जनार्दन गोंड
उषाकिरण आत्राम सुप्रसिद्ध आदिवासी कवयित्री हैं। वह पहली पीढ़ी की ऐसी कवयित्री हैं, जो सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में संघर्ष करते हुए साहित्य सृजन करती हैं। उनका सरोकार गोंडवाना साहित्य, समाज और संस्कृति के साथ संपूर्ण आदिवासी समाज की प्रगति से है। उनकी आवाजाही साहित्य की सभी विधाओं में है। वह गद्य और पद्य के साथ संपादन कार्य से भी जुड़ी हुई हैं। मध्य भारत की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘गोंडवाना दर्शन’, और ‘आदिवार्ता’ का संपादन वे ही करती हैं। इसके साथ वह आदिवासी भाषा, साहित्य और संस्कृति के सरंक्षण में भी रत हैं।
आत्राम उन विरल आदिवासी कवयित्रियों में शुमार होती हैं, जो कई भाषाओं-बोलियों, जैसे गोंडी, हिंदी, मराठी और झाड़ी [महाराष्ट्र के गोंदिया, भंडारा, गढ़चिरौली और चंद्रपुर जिलों की स्थानीय बोली] में लिखती-पढ़ती हैं। यही कारण है कि उषाकिरण आत्राम हमारे समय की विशिष्ट रचनाकार हैं। उन्होंने विपुल लेखन किया है। ‘मोटियारिन’, ‘म्होरकी’ और ‘कलम की तलवारें’ काव्य संकलन की पुस्तकें हैं। इसके अलावा ‘गोंडवाना की महान वीरांगनाएं’ (2003) और ‘अहेराचा बदला अहेर’ (नाटक 2021) गद्य की पुस्तकें हैं।
‘कलम की तलवारें’ काव्य संग्रह मराठी और झाड़ी में लिखित पुस्तक ‘लेखणीच्या तलवारी’ का हिंदी अनुवाद है। डॉ. मिलिंद पाटिल ने मराठी और झाड़ी भाषा से अनुवाद किया है। पुस्तक की भूमिका वरिष्ठ हिंदी आलोचक और भाषाविद् प्रोफेसर देवराज ने लिखा है। पुस्तक में तीन प्रकार के मन-मिजाज़ की कविताएं शामिल हैं। पहले भाग में मराठी कविताएं हैं। दूसरे भाग में झाड़ी कविताएं और तीसरे भाग में झाड़ी भावगीत सम्मिलित हैं। किताब में कुल 58 कविताएं संकलित हैं। ‘कलम की तलवारें’ में मध्य भारत – विशेषकर – महाराष्ट्र का स्वर शामिल है। कवयित्री की चिंता सावित्रीबाई फुले और डॉ. आंबेडकर की चिंता जान पड़ती है। इन कविताओं में सर्जनात्मक संविधानवाद की दखल है–
‘मेरी नियति है!’ मत कहो नियति!
अपनी मुट्ठी में होती है नियति!
नियति को कोसते-कोसते
हम लूली-लंगड़ी बना देते जिंदगी
मैं स्कूल जाने लगी
तो भेजे में आया मेरे
स्वयं का दीप स्वयं ही होना है
अपनी नियति के कपड़े पछाड़ने होंगे हमें ही
मां! मैं सावित्री जैसी पढूंगी
बाबा साहेब के समान करूंगी अध्ययन
पूरे के पूरे जंगल के गुफा-बीहड़, कोनों को
झोपडी-झोपड़ी को रौशन करूंगी
दुनिया की नियति बदल दूंगी
मां! मैंने खरीद ली हैं किताबें।
उपर्युक्त पंक्तियों में सावित्रीबाई फुले और बाबा साहेब आंबेडकर के संदेश के साथ ‘किताब’ जैसी ताकतवर चीज भी शामिल है। उषाकिरण आत्राम की इस कविता में किताब की ताकत और समतामूलक समाज को संभव करने वाली शक्ति प्रदान करनेवाली शिक्षा की बात कही गई है– ‘जो पढ़ेगा, वो बढ़ेगा और वही लड़ेगा भी।’ उदाहरण के लिए एक यह कविता भी देखें–
हाथों में बंदूक थामे
लड़नी होगी अपनी लड़ाई हमें ही
अन्यथा अपना खून बहाने का
क्यों हो हमें अधिकार?
