अग्नि आलोक

*विष्णु नागर के दो व्यंग्य*

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*1. विडंबना*

एक गधा था‌। इसे विधि की विडंबना कहिए या कुछ और कि उसके दो पैर और दो हाथ थे। इस कारण गधे उसे गधा नहीं मानते थे और आदमी उसे आदमी नहीं। दोनों तरफ से उसे लात पड़ती। इधर से लात पड़ती, तो उधर जाता और उधर से पड़ती, तो इधर आता। और जाए भी कहां? वह गधों से कहता कि मेरे दो हाथ, दो पैर हैं, तो क्या हुआ, मैं बाकी शरीर, मन, वचन और कर्म से तो एक सौ एक प्रतिशत गधा हूं! तो गधों की बिरादरी का मुखिया कहता कि गधा होने के लिए चार पैर होना प्राथमिक योग्यता है। मनुष्यों के दो पैर, दो हाथ होते हैं। तुम मनुष्य हो, उनके पास जाओ। हम अपनी जाति की शुद्धता को तुम जैसों के कारण कलंकित नहीं होने दे सकते। हम मनुष्यों जैसे गये- बीते नहीं हैं। उनके यहां सब चल जाता होगा। हमारे यहां नहीं चलता!

वह मनुष्यों के मुखिया के पास गया कि मेरे साथ बहुत अन्याय हो रहा है, तो जवाब मिला : तो क्या तू हमें गधों से भी गया-बीता समझता है? गधे, तुझे गधा मानने को तैयार नहीं, इसलिए हम तुझे मनुष्य मान लें? तूने हमें समझ क्या रखा है? मानव इस ब्रह्माण्ड का सर्वोपरि प्राणी है। फौरन भाग यहां से, वरना तुझे इतने डंडे पड़ेंगे कि नानी-दादी, सब एक साथ याद आ जाएगी। दुबारा अपनी ये बदसूरत शक्ल मत दिखाना, वरना साले का भुर्ता बना दूंगा! अकल है नहीं, शकल है नहीं और चले आए हैं आदमी बनने! केवल दो पैर, दो हाथ होने से क्या होता है? भाग यहां से। उल्लू के पट्ठे, गधे की औलाद!

फिर से वह गधों की शरण में गया। गधों ने कहा, तू फिर आ गया? थोड़ी शरम बची है या नहीं कि सारी की सारी घोल कर पी चुका है? मनुष्यों ने ठेल कर इधर भेज दिया तो तू इधर आ गया? अड़ा रहता। लड़ता उनसे। हक मांगता। दो लातें जमाता उन्हें, तो मरदूद ठीक हो जाते। इन्होंने हमें भी बहुत बेवकूफ बनाया है, हमारा भी बहुत शोषण किया है। ऊपर से हमारा नाम गधा रखकर अपमानित भी किया है। खैर। हां तो बता। हम तेरा अब क्या करें?

उसने कहा कि ये बताइए, प्रकृति ने मुझे ऐसा बनाया। इसमें मेरा क्या दोष? न इधर का रखा, न उधर का। उसकी सजा मुझे क्यों?

तो प्रकृति से जाकर न्याय मांग! किसने रोका है तुझे? और ये बता, तूने यही बात मनुष्यों से भी कही कभी?

नहीं कही।

हिम्मत नहीं हुई होगी तेरी, क्यों? और हमारे सामने आकर बड़ी हिम्मत दिखा रहा है? अच्छा चल, फिर भी हम तुझे एक राहत देते हैं। हम मनुष्यों जैसे निर्दयी नहीं हैं। ऐसा कर तू आपरेशन करवा। दो की जगह, चार टांग करवा ले। हम तुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर लेंगे।जाकर मनुष्यों से कह कि वे तेरा आपरेशन करवा दें। तेरे दो हाथों को भी दो टांगों में बदल दें। तुझे चार पैरों से चलना सिखा दें। जा-जा, इतनी सी तो बात है, वे फौरन मान लेंगे। उनके सिर का बोझ हट जाएगा। जा-जा। परेशान मत हो। इधर-उधर धक्के मत खा।

