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अयोध्या में तुलसीदास की उपेक्षा?

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तुलसीदास ने रामचरित मानस याने राम की चरित्र कथा लिखी। अरविन्द कुमार के समांतर कोश के अनुसार मानस का मतलब काल्पनिक जीवनी है। रामचरित मानस के सभी चरित्र तुलसीदास की उर्वर कल्पना के किरदार हैं। लेकिन इतने असल हो गए कि इतिहास लजा गया। तुलसीदास ने अपने वक्त की जनता की किताबी निरक्षरता को संवेदनशील होकर देखा। उन्हें समझने रूढ़िग्रस्त, जिद्दी और कूढ़मगज हथकंडों से बचना चाहिए। उनकी समझ को समकालीन बनाना होगा तब ही तुलसीदास केवल प्रासंगिक नहीं शाश्वत कहला सकते हैं।

रामचरित मानस के पाठक और श्रोता अशिक्षित, अल्पशिक्षित और अर्द्धशिक्षित जनमानस में ज्या़दा हैं। किताबें रटकर थीसिस लिखने वालों से कहीं ज़्यादा तुलसीदास करोड़ों अवाम केअसल‌ ‘मन की बात‘ हैं। तुलसीदास भारत की जनवादिता, जनसुलभता और जनस्वीकारोक्ति के सबसे स्वीकृत कवि हो गए हैं। रामचरित मानस को पढ़ने से कहीं ज्यादा कानों से सुनते साहित्य की जिजीविषा मनुष्य की स्वायत्तता के विकास के लिए सक्रिय हो जाती है। रामचरित मानस काव्य के बनिस्बत जनविश्वास का आदर्शों के लिए प्रामाणिक कबूलियतनामा है। महाकवि ने कल्पना से राष्ट्रनायक ईजाद कर मनुष्य जीवन में आ चुकी, आने वाली, आ सकने वाली सभी चुनौतियों, उम्मीदों और घटनाओं का ताना बाना बुन दिया, जिससे आने वाली सदियों में भविष्य के किरदार तुलसी द्वारा सुझाए और ढूंढे़ रास्ते का मर्म बूझ सकें।

16 वीं, 17 वीं सदी में तुलसीदास प्रजातंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों से बनी संवैधानिक व्यवस्था की इन्हीं शब्दों में पैरवी नहीं कर सकते थे। तुलसी सामन्ती व्यवस्था के विरोधी थे। वे अकबर के दरबारी कवि नहीं बने। तुलसी ने कहा, ‘‘मणि मानिक महंगे किए। सहजे तृण जल नाज। ऐते तुलसी जानिए राम गरीब निवाज।‘‘ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।लोकतंत्र का मकसद तुलसी और राम के भक्त गांधी ने भी एक शब्द में ढूंढ़ा कि भारत में ‘रामराज्य‘ स्थापित हो। तुलसी का सुराज और गांधी का स्वराज क्या मौजूदा जनतंत्र में नहीं, सम्भावित रामराज्य में ही है?

गरीबी पर तुलसीदास ने ज़्यादा तीखा और सीधा हमला किया। वे कहते हैं गरीबी का दुख संसार की माया कहकर मिटाया नहीं जा सकता। कवितावली में भूख और गरीबी का वर्णन तुलसीदास ने आत्मा के खून से लिखा। ‘‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माही। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।‘‘

कवि ने गरीबी को रावण कहा जिसने सारे संसार को दबा रखा है। गांधी और विवेकानन्द ने भी दरिद्रनारायण शब्द इस्तेमाल किया। वे प्रजापीड़क राजाओं को शाप देते कहते हैंः राज करत बिनु काज ही, सजहिं कुसाज कुठाट। तुलसी ते दसकंध ज्यों, जइहैं बारह बाट।। या
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। ते नृप अवसि नरक अधिकारी।‘‘।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। उनकी रचनाओं में जगह-जगह नाइंसाफी के खिलाफ चुनौती की आवाज गूंजती है। रहस्य यही कि उन्हें किसी की गुलामी नहीं करनी है। वे बेतकल्लुफ होकर कहते हैं ‘‘मांगि कै खैबे, मसीत को सोइबे, लेबे को एक, न देबे को दो।‘‘।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ।।।।।।।।।।।।।।।।।पत्नी अपहरण के वक्त राम रो रोकर कुदरत के हर अवयव से सीता का पता पूछते हैं। यही राम लेकिन लोकतंत्र के राज्य की मर्यादा को बनाए रखने के लिए सीता का देश निकाला कर देते हैं। तुलसी यह सब भविष्य के जुमले याने आज की संवैधानिक भाषा में कैसे कुछ कह सकते थे? लेकिन मर्म क्या है? उनके समय सामंतशाही का प्रशासनिक संसार था।

