विवेकानंद जयंती पर
— सुसंस्कृति परिहार
आज भारत देश के पुनरुत्थान के लिए हमें विवेकानंद को भली-भांति समझने की ज़रूरत है। पहली बात तो हमें ये बात सिरे से ख़ारिज करनी होगी है कि वे कोई साधु ,महात्मा या संत थे और ना ही कोई योगाचार्य। वे भारतीय समाज की नस नस से वाक़िफ थे और जो खामियां थीं उनको साफ़ साफ़ कह देने में उन्होंने संकोच नहीं किया तथा ऐसे पक्षों पर उनने खुलकर ना केवल सवाल किए बल्कि उनके समाधान की भरसक चेष्टा अपने अल्प जीवन में करते रहे।
खासकर, शिकागो में दिए गए उनके भाषण ने दुनिया के तमाम धर्माचार्यों को भौंचक कर दिया। कुछ उनके मुरीद भी हो गये। इसका आशय यह नहीं कि वे हिंदू धर्म के प्रचारक थे। उन्हें दुनिया से असीम प्रेम था और अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्यार भी था। उन्होंने दुनिया के हर पीड़ित को बिना धर्म, जाति पूछे गले लगाया था। इसी वैविध्य और एकता ने तो भारत को महिमा और गरिमा प्रदान की थी। रामकृष्ण परमहंस के शिष्यत्व में उनका जो तेज था वह देदीप्यमान हुआ। आइए उनके विचारों को समझने की कोशिश करते हैं। वे कहते थे नास्तिक वह नहीं है जिसका ईश्वर पर विश्वास नहीं बल्कि वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है। यह प्रेरणा उन्हें मार्क्सवाद से मिली क्योंकि मार्क्सवाद भी बेसहारा, गरीब ,मेहनतकश वर्ग को, अपने पर विश्वास करने की प्रेरणा देता है। विवेकानंद ने तो यहां तक कहा था कि जब तक इस संसार में झोपड़ी में रहने वाला हर आदमी सुखी नहीं होता यह संसार कैसे सुखी हो सकता है। श्री कृष्ण ने गीता में भी तो यही बताया है कि मनुष्य को लोभवश परिग्रह नहीं करना चाहिए और किसी मनुष्य को अपनी आवश्यकता से
अधिक कुछ नहीं रखना चाहिए। यह आवश्यकता से अधिक रखने की लालसा जो हमें नज़र आती है वह कृष्ण के बताए गए अपरिग्रह मार्ग का अनुसरण ना करना ही है। यही शोषण है,इसकी पुष्टि वर्तमान में मार्क्सवाद भी करता है।यही तो गीता का धर्म है।
वहीं गांधी के अनुयायी संविधान शास्त्री प्रोफेसर संपूर्णानंद ने भी धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था- सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य का नाम धर्म है। हिंदू धर्म की दुहाई देने वाले इसे कितना समझते हैं ,कितना आचरण में उतारते हैं यह विचार करना चाहिए। इसे यदि आचरण में हमने उतारा होता तो शायद आज शोषण विहीन व्यवस्था का यह आलम नहीं होता। फिर विवेकानंद तो सारी दुनियां की खुशहाली की बात करते हैं। वसुधैव कुटुंबकम् का प्रचार करते हैं।भारत सहित विश्व को धार्मिक अज्ञानता,गरीबी , अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वे1893 में विश्वधर्म सम्मेलन में वे शामिल हुए थे। जहां उन्होंने सार्वजनिक सत्य का बोध कराने वाले विचार रखे थे सार यह था ईश्वर एक है तथा मानवजाति भी एक है।जिसने विभिन्न धर्मावलंबी संसद को हिला के रख दिया। उनके धर्म ने इंसानियत को महत्व दिया था ना कि किसी एक धर्म की अहमियत बताई थी।
विवेकानंद ने कथित हिंदू धर्म में जड़ता और कूपमंडूकता के अंधेरे पर चोट की। उनका मानना था कि प्रचलित धार्मिक रिवाजों का मूल हिंदू धर्म के किसी प्रमाणिक ग्रंथ में दिखाई नहीं देता। उनका मानना था कि सामाजिक अत्याचार और पुरोहितवाद का खात्मा होना ही चाहिए। सभी के लिए समान अवसरों की स्वतंत्रता मिलना चाहिए।
