पुष्पा गुप्ता
मै एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली से प्रयागराज की यात्रा कर रही थी. ट्रेन थी वन्दे भारत.
किसी और ट्रेन में टिकट न मिलने के कारण मजबूरी में जाना पड़ रहा था. पतली सी सीट ,दो सीट के बीच में २ इंच का अंतर ,६ घंटे का सफर. खिड़की वाली सीट. दो लोगो को खड़े होने को बोलो तब बाथरूम जाने का रास्ता बने.
जो भी था बस ६ घंटे काटने थे. सब अपनी सीट पर बैठ गए थे. मेरे बगल की सीट खाली थी. तभी एक लड़का हाफते हुए आया और सबके साथ मैंने भी आश्चर्य से देखा.
गंदे कपड़े फटा हुआ बैग. सन्नाटे में सबकी निगाहें शोर करते हुए जैसे पूछ रही हों ये यहां कैसे? प्रश्न तो मेरे मन में भी था की ऐसी क्या मजबूरी थी. इसकी की इतनी महंगी टिकट ली है इसने. फिर वह सीट ढूंढता हुआ आकर मेरे बगल वाली सीट पर बैठ गया.
मेरे अंदर संतोष का भाव जागृत हुआ चलो कोई नही. अब कोई इसे कुछ नही कहेगा. लेकिन जो तीसरी सीट वाले भाई साहब थे उनको समस्या हो रही थी। तब तक मुझे पता चल चुका था की इस भाई को बनारस तक जाना है. फिर उसे वहा से बिहार जाना है और उसके पिता जी का देहांत हो चुका है. उनकी मिट्टी रखी हुई है उसी के इंतजार में.
ओह ये कारण है. मेरे मन में करुणा के भाव जागृत हुए. तीसरी सीट वाला भाई शायद कोई परिक्षा थी उनकी वो पढ़ने लगे। मैं मन ही मन सोच रही हूं ये कैसा संयोग है ईश्वर. सुख, दुःख और संसय इतने पास और एक साथ चल रहे है।
तभी एक मोहतरमा नाश्ता लेकर आई. मेरी भूख तो पाताल लोक में चली गई थी. सो मैंने एक सैंडविच और दही लेकर बाकी प्लेट भाई की तरफ बढ़ा दी. वह बिना कुछ पूछे खाने लगे. तब तीसरी सीट वाले भाई ने अपना सैंडविच प्रेम से उस भाई को दे दिया.
अब तक उसे भी यह एहसास हो चुका था की यह व्यक्ति परिस्थितियों का मारा है. तब अचानक से वह बोल उठा : महीने का आखिरी था सोचा था पगार आने पर बाऊजी को देख आऊंगा. जा नही पाया. इंतजाम करके अब तो घर जाना ही है.
मैंने बस सिर हिला दिया. ट्रेन अब लगभग आधी दूरी तय कर चुकी थी. घर वालों के फोन आए ही जा रहे थे.
मेहंदी लगाई हो की नही. पार्लर चलना है क्या तैयार होने. मै सबको हा ,ना करती अपने ही विचारों में खोई सोच रही थी.
तबतक पतिदेव का फोन आया. पेंटोसेक खाया की नही. शादी में जाना है दिक्कत न हो जाए। वे गुनगुना रहे थे जिए तो जिए कैसे बिन आपके.
अभी में मेरे होंठो पे आधी ही मुस्कुराहट आई थी की उन्होंने बताया की पंकज उदास जी नही रहे. ओह!
मैंने इतना बोलकर फोन काट दिया.
ट्रेन कानपुर से आगे बढ़ चली थी. कहते है एक दुःख दूसरे दुःख को कम कर देता है. सो अब मैं पूरी तरह जागृत अवस्था में थी. हमारी सीट से पीछे वाली सीट पर एक भाई साहब जिनकी उम्र लगभग ५५ साल होगी मोबाइल पर बिना हेडफोन लगाए(जो उनकी गर्दन में लटका हुआ था) किसी ज्ञानी महात्मा का प्रवचन सुन रहे थे. बिना किसी की परवाह किए हुए. और बीच -बीच में खुद भी प्रवचन दिए जा रहे थे. अरे आज कल के बच्चों को दबा के ना रक्खा जाए तो मां बाप को वृद्ध आश्रम ही भेजेंगे वे. मैं तो सब ले लेता हूं उनसे, नही तो बिगड़ जायेंगे. घर जमीनें सब मेरे नाम पर है. सब शौक शान से पूरे करता हूँ मैं.
मेरा मन उनका प्रवचन सुनकर चीत्कार उठा. महोदय आप का भविष्य तो मुझे वृद्धा आश्रम से ऊपर का दिख रहा है. ट्रेन में अब मेरी यात्रा लगभग पूरी होने ही वाली थी, और मैंने एक नजर चारों तरफ घुमाई.
देखा एक दादी का सामान उनका पोता उतार रहा है,और उनको भी संभाल रहा है. टिकट कलेक्टर साहब शांत मुद्रा में गेट के पास खड़े है।
मेरी ट्रेन यात्रा पूरी हो चुकी थी ,और मेरा मन भी एक निष्कर्ष पर पहुंच चुका था : जीवन एक यात्रा है और
इसके कई रंग है. जो मिले उसमें रंगते चलों, क्योंकि यात्रा कोई भी हो समाप्त तो होनी ही है।
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