डॉ. विकास मानव
रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर में थे। एक दिन अनेक भक्तों के बीच उनका प्रवचन चल रहा था, तभी एक व्यक्ति उनके दर्शनों के लिए आया। रामकृष्ण परमहंस उसे ऐसे डाँटने लगे, जैसे उसे वर्षों से जानते हों। कहने लगे-“तू अपनी धर्मपत्नी को पीटकर आया है। जा, पहले अपनी साध्वी पत्नी से क्षमा माँग, फिर यहाँ सत्संग में आना।”
उस व्यक्ति ने अपनी भूल स्वीकार की और क्षमा माँगने लौट गया। उपस्थित लोग आश्चर्यचकित रह गए कि रामकृष्ण परमहंस ने बिना पूछे यह कैसे जान लिया कि उस व्यक्ति ने अपनी स्त्री को पीटा है। उपस्थित जन अपना आश्चर्य रोक न सके, तब परमहंस ने बताया- “मन की सामर्थ्य बहुत अधिक है। वह सेकंड के हजारवें हिस्से में कहीं भी जाकर सब कुछ गुप्त रूप से देख-सुन आता है, यदि हम उसे अपने वश में कर लें।”
गुरु गोरखनाथ से एक कापालिक बहुत चिढ़ा हुआ था। एक दिन आमना-सामना हो गया। कापालिक के हाथ में कुल्हाड़ी थी, उसे ही लेकर वह तेजी से गोरखनाथ को मारने दौड़ा, पर अभी कुल दस कदम ही चला था कि वह जैसे का तैसा खड़ा रह गया। कुल्हाड़ी वाला हाथ ऊपर और दूसरा पेट में लगाकर हाय-हाय चिल्लाने लगा। वह इस स्थिति में भी नहीं था कि इधर-उधर हिल-डुल सके।
शिष्यों ने गोरखनाथ से पूछा- “महाराज! यह कैसे हो गया?” तो उन्होंने बताया- “निगृहीत मन वेताल की तरह शक्तिशाली और आज्ञाकारी होता है। यह तो क्या! ऐसे सैकड़ों कापालिकों को मारणक्रिया के द्वारा एक क्षण में मार गिराया जा सकता है।”
ब्रह्मचारी व्यासदेव ने ‘आत्म विज्ञान’ पुस्तक की भूमिका में बताया है कि उन्हें इस विज्ञान का लाभ कैसे प्राप्त हुआ। उस प्रस्तावना में उन्होंने एक घटना दी है, जो मन की ऐसी ही शक्ति का परिचय देती है।
वे लिखते हैं- “मैं एक साधु के पास गया। मुझे क्षुधा सता रही थी। मैंने कहा- ‘भगवन्! कुछ खाने को हो तो दो। भूख के कारण व्याकुलता बढ़ रही है। ” साधु ने पूछा- “क्या खाएगा? आज तू जो भी, जहाँ की भी वस्तु चाहेगा, हम तुझे खिलाएँगे।”
मुझे उस समय देहली की चाँदनी चौक की जलेबियों की याद आ गई। मैंने वही इच्छा प्रकट कर दी। साधु गुफा के अंदर गए और एक बरतन में कुछ ढक कर ले आए। मैंने देखा बिलकुल गरम जलेबियाँ थीं, स्वाद और बनावट बिलकुल वैसी ही, जैसी देहली में कभी खाई थीं।
गुफा में जाकर देखा, वहाँ एक फूटा बरतन तक न था। मैंने पूछा- ” भगवन् ! ये जलेबियाँ यहाँ कैसे आई?” तो उन्होंने हँसकर कहा- “योगाभ्यास से वश में किए हुए मन में वह शक्ति आ जाती है कि आकाश में भरी हुई शक्ति का ध्यान मात्र एक क्षण में कर लें और उसकी पदार्थगत संरचना में उलट-फेर कर दें।”
एक बार स्वामी विवेकानंद हैदराबाद गए। उन्हें किसी ने एक ब्राह्मण तांत्रिक के बारे में बताया कि वह किसी भी समय कोई भी वस्तु कितनी ही मात्रा में चमत्कारिक ढंग से प्रस्तुत कर सकता है। तांत्रिक का कथन है कि मन में ऐसी शक्ति है कि वह संसार के किसी भी भाग के किसी भी पदार्थ को क्षण भर में आकर्षित करके वहाँ उपस्थित कर सकता है।
स्वामी विवेकानंद ने इस प्रसंग का विवरण देते हुए लिखा है- “मैं स्वयं उस ब्राह्मण से मिलने गया। ब्राह्मण का लड़का बीमार था। जब मैंने उसे यह प्रयोग दिखाने को कहा तो उसने कहा- ‘पहले आप मेरे पुत्र के सिर पर हाथ रखें, जिससे उसका बुखार उतर जाए तो मैं भी आपको वह चमत्कार दिखा सकता हूँ।’ उसे किसी ने बताया था कि महापुरुष स्पर्श करके ही किसी भी बीमार को अच्छा कर सकते हैं। इसलिए उसने मुझसे ऐसा आग्रह किया। मैंने उसकी शर्त मान ली।