फिर गया वह। मनुष्यों ने कहा कि अरे बेशरम, तू फिर आ गया? मना किया था न? हम तेरा आपरेशन करवाएंगे? क्यों भाई, क्यों? पागल कुत्ते ने काटा है हमें? गधा समझ रखा है हमें? हम आदमी हैं, निखालिस आदमी। क्या समझा हम- आ द और मी हैं- आ द मी। मनुष्य। मनुष्यता शब्द मनुष्यों से बना है, गधों से नहीं। हम इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं। सबसे बुद्धिमान हैं। सबसे चतुर हैं। पढ़े-लिखे हैं। तमाम खोजों के जनक हैं। पुस्तकों के लेखक हैं। कलाओं के सृजनकर्ता हैं। तू जा अपना रास्ता नाप। अभी बहुत प्रेम से, शांति से, नरमी से समझा रहे हैं। गधों को समझाना हमें बहुत अच्छी तरह आता है।हम इस कला में पारंगत हैं। सदियों से गधों को हांकते आए हैं। तेरी तो हमने बात सुन ली, यही तुझ पर हमारा बहुत बड़ा एहसान है। हमारी मनुष्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है! तेरी दो टांगें और दो हाथ न होते, तो हम सीधे डंडे से बात करते। अच्छा अब, नमस्कार, वरना डंडा मेरे पास है। लाऊं?

वह तब से त्रिशंकु की तरह बीच में लटक हुआ है। न उसे जिंदगी मिल रही है, न मौत।

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*2. कुर्सी नाम सत्य है!*

आजकल उसे अक्सर ही यह सपना आता है कि किसी ने उसे उसकी कुर्सी से धक्का देकर नीचे गिरा दिया है और वह कुछ नहीं कर पा रहा है। डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गई है। उसके गले से आवाज नहीं निकल रही है।उसमें इतनी ताकत नहीं बची है कि उठकर खड़ा हो जाए। कुर्सी का सहारा लेकर उठने की कोशिश करता है, तो कुर्सी उस पर गिर जाती है। वह कुर्सी के नीचे दब जाता है। वह कुर्सी को अपने ऊपर से उठा नहीं पाता।आसपास कोई है नहीं, जो कुर्सी को हटाकर उसे सहारा देकर फिर से बिस्तर पर लिटा दे। वह अपनी इस दयनीय दशा पर रोने लगता है, तो लोग उस पर हंसने लगते हैं। इस अपमान को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। अचानक उसकी चीख निकल जाती है।

उसकी चीख सुनकर उसके दसियों सेवक उसके शयनकक्ष की ओर दौड़े आते हैं। दरवाजा खटखटाते हैं।पूछते हैं सर, क्या हुआ, क्या हुआ? सब ठीक तो है न? तबीयत तो ख़राब नहीं हो गई? डाक्टर बुलाएं? उधर से आवाज़ नहीं आती है, तो वे दरवाजा तोड़ने की कोशिश करते हैं। इतने में अंदर से वह बोल पड़ता है। नहीं, मैं ठीक हूं। मुझे कुछ नहीं हुआ है। जाओ अपना काम करो। मुझे तंग मत करो। मुझे सोने दो। अरे मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है? देश के140 करोड़ लोग मेरे साथ हैं।

उसके सेवक यह सुनकर मुस्कुराते हुए, यह सोचते हुए चले जाते हैं कि कुछ तो भारी गड़बड़ है, मगर हमें क्या?वह जाने, उसका काम जाने!

उसके बाद उसे रातभर नींद नहीं आती‌। उसे डर लगता है कि उसने फिर से सोने की कोशिश की, तो फिर से वही दु:स्वप्न आएगा, फिर से चीख निकल जाएगी। क्या पता इस बार उसकी चड्डी गीली हो जाए!

