चौधरी यतेंद्र सिंह
(वरिष्ठ समाज सेवी)
इस हक़ीक़त को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि मुसलमानों के एक प्रभावशाली भाग द्वारा दो-क़ौमी नज़रिए की बात उठाने से बहुत पहले हिंदू राष्ट्र्वादियों ने इस सिद्धांत की स्थापना कर दी थी। मुस्लिम लीग ने तो यह नज़रिया दरअसल हिंदू राष्ट्र्वादियों से उधार लिया। उन्नीसवीं सदी के अंत में बंगाल के उच्च-जातीय हिंदू राष्ट्र्वादियों ने यह विचार प्रस्तुत किया था। अरविंद घोष के नाना राजनारायण बसु ( 1826-1899) और उनके निकट सहयोगी नवगोपाल मित्र ( 1840-1894) हिंदू राष्ट्रवाद और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के जन्मदाता माने जाने जाएँगे। राजनारायण बसु ने एक सोसायटी बनाई थी,जो स्थानीय प्रबुद्ध हिंदू उच्च जातीय वर्गों में हिंदू उच्च्ता/वरीयता का प्रचार करती थी। हैरानी की बात यह है कि ग़दर पार्टी के मशहूर नेता लाला हरदयाल ( 1884-1938) ने भी मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग से देश की माँग से बहुत पहले सन 1925 में न केवल एक अलग हिंदू राष्ट्र की बात कही थी, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के हिंदूकरण की सलाह भी दे डाली थी।
युवा पीढ़ी, जो पिछले दस साल में जवान हुई है, हिंदूत्व के झंडाबरदारों ने उसके दिमाग़ में उसके मन मस्तिष्क में यह विचार कूट कूट कर भर दिया है कि बँटवारे के लिए मुसलमान और विशेषकर जिन्ना ही मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है जबकि हक़ीक़त यह है कि जिन्ना (1940) से बहुत पहले इसकी नींव रख दी गई थी ।
देश बँटवारे के विषय के अलावा हिन्दुत्ववादी जमात ने अपने पिट्ठू मीडिया और प्रचुर संसाधनों के बल पर युवाओं और मिडिल क्लास के मन में यह बात बिठा दी गई है कि आज़ादी के आंदोलन में मुस्लिम समाज का कोई योगदान नहीं है और सारी मुस्लिम जमात केवल और केवल जिन्ना की नीतियों और विचारों की समर्थक है। यह बिडंबना है कि आज की पीढ़ी इतिहास के पन्ने पलटना नहीं चाहती, बल्कि ऐसे जदबुद्धि लोगों पर विश्वास कर लेती है जिसका पढ़ने लिखने, इतिहास या आज़ादी के आंदोलन से दूर दूर का रिश्ता नहीं रहा है। और शायद इस दुष्प्रचार का यह नतीजा है कि यह पीढ़ी मुसलमानों को अपना दुश्मन समझने लगी है।
तमाम दस्तावेज और तथ्यों के बावजूद हिंदूत्ववादी जमात इसे स्वीकार नहीं करती कि मुस्लिम लीग की तरह हिंदू-राष्ट्रवादी, जिसमें RSS व हिंदू महासभा के जन्मदाता भी दो राष्ट्रों की चाहत रखते थे और “इस्लामी राष्ट्र” के समानांतर ही एक हिंदू राष्ट्र चाहते थे। सावरकर और गोलवलकर का सारा साहित्य हिंदू राष्ट्र की कल्पना पर ही टिका है। मुसलमानों में ऐसा बहुत बड़ा तबका है जो बँटवारे के ख़िलाफ़ था और जिसने बँटवारे के विरोध स्वरूप अपनी क़ुर्बानी दी है।
आज देश में जितने भी मुसलमान हैं वे सब उन मुसलमानों के वंशज हैं जिनके पूर्वज इस देश की धरती से प्यार करते थे और जो हिंदुस्तान को अपना वतन समझते थे। जिन्होंने पाकिस्तान के स्थान पर हिंदुस्तान में रहना अपना सौभाग्य समझा । इसके अलावा यहाँ इसका उल्लेख करना समीचीन होगा कि जो मुसलमान जिन्ना को अपना ख़ुदा या अपना सब कुछ मानते थे, जिसमें ज़्यादातर अमीर तबका नवाब,जागीरदार था, वे सब पाकिस्तान चले गए। यहाँ केवल वे लोग रह गए थे जो ज़्यादातर गरीब तबके से थे और जो छोटा मोटा काम करके अपना गुज़ारा करते थे और आज भी करते हैं।
जो मुसलमान देश बँटवारे के ख़िलाफ़ थे उनमें सबसे पहले अल्लाह बक्श का नाम आता है। अल्लाह बक्श का देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक योगदान यह है कि उन्होंने भारत के मुसलमानों को दो-क़ौमी नज़रिए के आकर्षण से बाहर निकालने के लिए संगठित किया और ज़मीनी स्तर पर मुस्लिम लीग का विरोध किया। इसी कड़ी में उन्होंने “आज़ाद मुस्लिम कांफ्रेंस” का गठन किया। इस संगठन ने पाकिस्तान की माँग के ख़िलाफ़ पूरे हिंदुस्तान में आम मुसलमानों को, ख़ास तौर पर पिछड़े मुसलमानों को लामबंद किया। इतिहास गवाह है कि विभाजन विरोधी मुसलमानों ने इस लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिंसा लिया और अभूतपूर्व कुरबानियाँ दीं। विभिन्न धार्मिक आस्थाएँ रखने वाले भारतीयों को संबोधित करते हुए अल्लाह बक्श ने कहा:
“हमारी धार्मिक आस्थाएँ चाहे कुछ भी हों मगर हमें अपने देश में पूरे तौर पर मेल-जोल के माहौल में रहना चाहिए। हमारे आपसी संबंध ऐसे होने चाहिए जैसे कि एक संयुक्त परिवार में अलग-अलग आस्था रखने वाले भाई और दूसरे लोग अपने विश्वासों को बिना रोक-टोक जी सकें, और यह अंतर उनकी साझा संपत्ति के इस्तेमाल में कोई आधा उत्पन्न न करे।“
उन्होंने सदैव जिन्ना की ख़िलाफ़त की । नतीजन, भाड़े के हत्यारों ने 14 मई 1943 को उनकी हत्या कर दी।
अल्लाह बक्श के अलावा जिन देशप्रेमी मुसलमानों ने बँटवारे का विरोध किया उनमें प्रमुख थे:
- शिबली नोमानी ( 1857-1914)- शिबली एक सच्चे देशप्रेमी थे, जो साझा राष्ट्रवाद के हामी थे। उनका मानना था कि युवाओं में देशप्रेम की भावना जगाने का महत्वपूर्ण साधन शिक्षा है। इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने आज़मगढ़ में नेशनल स्कूल की स्थापना की। इसके अलावा उन्होंने दारुल मुसन्निफीन (लेखकों का घर) की स्थापना की, जहां वे रहकर शोध और लेखन करते थे। यह जगह आज़ादी के आंदोलन में कांग्रेसी नेताओं को पनाह देने का भी काम करती थी। खुद गांधी जी एक बार यहाँ ठहरे थे।वे मानते थे कि मुस्लिम लीग कभी भी आम मुसलमान की मदद नहीं कर सकती बल्कि यह नवाबों व जागीरदारों मुसलमानों के एक ऐसे वर्ग का संगठन है जो धन और ताक़त की पूजा करता है और जो सेठों और धन्नासेठों का पैरोकार है।
- हसरत मोहानी (1875-1951) मौलाना हसरत मोहानी इस्लाम धर्म के ऐसे विद्वान तथा प्रसिद्ध साहित्यकार और शायर थे जिन्होंने अंग्रेज शासन के विरोध में धार दी। आंदोलन को तेज किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की निंदा करते हुए उन्होंने लिखा :
“मेरा विश्वास ऐसी योजना में है, जो साम्राज्यवाद को ध्वस्त करने के लिए हो । मेरा यह एजेंडा सारी ज़िंदगी रहेगा। मैं ऐसी किसी पार्टी में शामिल हो जाऊँगा,जो साम्राज्यवाद विरोधी कार्यक्रम के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो।“ इसके साथ ही वे कांग्रेस के साथ 3.मुख़्तार अहमद अंसारी ( 1880-1936)
4.शौक़तुल्लाह
5.खान अब्दुल गफ़ार खान (1890-1988 ) जिन्हें फ़्रंटियर गांधी भी कहा जाता है
6.सैयद अब्दुल्ला बरेलवी ( 1891-1949 ) - अब्दुल मजीद ख़्वाजा ( 1885-1962 ) के अलावा ऐसे अनेक देशप्रेमी मुसलमान हैं जो देश के लिए शहीद हुए।
आज़ादी आंदोलन की जब भी बात होगी तो अशफाकुल्लाह खान,रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशनसिंह सरीखे क्रांतिकारी की ज़िक्र के बिना अधूरी होगी। ये लोग “काकोरी के शहीद” के नाम से जाने जाते हैं, उनके विचार और गतिविधियाँ देश की आज़ादी के लिए साम्राज्यवाद विरोध तथा हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक बन गए । एक शेर में उन्होंने हिंदू मुसलमान दोनों को मुख़ातिब करते हुए कहा कि वे अपने अनावश्यक़ मतभेद भुला दें :
“ये झगड़े और बखेड़े मिटाकर आपस में मिल जाओ,
अबस ‘तफ़रीक’ है तुम में यह हिंदू और मुसलमां की।“
अबस – अकारण, तफ़रीक- भेदभाव
मुसलमान देशप्रेमियों के अलावा अनेक ऐसे संगठन हैं जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए
क़ुर्बानी दी जिसमें प्रमुख हैं: - ज़मीयत उलमा- ए- हिंद
- मोमिन कांफ्रेंस
- मजलिसे- अहरारे -इस्लाम
- आल पार्टी शिया कांफ्रेंस
- अहले- हदीस
- अंजमने-वतन (बलूचिस्तान)
यह दुर्भाग्य है की आज हम मुसलमानों से देशभक्ति का प्रमाण माँग रहे हैं । और यह इसलिए है कि आज का युवा इतिहास को नहीं पलटता और ऐसे लोगों के चंगुल में फँस जाता है जिसका आज़ादी या आज़ादी के आंदोलन से कोई वास्ता नहीं है।