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ट्रंप की धमकी और गैर-डॉलरीकरण की ज़रूरत

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प्रभात पटनायक
उदारवादी मत में यह माना जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वित्तीय प्रणाली एक ऐसा औजार है, जो इसमें हिस्सा लेने वाले सभी देशों के हितों को आगे बढ़ाता है। यह किया जाता है, भुगतान की ऐसी सुविधाजनक व्यवस्था मुहैया कराने के जरिए, जिसके दायरे में व्यापार संचालित किया जा सकता है। लेकिन, सचाई इससे बिल्कुल अलग है। यह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था तो पश्चिमी साम्राज्यवाद के वर्चस्व पर टिकी हुई है और पलट कर इस वर्चस्व को थामे रखती है। चूंकि अमरीकी डॉलर इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की कीली है, हम यह कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में डॉलर का वर्चस्व, पश्चिमी साम्राज्यवाद के वर्चस्व से टिका भी रहता है और उसे टिकाए भी रखता है। और यह वर्चस्व व्यापार साझीदार देशों के बीच परस्पर सुविधाजनक व्यापार के भी आड़े आता है।विडंबनापूर्ण है कि ट्रंप की धमकी, जो तात्कालिक रूप से कारगर भी हो सकती है, ज़्यादा से ज़्यादा देशों को गैर-डॉलरीकरण की ज़रूरत के प्रति सचेत करेगी और इस तथ्य के संबंध में सचेत करेगी कि डॉलर का वर्चस्व, अमेरिका की दासता का हिस्सा है।

डॉलर का बोलबाला

एक उदारहण से हमारी बात साफ हो जाएगी। मान लीजिए देश 1 को माल अ की जरूरत है, जो देश 2 के पास है और देश दो को माल ब की जरूरत है, जो देश 1 के पास है। लेकिन, मौजूदा व्यवस्था में ये देश आपस में इन मालों का सीधे आदान-प्रदान नहीं कर सकते हैं। इसके बजाए, ऐसे देशों को एक-दूसरे से कोई माल खरीदने से पहले, डॉलर हासिल करने होते हैं। जब तक उनके पास पर्याप्त डॉलर संचित कोष नहीं होता है, उनके बीच सौदा हो ही नहीं सकता है। 

दूसरे शब्दों में डॉलर के अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में सर्कुलेशन का माध्यम होने का मतलब यह है कि अगर कुछ देशों के हाथों में डॉलरों की कमी हो तो, इससे उनके आपसी लेन-देन तक रुक जाते हैं। यह तीसरी दुनिया के देशों के बीच के व्यापार के मामले में खासतौर पर सच है। यह व्यापार, इन देशों में से हरेक के पास डॉलरों की कमी होने की वजह से तंग बना रहता है। ये देश अगर अपनी ही मुद्राओं में एक-दूसरे के साथ व्यापार कर सकते हों यानी गैर-डॉलरीकरण कर सकते हों, तो वे आपसी व्यापार को बढ़ा सकते हैं। गैर-डॉलरीकरण की संज्ञा का अर्थ है सर्कुलेशन के माध्यम, हिसाब-किताब की इकाई या अंतर्राष्ट्रीय सौदों के लिए संचित कोष रखने के माध्यम के रूप में, अमेरिकी डॉलरों पर निर्भरता कम करना।

बहरहाल, गैर-डॉलरीकरण (de-dollarisation) का अमेरिका द्वारा स्वाभाविक रूप से विरोध किया जाता है। इसकी वजह यह है कि अमेरिका की मुद्रा के विश्व अर्थव्यवस्था के लिए इतने महत्वपूर्ण होने और आम तौर पर उसके ‘सोने जैसा खरा’ माने जाने से, अमेरिका को बहुत भारी लाभ हासिल होता है। वास्तव में उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे उसके हाथ मुफ्त में ही और असीम, सोने की खदान लगी हुई हो। इसके बल पर वह अन्य देशों से संसाधन खरीद सकता है, उनके उद्यमों का अधिग्रहण कर सकता है, वह जितना जी चाहे विदेश में निवेश कर सकता है और अपने चालू खाता घाटों की भरपाई कर सकता है। और यह सब वह सिर्फ और ज्यादा डॉलर छापने के जरिए कर सकता है।

