
कर्नाटक में सिद्धारमैया vs डीके शिवकुमार
कांग्रेस का दुर्भाग्य ये है कि जिन राज्यों में उसका संगठन मजबूत है, जहां वह सत्ता में है या फिर हाल-फिलहाल तक जिस राज्य में उसकी सरकारें थीं, वहां नेताओं की गुटबाजी और आपसी सिर-फुटव्वल रुकने का नाम नहीं ले रही। कर्नाटक को ही देख लीजिए। अगले साल वहां विधानसभा चुनाव होने हैं लेकिन पार्टी सिद्धारमैया बनाम डीके शिवकुमार खेमे में बंटी है। कांग्रेस आलाकमान ने दो महीने पहले ही दोनों नेताओं के बीच सुलह कराया था लेकिन जमीन पर जो कुछ दिख रहा है, वह अलग ही कहानी बयां कर रहा। 3 अगस्त को सिद्धारमैया का 75वां जन्मदिन है। सिद्धा समर्थक उस दिन ‘सिद्धारमैया उत्सव’ मनाएंगे। दावा है कि 5 लाख की भीड़ इकट्ठी होगी। कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार इसे व्यक्ति पूजा की संस्कृति बता रहे हैं। डीके ने सिद्धा पर निशाना साधते हुए कहा है कि कांग्रेस जन नेतृत्व में यकीन करती है, न कि व्यक्ति विशेष की पूजा में। दिलचस्प बात ये है कि सिद्धारमैया के ‘शक्तिप्रदर्शन’ के जवाब में डीके 15 अगस्त से तिरंगा यात्रा निकालने जा रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि इसमें 10 लाख से ज्यादा लोग जुटेंगे। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का ये अंतर्कलह पार्टी पर भारी पड़ सकता है।
राजस्थान में रह-रहकर बाहर निकल ही आता है पायलट vs गहलोत का जिन्न
राजस्थान में तो कांग्रेस लंबे वक्त से जबरदस्त गुटबाजी से गुजर रही है। मुख्यमंत्री पद की आकांक्षा रखने वाले सचिन पायलट तो एक बार ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह पर निकल भी चुके थे लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने किसी तरह राजस्थान में मध्य प्रदेश की कहानी दोहराए जाने से रोक लिया। एमपी में इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई थी। कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के हस्तक्षेप से राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सुलह तो हो गई लेकिन गुटबाजी का जिन्न रह-रहकर बाहर निकल ही आता है। हाल ही में गहलोत ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को ‘निकम्मा’ कहा। इससे उनकी कभी सचिन पायलट के लिए ‘नकारा, निकम्मा’ कहे जाने की याद ताजा हो गई है। अब गहलोत सफाई दे रहे कि उम्रदराज हूं, मैं तो प्यार की वजह से निकम्मा कहता हूं। राजस्थान में भी अगले महीने विधानसभा चुनाव है। अब चुनाव से पहले गहलोत और पायलट में कुर्सी को लेकर भले ही जंग न हो लेकिन पार्टी के गुटबाजी त्यागकर एकजुट होकर लड़ने पर अभी से संदेह के बादल साफ दिख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में भी गुटबाजी
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव का रिश्ता बहुत हद तक वैसा ही है जैसा गहलोत और पायलट का है। सिंहदेव की नजर मुख्यमंत्री पद पर है। हालांकि, कांग्रेस आलाकमान दोनों नेताओं में सुलह कराने में कामयाब दिख रहा है। फिर भी जब-तब दोनों के बीच अनबन की खबरें आती ही रहती हैं।
पंजाब में अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार चुकी है कांग्रेस
अंतर्कलह की वजह से ही कांग्रेस ने न सिर्फ पंजाब की सत्ता गंवाई बल्कि शर्मनाक शिकस्त भी झेलनी पड़ी। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू ने अपनी ही पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन को बेआबरू करते हुए मुख्यमंत्री पद से हटा दिया। चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाया लेकिन सिद्धू ने चन्नी के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया। उसी बीच चुनाव के ऐलान हो गए। कांग्रेस नेताओं की आपसी सिर फुटव्वल की वजह से न सिर्फ पार्टी को शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी बल्कि सिद्धू, चन्नी समेत तमाम दिग्गजों को अपनी-अपनी सीटों पर मुंह की खानी पड़ी। राज्य में पार्टी ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। कर्नाटक और राजस्थान में भी अगर पार्टी नहीं चेती तो पंजाब की तरह शर्मिंदगी झेलनी पड़ सकती है। चुनाव बाद पंजाब कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार रहे सुनील जाखड़ बीजेपी का दामन थाम चुके हैं। मनीष तिवारी भी ‘अग्निपथ’ स्कीम को लेकर सरेआम पार्टी लाइन से अलग बीजेपी की भाषा बोलते दिख रहे हैं।
बड़े नेताओं के बागी सुर
चुनाव दर चुनाव कांग्रेस के लचर प्रदर्शन को लेकर पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के प्रति असंतोष बढ़ रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली और संगठन चुनाव को लेकर सार्वजनिक तौर पर आलोचना कर चुके हैं। गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा जैसे बड़े नेताओं के इस समूह को G-23 नाम मिला है। ये उन 23 नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को खत लिखकर शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली और संगठन चुनाव में देरी की आलोचना कर चुके हैं। जी-23 में शामिल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल तो कांग्रेस से इस्तीफा देकर सपा के समर्थन से राज्यसभा पहुंच चुके हैं। 2 साल बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। उससे पहले एमपी, राजस्थान, कर्नाटक जैसे कई अहम राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। अगर कांग्रेस समय रहते अंतर्कलह और अनुशासनहीनता को दूर नहीं करती तो उसके उम्मीदों को पलीता लग सकता है।