“इसके बाद वह एक कंबल ओढ़कर बैठ गया। हमने उसका कंबल अच्छी तरह देखा। उसमें कुछ भी नहीं था। इसके बाद जो भी मेवा, फल उससे माँगा, उसने भीतर से निकालकर दे दिए। ऐसी-ऐसी वस्तुएँ माँगीं, जो उस प्रांत में होती भी नहीं थीं, वे भी इतनी मात्रा में कि हममें से कई के पेट भर जाएँ।
वे वस्तुएँ खाने में वैसी ही स्वादिष्ट भी थीं। एक बार हमारे आग्रह पर उसने गुलाब के ताजे फूल जिन पर ओस की बूँदें पड़ी हुई थीं, इतनी मात्रा में कंबल से निकाल दिए, जितने कंबल में बँध भी नहीं सकते थे। हम सब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए।”
ये घटनाएँ बताती हैं कि मनुष्य का संबंध शरीर की किसी अज्ञात सत्ता से है अवश्य, जो क्षण भर में ही करोड़ों मील दूर की बात जान भी सकती है और कई वस्तुएँ उन सुदूर स्थानों से ला भी सकती है। अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व आदि सिद्धियाँ कपोल कल्पित नहीं, वे सत्य और युक्तियुक्त हैं। विज्ञान भी अब इन संभावनाओं को स्वीकारने लगा है।
कुछ दशक पूर्व अपोलो ११ के अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग और माइकल कोलिन चंद्रतल पर उतरे थे। वहाँ उन्होंने अनेक यंत्रों के साथ लेजर चालित एक यंत्र भी स्थापित किया था। पाठक जानते होंगे कि यह लेजर ही है, जो भारतीय योगशास्त्रों में वर्णित सिद्धियों की संभावना को सत्य प्रमाणित करने लगा है। लेजर इस युग का जीता-जागता तिलस्म है।
इस शक्ति का उपयोग ध्वंसात्मक ही नहीं है, वरन उसका पूर्ण विकास हो जाने पर उससे अनेक प्रकार के मानवोपयोगी और जीवन में काम आने वाले अद्भुत कार्य भी संपन्न किए जा सकेंगे। इन यंत्रों की मदद से विश्व के किसी भी भाग में बैठे किसी भी व्यक्ति की हलचल के बारे में जान पाना संभव हो जाएगा, जैसे कोई योगी किसी दूरस्थ व्यक्ति के बारे में अपने संकल्पबल के द्वारा सब कुछ जान लेता है।
आदि शंकराचार्य ने अपनी माँ को वचन दिया था कि जब वह मरणासन्न होंगी तो अंतिम दर्शनों के लिए वे जरूर आएँगे। मृत्यु के समय उनकी माँ ने उन्हें स्मरण किया, तब शंकराचार्य उत्तर भारत की यात्रा पर थे। उस समय टेलीफोन जैसा कोई यंत्र नहीं था, फिर भी वे उस सूक्ष्म वाणी को पकड़ने में सफल हो गए और घर जाकर माँ से मिले और मृत्यूपरांत उनका अंतिम संस्कार भी किया।
जर्मन विद्वान हेकल की पुस्तक ‘दि रीडल ऑफ यूनिवर्स’ के उत्तर में डॉ० लाज ने लिखा है- “हेकल भी यह मानते हैं कि पदार्थ और शक्ति का अभाव नहीं हो सकता। वे किसी न किसी रूप में बने रहते हैं। इसे उन्होंने यूनिवर्सल लॉ या फंडामेंटल कास्मिक लॉ कहा है। इसी प्रकार प्राण, मन और अहंकार भी अलग-अलग तत्त्व हैं। विज्ञान ने अभी तक इन्हें शक्ति नहीं माना है, पर मेरा सिद्धांत है कि प्राण विश्वव्यापी है और मन उसका उच्चतर विकास। ये सब आकाश में स्थित हैं और पदार्थ की शक्ति का नियंत्रण कर सकते हैं।”
ये बातें यद्यपि बहुत सूक्ष्म स्तर की हैं, तथापि इस बात से संदेहरहित हैं कि इनका प्रयोग किसी भी शक्ति की तरह हो सकता है। भारतीय योगी इस बात के प्रमाण हैं। एक दिन आएगा, जब लोग अनुभव करेंगे कि वस्तुतः मन-मस्तिष्क की सामर्थ्य अत्यधिक है- आज के यंत्रों से भी अधिक। उसके विकास से अनेक चमत्कार दिखाए जा सकते हैं और दूसरों को भी लाभान्वित किया जा सकता है।
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