विवेकानंद ने अनेक बार समाजवाद की पैरवी की है। वे इकलौते ऐसे कथित संत और विद्वान हैं, जिन्होंने समाजवाद की बात ही नहीं की बल्कि अपने हिसाब से उसके पक्ष में तर्क भी प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि समाज में दो ही वर्ग है। अमीर और गरीब। गरीब और गरीब हो रहे हैं, अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं। उनके मत में भारत के लिए एकमात्र आशा गरीब जनता से ही है। ऊंचे वर्गों के लोग तो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से मृत हैं । विवेकानंद मानते थे कि नए भारत की संस्कृति सर्वहारा संस्कृति होगी। मैं हैरत में हूं पहला शूद्र राज्य कहां स्थापित होगा। मेरा पक्का विश्वास है कि वह रूस या चीन में होगा। इन दोनों देशों में बहुत बड़ी संख्या में इस्लामी देह में वेदांती मस्तिष्क है। हालांकि रूस और चीन अपने विचारों से भटक चुका है।अपने भाषणों में वे हमेशा कहते थे, सभी धर्म सच्चे हैं। सभी धर्मों में कमियां और त्रुटियां हैं। सभी धर्म मुझे उतने ही प्रिय है, जितना हिंदू धर्म। मेरे मन में सभी के लिए एक समान श्रद्धा है। इसी विश्वास के आधार पर विवेकानंद ने वह मशहूर टिप्पणी की थी कि, धर्म को खतरा किसी दूसरे धर्म से नहीं है। धर्म को असली खतरा उसके एजेंटों से ही है। धर्म के ये एजेंट ही हैं जो धर्म की मनमानी व्याख्या करते हैं। कला एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के वे प्रबल समर्थक थे। विवेकानंद के अनुसार ”लोकतंत्र में पूजा जनता की होनी चाहिए। क्योंकि दुनिया में जितने भी पशु−पक्षी तथा मानव हैं वे सभी परमात्मा के अंश हैं।” विवेकानंद ने अमेरिका भ्रमण में पाया कि बिजली के आगमन से अमेरिकियों के जीवन स्तर में आधुनिक बदलाव आया है। स्वामी जी ने अपने छोटे भाई महेन्द्रनाथ दत्त को संन्यास की दीक्षा नहीं दी तथा विद्युत शक्ति का अध्ययन करने के लिए उन्हें तैयार किया। उन्होंने कहा कि देश को विद्युत इंजीनियरों की ज्यादा आवश्यकता है, अपेक्षाकृत संन्यासियों के। धर्म और विज्ञान के अद्भुत समन्वयी के रुप में भी वे याद किए जाते हैं । आज विवेकानंद बहुत प्रासंगिक हैं क्योंकि आज दुनिया में धर्म को परस्पर लड़ाने वाले राजनैतिज्ञों का बोलबाला है ।तब धर्मान्धता , अंधविश्वास से लड़ने के साथ साथ हमें मानवता को बचाने कटिबद्ध होना होगा।यही विवेकानंद की सीख है ।स्वामी जी ने युवाओं को जीवन का उच्चतम सफलता का अचूक मंत्र इस विचार के रूप में दिया था− ”उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।” युवाओं की जाग की आज हमें बड़ी ज़रूरत है।युवा ही हैं, जो भारत को उनके मनोनुकूल बनाने की सामर्थ्य रखते हैं।
भारत में सूर्य को सुबह सुबह जल का अर्घ सदियों से देने का रिवाज़ है।सूर्य नमस्कार वहीं से उपजा है ज़रुरी यह है कि इसको करते वक्त विवेकानंद के विचारों को आत्मसात करने की कोशिश हो।सिर्फ सूर्य नमस्कार कर। रिकार्ड बनाना उचित नहीं है।
कुल मिलाकर विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता और विज्ञान के समन्वय की जो चेष्टा की है वह अद्वितीय है।उससे देश को सुदृढ़ बनाया जा सकता
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