पश्चिमी पाबंदियां और गैर-डॉलरीकरण (de-dollarisation) की मांग

लेकिन इन स्वत:स्पष्ट फायदों के अलावा, जो एक सुनिश्चित मूल्य की अंतर्राष्ट्रीय क्रय शक्ति की असीमित मात्रा तक पहुंच दिलाते हैं, अमेरिका डॉलर की इस भूमिका का दूसरे देशों की बाहें मरोड़कर, उन्हें अपना वर्चस्व स्वीकार करने पर मजबूर करने लिए भी इस्तेमाल कर सकता है। वह अपने चहेते देशों को डॉलर मुहैया करा सकता है। और इसका उल्टा यह कि वह उन देशों के डॉलर के संचित भंडारों को जब्त कर सकता है, जिन्हें वह दंडित करना चाहता हो, क्योंकि सामान्य रूप से ये भंडार पश्चिमी बैंकों में ही रखे जाते हैं। वास्तव में उसने इस तरह की सजा ईरान से लेकर रूस तक, बेहिसाब देशों को दी है। गैर-डॉलरीकरण की प्रवृत्ति को, जिसको आमतौर पर तीसरी दुनिया के देश पसंद करते हैं, जो आम तौर पर डॉलर की तंगी से पंगु बने रहते हैं, पिछले अर्से में इसीलिए बहुत  भारी बढ़ावा मिला है कि हाल के वर्षों में दूसरे देशों के संचित डॉलर कोष जब्त किए जाने की आवृत्ति बढ़ गयी है।

अगर दुनिया के एक-तिहाई देश इन इकतरफा पश्चिमी पाबंदियों के शिकार हैं, जिन पाबंदियों को संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन हासिल नहीं है और इसलिए जिन्हें किसी सिद्धांत के आधार पर नहीं थोपा गया है, जैसे कि मिसाल के तौर पर दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ रंगभेद-विरोधी पाबंदियों को लगाया गया था, तो यह स्वाभाविक है कि विकासशील दुनिया या ग्लोबल साउथ के अनेक देशों में और इस तरह निशाना बनाए जाने वाले देशों में, गैर-डॉलरीकरण की इच्छा देखने को मिलेगी। हाल ही में, कजान में हुए ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन में, इसी इच्छा की अभिव्यक्ति हुई थी।

साम्राज्यवादी ज़ोर-जब्र और डॉलर का वर्चस्व

गैर-डॉलरीकरण की इच्छा को प्रबल बनाने में, अमेरिका के नेतृत्व में लगायी जा रही पश्चिमी पाबंदियों की भूमिका को तो, खुद अमेरिकी प्रशासन में भी स्वीकार किया जा रहा है। अमेरिकी खजाना सचिव, जेनेट येल्लन ने जुलाई के महीने में, हाउस फाइनेंशियल सर्विसेज कमेटी में बोलते हुए कहा था कि अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों का ही नतीजा है कि ब्रिक्स नि:डॉलरीकरण (de-dollarisation) का रास्ता लेने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने यह कबूल किया था: अमेरिका जितनी ज्यादा पाबंदियां लगाएगा, उतने ही ज्यादा देश-[ब्रिक्स] लेन-देन के ऐसे तरीकों की तलाश करेंगे, जिनमें अमेरिकी डॉलर नहीं आता हो। येल्लन की टिप्पणी में इसकी स्वीकारोक्ति छुपी हुई थी कि अमेरिका, डॉलर के वर्चस्व का इस्तेमाल दूसरे देशों की बाहें मरोड़ कर उन्हें अपनी लाइन का अनुसरण करने पर मजबूर करने के लिए करता है और इस तरह धमकी में लिए जाने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है।

