अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

कश्मीर समस्या के पीछे का सच:भाग 1

Share

*अजय असुर

*प्रस्तावना*

फूट डालो शासन करो की नीति के तहत 15 अगस्त 1947 को भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया गया और अंग्रेज अपने चहेतों को सत्ता सौंपकर चले गये। इस घटना को आजादी कहा जाता है। और इस घटना को अंजाम देने वाले देशभक्त कहे जाते हैं। जिनके ताप से डरकर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा वे आज भी सरकारी दस्तावेजों में आतंकवादी माने जाते हैं।

15 अगस्त 1947 से पहले दो तरह के भारत अस्तित्व में थे। पहला, ब्रिटिश फ्रेंच और पुर्तगाली साम्राज्यवादियों के अधीन भारत, जिस पर इन विदेशी ताक़तों का प्रत्यक्ष शासन चलता था। वहीं, जो दूसरा भारत था, वो राजे-रजवाड़ों और स्थानीय शासकों के अधीन आने वाला भारत था। जिन पर साम्राज्यवादियों का अप्रत्यक्ष शासन चलता था। उस वक़्त भारत में ऐसी तकरीबन 565 रियासतें थीं। 

इंडियन इंडिपेंडेंस ऐक्‍ट, 1947 के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने भारत, पाकिस्‍तान और 565 रियासतों के रूप में आजादी दी थी। देश आज़ाद हुआ, उस वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 लागू किया था। जिसके तहत लैप्स ऑफ पैरामाउंसी विकल्प दिया गया था। जिसके जरिए राजा अपनी रियासत को भारत या पाकिस्तान से जोड़ सकते थे, जंहा की आबादी 50% से ऊपर मुस्लिम हो तो पाकिस्तान में या 50% से ज्यादा की हिन्दू आबादी हो तो भारत में। या फिर ये रियासतें यूं ही अपना वजूद बनाए रखने के लिये अपना स्वतंत्र राष्ट्र बना सकती थीं। उस दौर में भारतीय रियासतों के विलय का कार्य चल रहा था और भारत में विलय को लेकर तीन रियासतें जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद ऐसी थी जो भारत में विलय नहीं चाहती थी। 