दो सबसे बड़ेे जनधर्मी योद्धा-विचारक विवेकानन्द और गांधी पर तोहमत है कि वे वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे और जातिवाद के खिलाफ उन्होंने मुखर होकर बड़ी सामाजिक लड़ाई नहीं लड़ी। पीछे इतिहास में लौटें। ठीक यही आरोप तुलसीदास के व्यवहार में भी है। वे ब्राह्मण थे और उन्हें ब्राह्मण होने का गुमान भी था। उन्होंने वर्ण व्यवस्था के जुमले में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसे शब्दों का उल्लेख भी किया है। यही उल्लेख सामाजिकता में इक्कीसवीं सदी तक भी मुखर हो रहा है। ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।रामचरित मानस या तुलसी का अन्य साहित्य पढ़कर उनके सवर्ण मित्रों का ब्यौरा नहीं मिलता कि उनके जरिए तुलसी ने कोई सामाजिक उथलपुथल की पहल की हो। इसके बरक्स दर्जनों लोग तुलसी के अंतरंग रहे हैं। उनके दोस्तों में पासी, अहीर, जुलाहा, केवट जातियों के कई लोग थे। तुलसी ने रामलीला कराने की पेशकश की। तो यही लोग उनमें शबरी, निषाद, केवट और तमाम तरह के पात्रों का अभिनय करते थे। अयोध्या के सवर्णों ने जनयुद्ध में राम की मदद की हो, ऐसे भी सबूत नहीं मिलते। फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिवाद के खिलाफ उस वक्त संघर्ष करना सम्भव नहीं हुआ। उसका आगाज ज्योतिबा और सावित्री फुले, पेरियार और अम्बेडकर के लिए जुनून तक हुआ।

भक्ति का रास्ता सुझाते भी तुलसीदास स्वर्ग और नर्क को लेकर संशयवादी मिथक नहीं रचते। उन्होंने वैतरणी पार करना नहीं बताया। न गोमूत्र बेचना, न गोबर खरीदना। इन शब्दों का राजनीतिक-धार्मिक रोजगार नहीं किया। वे साफ कहते हैं अपने दुख दूर करना है। तो इसी दुनिया में रहकर ही उससे जद्दोजहद करो। मुसीबतों का मुकाबला करो और याद रखो राम तुम्हारे साथ हैं। राम मनुष्य देह लेकर धनुष बाण के साथ तुम्हारे दुखों को मारने नहीं आएंगे। राम अंदर की अपराजेय आत्मा की ताकत हैं। वह ताकत मनुष्य को हर मुसीबत से लड़ने का जो हौसला देती है। उसी हौसले का नाम राम है। राममयता मनुष्य होने के अस्तित्व का मायने हैै। यही वजह है तुलसीदास के राम गांधी तक पहुंचते पहुंचते समावेशी चरित्र के संवैधानिक भारतीय हो सकते हैं।

लोहिया ने भी राम चरित्र को समाज विज्ञान के मानकों जैसे भूगोल, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र वगैरह आयामों में रेखांकित कर राम होने के अर्थ के नायाब रूपांतर हासिल किए हैं। उन्होंने नायाब रामलीला का कॉन्सेप्ट और मकबूल फिदा हुसैन से रामकथा के अभिनव चित्र रूपायित करने की मौलिक पेशकश की थी। तुलसीदास के राम को समझने ज्ञानशास्त्र की सभी विधाओं में डूबने के बदले महाकवि की आत्मा के जंगल में भटक जाना अच्छा होता है।

बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली, ताकतवर और लोकप्रिय हिन्दी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ की दो सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में एक है ‘राम की शक्ति पूजा‘ और दूसरी है ‘तुलसीदास‘। ‘निराला‘ की तुलसीदास से बेहतर रचना शायद अब तक नहीं लिखी गई है। निराला ने तुलसी के लिए कहा ‘‘करने को ज्ञानोद्धत प्रहार। तोड़ने को विषम वज्र-द्वार। उमड़े, भारत का भ्रम अपार हरने को।‘‘ निराला के मुताबिक तुलसीदास जानते थे कि सामान्य जनता के लिए किताबी अध्ययन आधारित ज्ञानमार्ग मुष्किल रास्ता है। इसलिए तुलसीदास ने जानबूझकर भक्ति मार्ग का रास्ता सुझाया। निराला के शब्दों में वही ज्ञान का भक्तिमय लगता प्रहार था। अर्थात् ज्ञान के जरिए अज्ञान पर हमला। तुलसीदास ने समझ का एक नायाब सूत्र दिखाया। कहा कि भक्ति का आग्रह, दुराग्रह नहीं सत्याग्रह है। मार्क्स भी तो कहता था ‘‘सब चीजों पर संदेह करो। लेकिन समाजवादी व्यवस्था के लिए जान तक कुर्बान कर सको।‘‘

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