इस तरह की इकतरफा पाबंदियों के जरिए वर्चस्व का व्यवहार किए जाने की एक खास द्वंद्वात्मकता है। अगर पाबंदियां इक्का-दुक्का अड़ियल देशों पर ही लगायी जा रही हों, तो ऐसी पाबंदियां फिर भी कारगर हो सकती हैं और पूरी व्यवस्था के लिए खतरा भी पैदा नहीं होगा। लेकिन, अगर ये पाबंदियां कई देशों पर लगायी जाती हैं, तो इससे पूरी व्यवस्था के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। और नव-उदारवाद के अंतर्गत देशों को जिस तरह की बदहाली में धकेला जा रहा है, उसे देखते हुए वक्त के साथ ऐसे अड़ियल देशों की संख्या बढ़ने ही जा रही है। लेकिन, पाबंदी के शिकार होने वाले देशों की संख्या बढ़ने के साथ, गैर-डॉलरीकरण की प्रवृत्ति अनिवार्यत: ज्यादा से ज्यादा प्रबल होती जा रही है। यह भी तब है जबकि डॉलर के वर्चस्व के पीछे की शुद्ध धौंस पट्टी, यह तथ्य कि यह वर्चस्व साम्राज्यवादी जोर-जबर्दस्ती पर आधारित है, सब कुछ साफ तौर पर स्वत:स्पष्ट होता जा रहा है। इससे इस उदारपंथी दावे का खोखलापन बेनकाब हो जाता है कि डॉलर पर आधारित व्यवस्था, सभी देशों के हित में है।

तेल के भरोसे डॉलर का वर्चस्व अब और नहीं

डॉलर के वर्चस्व के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण निकटतम कारण, जो पीछे 1970 के दशक तक जाता है, अमेरिका तथा तेल उत्पादक देशों के बीच हुए समझौता था। यह समझौता सउदी अरब की मध्यस्थता से हुआ था और इसमें यह तय हुआ था कि डॉलर की तेल की कीमतों की अभिव्यक्ति का और तेल के व्यापार के संचालन का माध्यम होगा। तेल के महत्व को देखते हुए, इसने डॉलर को एक जबर्दस्त उछाल दे दिया। वास्तव में अपेक्षाकृत हाल ही में, जब रूस के रूबल को ध्वस्त करने की नीयत से रूस के खिलाफ पश्चिम की पाबंदियां थोपी गयी थीं, रूस की मुद्रा को अन्य चीजों के  अलावा रूस के इसके आग्रह ने बचाया था कि उसके तेल तथा गैस निर्यातों के तमाम भुगतान, रूबल में करने होंगे।

लेकिन साफ तौर पर तेल निर्यातकों के साथ इस तरह का समझौता, जो 1970 के दशक में हुआ था, अब डॉलर के वर्चस्व का कायम रहना सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं माना जाता है। यहां तक कि जेनेट येल्लेन भी, जिन्होंने पहले गैर-डॉलरीकरण की सारी बातों की हंसी उड़ायी थी, अब उसे कहीं गंभीरता से लेती हैं। 

इस संदर्भ में यह हैरानी की बात नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप ने यह धमकी तक दे डाली है कि जो देश डॉलर से दूर जाने की कोशिश करेंगे, अमेरिका के लिए उनके निर्यातों पर 100 फीसद शुल्क लगा दिया जाएगा। ट्रंप की धमकी से सभी के सामने यह बिल्कुल साफ  हो जाता है कि डॉलर के वर्चस्व के पीछे, अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा आजमायी जाने वाली धौंस पट्टी है।