भारत ने जूनागढ़ में जनमत संग्रह करवाया, जिस वजह से वहां की जनता ने पाकिस्तान के बजाये भारत के साथ विलय करने का फैसला लिया। जूनागढ़ के निजाम पाकिस्तान जाना चाहते थे और चले भी गये पर जूनागढ़ में 80% हिन्दू आबादी थी, उसने विद्रोह कर दिया निजाम के खिलाफ। बाद में भारत ने 20 फरवरी 1948 को ये जनमत संग्रह कराया। 2,01,457 रजिस्टर्ड मतदाताओं में से 1,90,870 लोगों ने अपना वोट दिया। जिसमें पाकिस्तान जाने के पक्ष में सिर्फ 91 वोट मिले थे। इस तरह जूनागढ़ भारत का अहम हिस्सा बना। अब बात करते हैं हैदराबाद की। बताया जाता है कि हैदराबाद स्वन्त्र रहना चाहता था भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के लैप्स ऑफ पैरामाउंसी विकल्प के तहत। ये बात नेहरू और सरदार पटेल को नागवार गुजरी फिर भारत की सेना ने 14 सितम्बर 1948 को हैदराबाद पर हमला बोल दिया और 3 दिन की कार्रवाई के बाद 17 सिंतबर, 1948 को हैदराबाद की जनता पर जबरन कब्जा कर भारत में शामिल कर लिया। जबकि हकीकत यह है कि हैदराबाद के निजाम ने भारत सरकार की सेना को खुद बुलवाया था। दरअसल आन्ध्र प्रदेश कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसानों ने 1946 से ही विद्रोह कर दिया। वे जोतने वाले को जमीन के सिद्धान्त पर अमल करते हुए सामंतों से जमीन छीनना शुरू कर दिये थे। 10 जिलों के 3200 गांवों में ग्राम कमेटियां बनाकर सारी जमीन का बन्दोबस्त ग्रामकमेटियों के हवाले कर दिया। तेलंगाना किसानों के सशस्त्र विद्रोह की आंच हैदराबाद पहुँच चुकी थी, चूंकि यह जनविद्रोह था और हैदराबाद की बहुसंख्यक जनता इस विद्रोह में शामिल हो गयी थी। हैदराबाद के निजाम ने अपनी सेना, पुलिस, जेल, अदालत, के बल पर इस किसान विद्रोह को कुचलने की कोशिश किया। निजाम ने अपने रजाकारों (स्वयंसेवकों) को भी हथियार बन्द कर किसानों के खिलाफ मैदान में उतार दिया। मगर विद्रोह की आग को दबाना निजाम के वश में नहीं रह गया। तब हैदराबाद के निजाम ने भारत सरकार से भारत में विलय की स्वतः पेशकश की और भारतीय सेना के साथ-साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद की सेना भी हैदराबाद में उतारी गयी ताकि हैदराबाद रियासत में रूस जैसी कोई क्रांति ना हो सके।  इस जनविद्रोह को कुचलते हुए भारत, अमेरिका और हैदराबाद की सेनाओं ने जनता का कत्लेआम किया। तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष को कोई इतिहासकार कुछ भी बताये पर यही सत्य है। यदि ये झूठ है तो कोई बताये कि निजाम की सेना ने तीन दिन के भीतर लिखित में आत्मसमर्पण कर दिया तो 1954 तक भारतीय सेना के साथ अमेरिकी सेना वहां हैदराबाद में क्या कर रही थी? जब तीन दिन में ही हैदराबाद रियासत भारत के कब्जे में आ गया तो 1954 तक भारतीय सेना वहां क्या कर रही थी?

बात यहां कश्मीर की है तो वापस कश्मीर पर आता हूँ फिर कभी हैदराबाद पर विस्तार से बात करेंगे। जम्मूकश्मीर के विलय को समझने से पहले उसके इतिहास को भी समझना पड़ेगा।

कश्मीर घाटी में पहली बार मुगल शासक जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ घूमने आयी थी तो कश्मीर कश्मीर की सुन्दरता देखकर कहा कि “गर फिरदौस बर रूये जमी अस्त/ हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त” (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं)। पर भारत और पाकिस्तान के शासक वर्ग के रवैये के कारण धरती के इस स्वर्ग में रहने वालों की स्थिति नारकीय हो गयी है। “कश्मीर वह खूबसूरत स्त्री है जिसके साथ भारत और पाकिस्तान ने बारी-बारी से कई बार बलात्कार किया और लगातार कर रहे हैं।”

एक राष्ट्रभक्त होने के नाते सभी चाहते हैं कि उनके देश की सीमा का विस्तार हो पर इसका मतलब ये नहीं कि अपने देश की सीमा बढ़ाने के लिये जबरदस्ती किसी भी क्षेत्र के लोगों की राष्ट्रीयताओं को कुचलकर, उस क्षेत्र के अवाम की भावनाओं का दमन कर अपने देश की सीमा विस्तार को जायज ठहरायें। बात उस कश्मीर की है, उसके अवाम की है। अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण न पाकिस्तान के मुहम्मद अली जिन्ना, न भारत के पण्डित जवाहरलाल नेहरू, न तब के हमारे आका अंग्रेज, न अमरीका समेत यूरोप के अन्य साम्राज्यवादी देश जम्मूकश्मीर के आवाम की भावना का ख्याल रखा कि इस रियासत की जनता क्या चाहती है? 

