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तेजपाल सिंह ‘तेज’ की दो गीतिकाएं

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एक

वासंती ऋतु हुई शराबी होली में,

खाकर भाँग सुबह इठलायी होली में ।

बटन खोल तहज़ीब नाचती सड़कों पर,

हुआ आचरण धुआँ दीवानी होली में ।

सबके सिर पर राजनीति का रंग चढ़ा,

सियासत ने यूँ धाक जमायी होली में ।

धनवानों की होली बेशक होली है,

भूखों ने पर खाक उड़ायी होली में ।

प्रेमचन्द की धनिया बैठी सिसक रही,

जैसे-तैसे लाज बचायी होली में ।

दो

धनिया ने क्या रंग जमाया होली में,

रँगों का इक गाँव बसाया होली में ।

आँखों से हैं छूट रहे शराबी फव्वारे,

होठों ने उन्माद जगाया होली में ।

फँसती गई देह की मछली मतिमारी,

जुल्फों ने यूँ जाल बिछाया होली में ।

सिर पे रखके पाँव निगोड़ी नाच रही,

इस तौर लाज का ताज गिराया होली में ।

टेसू के रँगों का फागुन हुआ हवा,

कड़वाहट का रँग बरसाया होली में।

तेजपाल सिंह तेज स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों स्वतंत्र लेखन में रत हैं।

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