ट्रंप की धमकी से साम्राज्यवाद बेनक़ाब

इस तरह की जोर-जबर्दस्ती कारगर हो सकती है क्योंकि गैर-डॉलरीकरण की किसी भी प्रक्रिया में समय लगता है। अगर गैर-डॉलरीकरण करने वाले देशों के अमेरिका के लिए निर्यातों में इसी दौरान कटौती हो जाती है, तो उन्हें डॉलर की भारी तंगी का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उनकी स्थिति बहुत मुश्किल हो सकती है। अगर ऐसे देश गैर-डॉलर भुगतानों के जरिए अपनी आयात की जरूरतें किसी तरह से पूरी करने में कामयाब भी हो जाते हैं, अगर उनके ऊपर डॉलर में आसूचित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की या विश्व बैंक की या पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं की कोई ऋण संबंधी देनदारियां हैं, तो उनके लिए इन देनदारियों को चुकाना असंभव हो जाएगा। इसलिए, ट्रंप की धमकी एक गंभीर धमकी है। उल्लेखनीय तरीके से यह धमकी देकर ट्रंप ने नंगई के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के उस तंत्र को बेनकाब कर दिया है, जिसे सामान्य रूप से उदारपंथी बतकही से ढांप कर रखने की कोशिश की जाती है।

बहरहाल, विडंबनापूर्ण है कि यह धमकी, जो तात्कालिक रूप से कारगर भी हो सकती है, ज्यादा से ज्यादा देशों को गैर-डॉलरीकरण की जरूरत के प्रति सचेत करेगी और इस तथ्य के संबंध में सचेत करेगी कि डॉलर का वर्चस्व, अमेरिका की दासता का हिस्सा है। बेशक, कोई भी सार्थक गैर-डॉलरीकरण होने से पहले अभी लंबा सफर तय करना होगा और कजान शिखर सम्मेलन को इस सचाई का बखूबी एहसास था। ट्रंप की धमकी के बाद, भारत समेत कई देशों ने गैर-डॉलरीकरण में अपनी दिलचस्पी नहीं होने की बात कही है। लेकिन, अमेरिका को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए, ये देश फौरी तौर पर इस तरह की मुद्रा तो अपना सकते हैं, फिर भी यह तथ्य निर्विवाद है कि साम्राज्यवाद के सामने एक गंभीर चुनौती खड़ी हो गयी है। यहां तक कि साम्राज्यवादी ताकतों की एकता भी, जो यूक्रेन तथा गज़ा के मामले में देखने को मिल रही है, जहां सभी साम्राज्यवादी देशों में सोशल डेमोक्रेसी सामान्य रूप से साम्राज्यवाद के पीछे लग जाती है, साम्राज्यवाद के सामने खड़ी चुनौती की गंभीरता की ही गवाही देती है।

गैर-डॉलरीकरण: विकल्प की चुनौती

गैर-डॉलरीकरण की चर्चा इसी चुनौती का हिस्सा है। बहरहाल, ब्रिक्स देशों में भी इसकी कोई स्पष्ट संकल्पना नहीं है कि वर्तमान वित्तीय ढांचे की जगह लेने वाला वैकल्पिक वित्तीय ढांचा कैसा होगा। दुनिया की प्रगतिशील राय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस प्रतिस्थापन में, वह जब भी हो, डॉलर के वर्चस्व की जगह किसी और मुद्रा के वर्चस्व द्वारा न ले ली जाए, जो किसी और देश या देशों के समूह के वर्चस्व को प्रतिबिंबित करता हो।

इसके लिए यह जरूरी है कि जब डॉलर की जगह किसी और मुद्रा द्वारा ली जाए, वह चाहे कोई पहले से मौजूद मुद्रा हो या फिर ब्रिक्स की कोई वैकल्पिक मुद्रा ही क्यों न हो, पहले वाली व्यवस्था बनी नहीं रहे। खुद नियमों को बदलना चाहिए और एक महत्वपूर्ण बदलाव यह होना चाहिए कि भुगतान संतुलन हासिल करने के लिए समायोजन का बोझ इस व्यापार में घाटे वाले देशों पर नहीं होना चाहिए, जैसा कि ब्रेटन वुड्स व्यवस्था में होता है और जोकि इस समय हो रहा है, इसके बजाय यह बोझ व्यापार लाभ वाले देशों पर होना चाहिए।   

(प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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