हालांकि इस कवितांश में अधिकार के बदले दरकार शब्द अधिक उपयुक्त है, क्योंकि इसके जरिए कवयित्री यह संदेश देती हैं कि यदि हमें संघर्ष करना है तो हम आदिवासी अपने लिए करें। दूसरों (बाहरी ब्राह्मणवादियों) के वास्ते किसी संघर्ष का हिस्सा क्यों बनें। इस प्रकार कवयित्री शिक्षा के साथ मनुष्य के सम्मान और स्वाभिमान का आख्यान गढ़ती हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में आक्रोश का भी स्वर शामिल हुआ है। यथा देखें–
स्वाभिमान को लपेट सर पर
होकर अंधे स्वार्थ में
डूब गए नींद में सत्ताधीश, ओढ़ गैंडे की चमड़ी
‘ओ’ बेहोशी में रहने वालो…मूर्खों!
जाग जाओ! पहरेदार बनो!
इस कविता के माध्यम से कवयित्री राजनीतिक हस्तक्षेप करती हैं। कुछ और कविताएं इसी मन-मिजाज की हैं। लेकिन वह आदिवासी संस्कृति, परंपराओं और ज्ञान को लेकर सचेत रहती हैं। इसलिए आदिम समाज की सांस्कृतिक उपलब्धियों की चोरी न हो, इसे रोकने का आह्वान करती हैं। वैसे भी आदिवासी समाज धरती का रखवाला समाज है। उसके पास धरती की रखवाली करने को प्रेरित करने वाली अनेकानेक लोक कथाएं हैं। यह समुदाय अपने पुरखों से पेड़ और पानी को बचाए रखने वाली कथाओं को न सिर्फ सुनता है, बल्कि हर तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहता है। और यह तो इतिहास में दर्ज है कि साम्राज्यवादी व ब्राह्मणवादी ताकतों की क्रूरता का सामना सबसे अधिक आदिवासी समाज को करना पड़ा।
उदाहरण के लिए ‘इंफाल युद्ध कब्रिस्तान’ का संदर्भ लिया जा सकता है। इंफाल युद्ध कब्रिस्तान में जापानी और ब्रिटिश सैनिकों के साथ लगभग सोलह सौ स्थानीय वाशिंदों, जिनमे सर्वाधिक संख्या आदिवासियों की थी, की कब्रें हैं। इस कब्रिस्तान का वास्ता दूसरे विश्व युद्ध से है। इस युद्ध में इंफाल और मणिपुर के आदिवासी अगर पलायन कर गए होते तो, उनकी जान बच जाती, मगर वे ऐसा नही कर पाए। पुरखों की मिट्टी का गहन प्रेम उन्हें मिट्टी में मिला दिया। इस युद्ध में लगभग सोलह सौ लोग मारे गए। उनकी समाधियां आज भी गवाही दे रही हैं।
उषाकिरण आत्राम इतिहास में दफन सच्चाइयों को न सिर्फ उजागर करती हैं, बल्कि उनके पुनर्पाठ के लिए जमीन भी तैयार करती हैं। इतिहास बोध की ये कविताएं विलुप्त संस्कृति को दोबारा रेखांकित करने का कार्य करती हैं। देखें उनकी यह कविता–
मेरा गोंडवाना
था महान
लूट लिया दुश्मनों ने
मिला दिया मिट्टी में
मेरे गोंडवाना की गोंडी/झाड़ी [बोली वाले इलाके में]
लकड़ी सोने की देख
हुए अचंभित दुश्मन
[और लूट लिया]
मेरे गोंडवाना का भरा खजाना
सही इतिहास लिखने वाला
नहीं रहा यहां।
कहना अतिरेक नहीं कि गोंडवाना की भूमि प्राचीन भारतीय इतिहास की थाती रही है। इस समुदाय के शासकों ने समाज, संस्कृति एवं जल-प्रबंधन के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। मसलन, गिन्नौरगढ़ के गोंड राजा सूरज सिंह के बेटे भूपालशाह से रानी कमलावती का विवाह हुआ था। इसी वंश के राजाओं ने भोपाल में महलों और झीलों का निर्माण कराकर, उसे नगरीय रूप दिया। उन्हीं के निर्माण कार्यों से एक मामूली गांव धीरे-धीरे शहर में तब्दील होता गया और शहर भूपाल (जो बाद में भोपाल के नाम से मशहूर हुआ) निर्मित हुआ। चूंकि गोंड शासक बाद में सत्ता बनाए रखने में कामयाब नही रह पाए, इसलिए एक साजिश के तहत दूसरी सत्ताओं ने उन्हें सत्ता ही नहीं, इतिहास से भी बाहर कर दिया। मगर आज भी जमीन पर और लोकमानस में गोंडवाना वंश की स्मृतियां शेष हैं। उषाकिरण आत्राम जमीन पर खड़े जर्जर इतिहास और लोकस्मृतियों को अपनी कविता का विषय बनाती हैं। यही कारण है कि संकलन इतिहास बोध से परिपूर्ण है।