वह सुबह होने तक कुर्सी को अच्छी तरह पकड़ कर बैठा रहता है। इस बीच मन ही मन वह अभ्यास करता है कि कोई कितनी ही ताकत लगाए, तो भी कुर्सी उससे छिन‌ न पाए, इसके लिए वह क्या -क्या दांव खेल सकता है? फिर भी अपनी कुर्सी को लेकर वह इतना अधिक चिंतित है कि बंद कमरे में भी बाथरूम जाते समय कुर्सी को अपने सिर पर ढोकर ले जाता है और वापस लाता है। वह कुर्सी को अकेला नहीं छोड़ता। पता नहीं, कब, कौन उसका सतीत्व भंग कर दे! नींद में भी वह अदबदाकर उठ बैठता है और देखता है कि उसकी कुर्सी कहां है? कुर्सी ही उसका एकमात्र जीवन सत्य है, कुर्सी ही उसकी रक्षक है, उसकी चौकीदार है, उसकी माई-बाप, उसकी प्रभु है। कुर्सी ही उसके लिए सत्यम, शिवम, सुंदरम है।

अब रोज ही उसे अब कुर्सी छिन जाने के सपने आते हैं। अकसर पचास बरस की उम्र का एक पैंट-शर्ट धारी मुस्कुराता हुआ उस कुर्सी पर काबिज दिखाई देता है, जो उसका और उसकी कुर्सी का जानी दुश्मन है। वह उससे कहता है कि हट बे, इस जन्म में यह कुर्सी मेरी है और मेरी ही रहेगी। इस पर कोई और बैठ नहीं सकता। उस पर बैठा आदमी कोई जवाब नहीं देता, बस थोड़ा सा मुस्कुरा देता है। उसे यह मुस्कुराहट छाती में लगी, उस गोली की तरह लगती है,जो पीठ को पार कर बाहर निकल गई है।

इस तरह के दु: स्वप्नों के कारण वह कभी दो, कभी तीन और कभी चार घंटे से अधिक सो नहीं पाता, जबकि वह पूरे आठ घंटे सोना चाहता है। वह मूर्ख और चालाक दोनों है। वह इस जागने को देश के भविष्य के लिए की जा रही अपनी तपस्या बताता है।

एक दिन हद हो गई। सपने में कुर्सी छत से ठीक  उसके ऊपर आकर गिर गई। उसने उसे बुरी तरह घायल कर दिया। उस दिन तो गले से कराह भी नहीं निकली। ऐसा लगा, वह मर चुका है। वह घबराहट में उठा, तो ठंड में भी पसीने-पसीने था। जाकर वह कुर्सी पर बैठ गया और उसे गले से लगाकर रोने लगा। उससे वादा लेने लगा कि तू मुझसे बेवफाई तो कभी नहीं करेगी? मेरी होकर रहेगी न!

वह चूंकि नॉन-बायोलॉजिकल था, तो उसे संकट की इस घड़ी में मां याद नहीं आई। उसकी पहले भगवान राम में आस्था थी, मगर उन्होंने उसे धोखा दे दिया था। भगवान जगन्नाथ उसे भाषण के दौरान ही याद आते थे। बजरंगबली भी आखिर राम के भक्त ही ठहरे! उनसे भी कोई आशा नहीं थी। आशा का एकमात्र केंद्र कुर्सी थी।

इन दु: स्वप्नों से तंग आकर एक रात उसका मन किया कि झोला लेकर वह वाकई चल दे। आज तक के इस झूठ को सच करके दिखा दे, मगर झोला एक स्वप्न था, कुर्सी सत्य थी और वह ‘सत्य का पुजारी’ था!

*(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर व्यंग्यकार, कहानीकार, कवि और पत्रकार हैं। संपर्क : 98108-92198)*

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