दयाशंकर शुक्ल
23 दिसंबर को पुराने लखनऊ के खुरशेदबाग में अपनी एक पुरानी मित्र अपर्णा मिश्रा के पिता की तेरही पर जाना हुआ। भीड़-भाड़ वाले पुराने लखनऊ में कोई ऐसी खुली जगह भी हो सकती है, मैने सोचा न था। मैं इस तरफ पहले कभी नहीं आया था। मुझे लगा खुर्शीदबाग का नाम जरूर 18वीं शताब्दी के नवाब सादतअली खान ने प्यारी बेगम खुर्शीदज़ादी के नाम पर रखा होगा। साठ के दशक में लखनऊ के कुछ सम्पन्न कान्यकुब्ज ब्राह्मणों ने यहां अपनी छोटी-छोटी कोठियां बनवा ली थीं। उन्हीं में एक छोटा सा घर था जहां हमें अपने पुराने दोस्त सुधीर मिश्र के साथ जाना था।
खैर, अब अपने मूल विषय पर आता हूं जिसके बारे में रात भर सोचता रहा। हिंदुओं में तेरही या तेरहवीं का चलन मुझे हमेशा से बहुत तार्किक लगा है। जाने वाले गम में तेरह का शोक एक तरह की सीमा रेखा है, शोकग्रस्त रहने की। बिना छौंका-बखारा सादा भोजन और सात्विक रहन सहन। तब तक पूरा परिवार लगभग इस असमान्य जीवन से ऊब जाता है। ऐसे में शोकाकुल परिवार को संभलने के लिए ये दो हफ्ते काफी हैं। इतने दिन में पूरे परिवार को कुछ अरसे के लिए ही सही, जीवन का सामान्य सूत्र समझ में आ जाता है। जाना एक दिन सबको है। सबको मतलब सबको। फिर ये शोक कैसा। चलो अपनी जिन्दगी में वापस लौट आओ। उस अंधेरी गुफा-सी जिन्दगी में जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता। ये स्वीकार करो कि वह देह जो कल तक सबको प्यारी थाी अब चली गई है। उसे 13 दिन पहले जला कर राख कर दिया गया ताकि उस देह की कोई स्मृति शेष न रह जाए। सिर्फ कुछ यादे और उसक साथ बिताए वक्त का एसोसिएशन पीछे स्मृतियों में कहीं अटका रह जाए। फिर धीरे धीरे वक्त के साथ वह स्मृतियां भी विदा हो जाती हैं।
शरीर और आत्मा के बीच नाता टूट गया हमेशा के लिए। आत्मा के बारे में हम खैर कुछ नहीं जानते लेकिन अपने अनुभव से शरीर के बारे में हम कुछ जरूर जानते हैं। जो कहते हैं शरीर नश्वर है। नष्ट हो जाता है। ये बात गले नहीं उतरती। मेरे नजदीक शरीर की नश्वरता का सिद्धान्त बकवास है। क्योंकि शरीर कभी नहीं मरता। वो जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह और कुछ नहीं बस देह का रूपांन्तरण है। देह का रूप बदल जाता है। देह अगर जला दी गई तो वो पंच तत्व में विलीन हो जाएगी। देह हमेशा-हमेशा हवा, पानी, पृथ्वी, अग्नि, और आकाश में मौजूद रहेगी। दफना दी गई तो खाक बनकर अस्तित्व में रहेगी। तो देह कहां नश्वर हुई? देह अगर नष्ट हो गई तो वो कौन है जो परलोक, स्वर्ग या जन्नत में जाता है।
और आत्मा की अपनी खोज में यहां तक पहुंचा हूं कि ये खोज व्यर्थ ही है। हमारा मन या मस्तिष्क, इस दुनिया में जो कुछ भी ज्ञात है सिर्फ उसी को जान सकता है। क्योंकि जो कुछ भी ज्ञात है वह हमारा अनुभव है। आग से खेलने से हम जल जाते हैं ये तभी जान पाते हैं जब आग के करीब आने से कभी किसी ऊंगली के जलने का हमे अनुभव हो। और जब तक हम अपने ज्ञात या अनुभव के पैमाने पर अज्ञात की खोज करेंगे हम कभी कामयाब नहीं होंगे। ईश्वर और आत्मा अज्ञात है, तो ज्ञात के पैमाने पर उसकी खोज कैसे संभव है? इसीलिए अब तक किसी को ईश्वर नहीं मिला और न कोई आत्मा का रहस्य खोज पाया। जो है ही नहीं उसे कहां खोजेंगे? पांच हजार साल की खोज में कुछ नहीं मिला। न बुद्ध को न सुकरात को न क्राइस्ट को न मुहम्मद साहब या फिर सर आइज़क न्यूटन, अल्बर्ट आइंटीन या स्टीफ़न विलियम हौकिंग तक। किसी को न ईश्वर का पता मिला न आत्मा का कोई सुराग। मायूस बुद्ध और महावीर तो ज्ञान पाने के बाद नास्तिक ही हो गए। हिन्दू वेद और उपनिषद के दौर में ही वे समझ गए कि ईश्वर की खोज बेमानी है। सो उन्होंने आगे ये खोज ही बंद कर दी। लेकिन बिना ईश्वर के काम कैसे चले। तो बाद के होशियार हिन्दूओं ने तो पत्थरों में ईश्वर को खोज लिया। उन्हें एक सहारा चाहिए था बस। इस्लाम और ईसाइयत ने ईश्वर या खुदा की खोज में नाकाम होकर पैगम्बर मोहम्मद साहेब और ईश्वर के कथित बेटे ईसा मसीह को ही सबकुछ मान लिया और उनकी लिखी किताबों को पवित्र मानकर पूजने लगे।
अब ईश्वर का जन्म और मृत्यु से क्या लेना देना। ग्रंथों में हिंदुओं के राम, कृष्ण जैसे सभी देवताओं की मौत की कहानियां हैं। राम ने खुद को अयोध्या के सरयू में जीते जी विसर्जित कर दिया था। कृष्ण बहेलिए के जहर में डूबे तीर से घायल हो कर मर गए। पैगम्बर साहेब मदीने में बीमार पड़े और बेहद दर्द और तकलीफ में उन्होंने अपनी अंतिम सांसे लीं। क्राइस्ट तो बेचारे सलीब पर जिन्दा टांग दिए गए। उनके हाथों और पांव में मोटी कीलें ठोकी गई। उनकी मौत भी दर्दनाक रही होगी। तो जिन्दा कोई नहीं रह सकता। मौत का मेरा डर खत्म हो चुका है। मैंने अपनी उदास दोस्त को यही समझाया। शोक से उबर कर आगे बढ़ो और जी लो अपनी जिन्दगी, जितनी खाते में लिखी है बिना किसी को तकलीफ दिए।
(आलेख सोशल मीडिया से साभार। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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