-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले के एक पंचायत शहर, कलुगुमलाई में विशाल पर्वतचट्टानों में 150 से अधिक जैन आयतन या देवकुलिकाएँ हैं। माना जाता है कि पर्वत- चट्टानोत्कीर्ण वास्तुकला में निर्मित, अधूरा मंदिर पांडियन राजा परंतका नेदुंजदैया (768-800 सीई) के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। कलुगुमलाई में रॉक-कट वास्तुकला पांडियन कला का एक अनुकरणीय नमूना है। यहाँ अधिकांश त्रिछत्र युक्त पùासन प्रतिमाएँ हैं और उनके नीचे दान दाताओं आदि ने अपने उल्लेख के साथ शिलालेख लिखवाये हैं। यहाँ सातवीं-आठवीं शताब्दी का उत्कृष्ट जैन शिल्पन है। पùासन के अतिरिक्त कुछ विशिष्टि प्रतिमांकन इस प्रकार है-

विशिष्ट तीर्थंकर प्रतिमा-
चट्टान में अन्य प्रतिमाओं के साथ इस विशिष्ट प्रतिमा की नक्काशी की ऊंचाई लगभग चार फीट है और यह चट्टान के भीतर गहराई में खुदी हुई है। चार स्तरीय बड़े से पादपीठ में तृतीय स्तर पर मध्य में एक सिंह और दोनों ओर दो विरुद्धाभिमुख सिंह बने हैं। उसके ऊपर की चरण चौकी पर पद्मासनस्थ जिन हैं। प्रतिमा सामान्य व त्रिछत्र युक्त है, घुंघराले केश हैं। किन्तु इसप्रतिमा का परिकर अनूठा हैं। सिंहासन के दोनों ओर कुछ दूरी रखकर एक एक मुकुटबद्ध राजा या देव है। इनके दोनों हाथ सामने को उठे हुए हैं, सम्भव है ये कुछ पूजाद्रव्य आदि हाथों में लिए हों। प्रतिमा के भुजाओं की पृष्ठभूमि से एक आधार पट्टिका निकली है। उसके भारवाहक दोनों ओर दो सिंह हैं, जिनके पिछले पैर प्रतिमा की चरणचौकी को स्पर्शित हैं। आधार पट्टिका पर प्रतिमा के दोनों ओर सुन्दर भंगिमा युक्त चामरधारी हैं, ये आभूषणों से भूषित हैं। पट्टिका के दोनों किनारों पर एक-एक मानव जैसी लघु आकृतियाँ बाहर को झूमती हुई सी शिल्पित हैं।
वितान में छत्रत्रय के ऊपर अशोक पर्णों व शाखाओं के पाँच वृत्तों का बृहत् छत्र बना है। मध्य के वृत्त में एक नर्तकी है, जिसके दोनों ओर के दो-दो वृत्तों में एक एक पुरुष संगीतकार हैं। दो संगीतकार एक लंबे तार वाला वाद्ययंत्र बजाते हैं, जबकि अन्य के हाथ में ड्रम और झांझ है। किनारों पर एक एक लघु पुष्पवर्षक देव और उनसे ऊपर कुछ बड़े माल्यधारी देव शिल्पित हैं जिनके हाथों में लंबे तने वाले कमल पकड़े हुए दर्शाये गये हैं। वितान के शीर्ष पर एक हाथी को दर्शाया गया है, दो घुड़ सवार शिल्पित हैं।

तीर्थंकर प्रतिमा द्वितीय-
यह ऊपर की प्रतिमा के समान है, किन्तु वितान में कुछ परिवर्तन है। वितान में पल्लवों के पाँच के स्थान पर नौ वृत्त हैं, जिनमें कुछ महिला नर्तकियाँ वाद्ययुक्त हैं। ऊपर घोड़े, हाथी, ऊँट, सिंह और ब्याल सवार हैं।
इस प्रतिमा के नीचे दो पद्मासन तीर्थंकर है, और स्वतंत्र देवकुलिका में एक महिला है, जिसके पास कलश है।
इससे मिलती जुलती दो और प्रतिमाएँ हैं।

दुर्लभ पार्श्वनाथ जिन प्रतिमा-
इस तरह की पार्श्वनाथ की प्रतिमा अन्यत्र नहीं है। तीर्थंकर प्रतिमा समपादासन में खड़ी हुई कायोत्सर्गस्थ है। पार्श्वनाथ जिन को उनके सहायक देवता धरणेंद्र द्वारा रक्षित व सेवा करते हुए शिल्पित किया गया है। यह इस कारण दुर्लभ है क्योंकि धरणेन्द्र को पार्श्वनाथ के सिर पर सर्पफणों की छत्रछाया के बजाय अर्ध-मानव रूप में शिल्पित किया गया है। वह पार्श्व के शिर के पीछे से शिल्पित अपने दोनों हाथों में सुन्दर छत्र ढुरा रहा है। हाथ व मुख मानव के और धरणेन्द्र के त्रिफण शिल्पत हैं। ऊपर दाहिनी ओर कमठ दोनों हाथों में उपसर्ग के लिए शिला उठाये हुए उकरित है। चरणों के पास नतमस्तक देव दाहिने ओर और बायें तरफ पद्मावती खड़ी हुई दर्शाई गई है। उसके शिर पर फण है।
एकल पार्श्वनाथ जिन प्रतिमा-
विशाल शिला पर सैकड़ों जिन प्रतिमाएँ उत्कीर्णित हैं। तीन पंक्तियों में से नीचे की पंक्ति में लगभग मध्य में कायोत्सर्गस्थ पार्श्वनाथ जिन प्रतिमा है। इसके शिर पर पंच सर्पफणों का आच्छादन है।

विशिष्ट अंबिका प्रतिमा-
कलुगुमलाई में विशेषताओं को प्रदर्शित करती अंबिका की प्रतिमा है। इसके दाहिने व बाएं कंधे पर आम के पेड़ के गुच्छक हैं। बायें पार्श्व में बड़ा सा सिंह उत्कीर्णित है, निकट ही दो बच्चे खड़े हैं। अंबिका को दो भुजाओं वाली देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह अपना दाहिना हाथ एक छोटी महिला के सिर पर रखकर खड़ी है। देवी के दाहिनी ओर रहस्यमय पुरुष आकृति है। विद्वानों ने इसकी पहचान अंबिका के वाहन में परिवर्तित होने से पहले उसके आसक्त पति के रूप में की है। यहाँ अंबिका को पद्मावती की तरह एक स्वतंत्र देवी के रूप में चित्रित किया गया है, नेमिनाथ की सहायक परिचारिका (शासन देवी) के रूप में नहीं।
चारभुजा देवी प्रतिमा-
विशाल शिला पर बाएँ ओर दो तीर्थंकरों के नीचे एक स्वतं़त्र देवी प्रतिमा है। इसकी चार भुजाएँ हैं, मस्तक पर सर्पफण हैं, कमल के आसन पर एक पैर मुड़ा हुआ है, दूसरा नीचे को लटकाये शिल्पित है। दोनों ओर दो नाग देवियाँ हैं।
यहाँ और भी अनेक अप्रतिम प्रतिमाएँ हैं। यह पर्वतशैलोत्कीर्ण वास्तुकला का प्राचीन विशिष्ट उदाहरण है।
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