उनकी कविताओं का सबसे मजबूत पक्ष उनका जनपक्षीय होना है। उनकी कविताएं लोक शिल्प की कविता हैं, जिनसे काव्य शिल्प व सौंदर्य का विस्तार और परिमार्जन दोनों हुआ है। इन लोक कविताओं में पूरे समाज की भाषा-भंगिमा और उसकी जन-संस्कृति बोलती है। वह स्वयं जिस समाज से आती हैं, वह सांस्कृतिक रूप से संपन्न समाज है। उनका गोंड समाज अपने इतिहास, भाषा और संस्कृति के लिए अनवरत संघर्ष करता रहा है।
उषाकिरण आत्राम के इस काव्य संकलन से गुजरते हुए कई लोक शब्दों की संपदा समृद्ध होती है। कई शब्द जेहन का हिस्सा बनते हैं, जैसे – डाला (बड़ी टोकरी), शिब्ल (छोटी टोकरी), उभारी (बैलगाड़ी खड़ा करने के लिए लकड़ी) और हुड़की (छोटी पहाड़ी) आदि।
‘कलम की तलवारें’ काव्य संग्रह में लोक और इतिहास के साथ समकालीन मुद्दों पर आधारित कविताएं भी शामिल हैं। इस संग्रह में आदिवासी समाज के शोषण के प्रति आक्रोश समाहित है। जंगल-जमीन की जो लूट हो रही है, उसे कवयित्री ने पूरी गंभीरता से दर्ज़ किया है। उदाहरण के लिए इन पंक्तियों को देखा जा सकता है–
आदिवासियों को तो कभी का मार दिया
अब लाश का शृंगार करके आंसू बहाने का
नाटक करके – लाखों की योजनाओं के
चंदे पर मारते डल्ली, फसल पर ज्यों लश्करी इल्ली
जैसे चाट डाला हो दीमक ने भंडार
इधर से उधर तक कर दिया खोखला आदिवासियों को।
यह पंक्तियां आज आदिवासियों के समक्ष संकट से जुड़ती हैं। आदिवासी समुदाय का शोषण पूरी दुनिया में हो रहा है। सबसे आदिम समुदाय अंतहीन पीड़ा और वंचना से गुजर रहा है। दुनिया के कई हिस्सों से पूरा का पूरा आदिवासी समुदाय पलायन और असमय मौत का सामना करने को विवश है। पलायन, शोषण और दहशत की अनंत गाथाओं और घटनाओं से गुजरता हुआ आदिवासी समुदाय सबसे अधिक जोखिम का सामना करने को मजबूर है।
इस संदर्भ में अनेक घटनाएं याद आती हैं। आगे बढ़ने के पहले दक्षिण अफ्रीका की एक छोटी-सी नदी ‘लीजबीक’ का उदाहरण लेते हैं। इस नदी को बचाने के लिए वहां का स्थानीय आदिवासी समुदाय और दुनिया की सबसे बड़ी तिज़ारती कंपनी ‘अमेज़न’ आमने-सामने आ गई हैं। यह घटना हसदेव जंगल के कटान से मिलती-जुलती है, इसलिए इसे देखना जरूरी जान पड़ता है। ‘लीजबीक’ दक्षिण अफ्रीका की सबसे छोटी नदी है, जो टेबल माउंटेन से बहती है। यह नदी सिर्फ 9 किलोमीटर लंबी है। नदी सदानीरा है। डच और ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन ने चार सौ साल पहले यहां के मूलनिवासियों की जमीनें छीन ली थीं। इस नदी के किनारे के आदिवासियों की जमीनें भी छिनी गईं। अब वहां के आदिवासी अपनी जमीन वापसी की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह लड़ाई व्यापक रूप लेती जा रही है। ‘अमेज़न’ कंपनी ‘लीजबीक’ नदी के किनारे की जमीन का उपयोग अपने व्यवसायिक हित के लिए करने पर अमादा है। जिस तरह से अफ्रीका के मूलनिवासी अपनी जमीन और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए इतिहास में हुई गड़बड़ी को उजागर कर रहे हैं, उसी तरह उषाकिरण आत्राम भी आदिवासियों के हिस्से के इतिहास पर दावा करती हैं।
समीक्षित काव्य संग्रह : कलम की तलवारें
कवयित्री : उषाकिरण आत्राम
अनुवादक : मिलिंद पाटिल
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, हल्द्वानी (उत्तराखंड)
मूल्य : 250 रुपए