जम्मूकश्मीर के महाराजा हरि सिंह की याचना की अनदेखी की जा सकती थी पर वहां की आवाम का क्या? एकबार उनके बारे में भी तो सोचना चाहिये। जम्मूकश्मीर लाचारी में भारत के पास आया था और यह मौका गंवाने को भारत तैयार नहीं था इसलिए उनकी लाचारी का फायदा उठाकर उनके साथ विलय की संधि में ऐसी कुछ बातें भी स्वीकार की गईं जिनके कारण दूसरी रियासतों की तुलना में कश्मीर की विशेष राजनीतिक स्थिति बन गई। पण्डित जवाहरलाल को अंदाजा था कि यह विशेष स्थिति आगे कुछ विशेष परेशानी पैदा कर सकती है, इसलिए नेहरू ने अपने खास मित्र शेख अब्दुल्ला तथा उनके दूसरे नुमाइंदों को संविधान सभा में सदस्य के रूप में घुसेड़कर देश की मुख्य धारा से जोड़ा गया और जिस संविधान सभा ने भारत का संविधान तैयार किया था, रियासतों के विलय को कानूनी जामा पहनाया था, उसे ही कश्मीर के वैधानिक विलय का माध्यम भी बनाया दिया गया अनुच्छेद 370 जोड़कर। अनुच्छेद 370 कश्मीरियों ने नहीं, बल्कि भारत की संविधान सभा ने बनाई व पारित की। ये सब इतिहास के वे पन्ने हैं जिनका हवा में नारेबाजी द्वारा और भक्त की तरह नहीं, बल्कि एक शोध छात्र की तरह हर एक दृष्टिकोण से सभी तथ्यों को गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए।

1948 से अब तक कश्मीर में हालात कभी भी बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। आजादी के बाद कश्मीर ने भारत और धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में न मिलने का फैसला किया था। तब से लेकर आज भी कश्मीरी लोग (सभी जाति और धर्म के लोग कश्मीरी पण्डित और मुसलमान भी) अपनी स्वायत्ता की मांग के लिये प्रदर्शन कर रहे हैं। क्योंकि कश्मीर में जनता से रायशुमारी कराने के वायदे से भारत के मुकरने और उसके जोर-जबर्दस्ती और गैर-लोकतांत्रिक आचरण की वजह से कश्मीर समस्या लगातार उलझती चली गयी जिसका नतीजा कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी में लगातार बढ़ते अलगाव के रूप में सामने आया। कश्मीरी मुस्लिम आबादी के बीच भारत की राज्यसत्ता से बढ़ते अलगाव के बावजूद 1980 के दशक से पहले अल्पसंख्यक कश्मीरी पण्डित आबादी के ख़िलाफ, पूर्वाग्रही भले ही हों, नफरत और हिंसा जैसे हालात नहीं थे। ऐसे हालात पैदा करने में 1980 के दशक में घटी कुछ अहम घटनाओं की खास भूमिका थी। खास बात यह है कि भाजपा ज्यों-ज्यों मजबूत होती है त्यों-त्यों कश्मीरी पंडितों में अपनी पैठ बढ़ाती है, उनके भीतर नफरत के बीज भरती है, वे अपने ही पड़ोसी मुसलमानों से नफ़रत करने लगते हैं। ज्यों-ज्यों नफरत बढ़ती है त्यों-त्यों कश्मीर समस्या बढ़ती जाती है

कश्मीर के एक सूफी संत की कुछ पंक्तियां हैं, जो इस समय बुरी तरह से छले जाने के भाव से पीड़ित कश्मीर की वादियों में गूंज रही होगी। “….मुझे अभी कितना चलना है इसकी कोई हद नहीं है… मैं अपने चले हुए रास्ते के निशान मिटाता जाऊंगा, ताकि दूरी का अहसास ही खत्म हो जाए… मुझे पता है मेरे आंसू, मेरी आह, मेरी वेदना किसी काम नहीं आएगी।… चलो हम जानबूझकर नाकाम हो जाते है, मैं शाम बनकर सो जाऊं और तुम सुबह होकर खो जाओ।…”

*शेष अगले भाग में…*

*अजय असुर*

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें