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हम किस आज़ादी पर गर्व करें और जश्न मनाएं?

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अनिल जैन

देश के विभिन्न भागों में सत्ता-प्रेरित सांप्रदायिक और जातीय नफरत से बनते गृहयुद्ध के हालात, शक्तिशाली पड़ोसी देश द्वारा देश की सीमाओं का अतिक्रमण और उस पर हमारी चुप्पी, अर्थव्यवस्था का आधार मानी जाने वाली खेती-किसानी पर मंडराता गंभीर संकट, ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था, अभूतपूर्व महंगाई-बेरोजगारी, राष्ट्रीय संसाधनों और सार्वजनिक सेवाओं का तेजी से निजीकरण, नित-नया उजागर हो रहा सत्ता-संरक्षित भ्रष्टाचार, तमाम संवैधानिक संस्थाओं का सत्ता के आगे समर्पण और चारों तरफ लहलहाती अपराधों की फसल के बीच अपनी आज़ादी की 78 वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है या क्या होनी चाहिए? 

क्या हमारे वे तमाम मूल्य और प्रेरणाएं सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर आज़ादी की लंबी लड़ाई लड़ी गई थी और जो आजादी के बाद हमारे संविधान का मूल आधार बनी? क्या आज़ादी हासिल होने और संविधान लागू होने के बाद हमारे व्यवस्था तंत्र और देश के आम आदमी के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है, जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आज़ादी हासिल करने और फिर संविधान की रचना के पीछे मूल भावना तो यही थी।

भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं, उनमें भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वह बिल्कुल महात्मा गांधी के सपनों और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित हुए राष्ट्रीय जीवन मूल्यों का दिग्दर्शन कराता है। लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर कल्पित तथा मौजूदा साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जो कुछ नीति-निर्देशक तत्व में है, राज्य का आचरण कई मायनों में उसके विपरीत है। मसलन, प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह करना था जिससे स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहता और किसी का एकाधिकार न होता तथा गांवों को धीरे-धीरे स्वावलंबन की ओर अग्रसर किया जाता। 

लेकिन हम अपनी आज़ादी की 78वीं सालगिरह मनाते हुए देख सकते हैं कि जल, जंगल, जमीन, आदि तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म हो गया है और सत्ता में बैठे राज नेताओं और नौकरशाहों से साठ-गांठ कर चंद औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं…..और यह सब राज्य यानी सरकारों की जनद्रोही नीतियों के कारण हो रहा है। 

यही नहीं, अब तो देश की जनता की खून-पसीने की कमाई से खड़ी की गईं और मुनाफा कमा रही तमाम बड़ी सरकारी कंपनियां देश के बड़े औद्योगिक घरानों को औने-पौने दामों में बेची जा रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में सर्वाधिक रोजगार देने वाली भारतीय रेल का भी तेजी से निजीकरण हो रहा है। राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्याएं कम की जा चुकी हैं और जो अभी अस्तित्व में हैं, सरकार का इरादा उन्हें भी निजी हाथों में सौंपने का है। 

भारत सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि आर्थिक मामलों के तमाम वैश्विक अध्ययन संस्थान भारत की अर्थव्यवस्था का शोक गीत गा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी ने तमाम आंकड़ों के आधार पर बताया है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 193 देशों में 109वें स्थान पर है। 

मानव विकास रिपोर्ट में भारत का स्थान 193 देशों में 134वां है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियों के मुताबिक ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 125 देशों में भारत 111 वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में भारत की स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है और ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वह 143 देशों में 126 वें स्थान पर है। 

कुछ समय पहले जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। पासपोर्ट रैंकिंग में भी भारत 84वें स्थान से फिसल कर 90वें स्थान पर पहुंच गया है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है। 

वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की रैंकिंग साल दर साल नीचे आ रही है। 

हालांकि भारत सरकार ऐसी रिपोर्टों को तुरंत खारिज कर देती है और सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन चुका मीडिया भी इस मामले में सरकार के सुर में सुर मिलाता है, जबकि यह रेटिंग हमारे यहां होने वाले चुनावी सर्वेक्षण या एग्जिट पोल की तर्ज पर नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित होती है।

बेशक हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि आजाद भारत का पहला बजट 193 करोड़ रुपए का था और अब हमारा 2024-25 का बजट करीब 47.66 लाख करोड़ रुपए का है। यह एक देश के तौर पर हमारी असाधारण उपलब्धि है। इसी प्रकार और भी कई उपलब्धियों की गुलाबी और चमचमाती तस्वीरें हम दिखा सकते हैं। 

लेकिन जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि आजाद भारत का हमारा लक्ष्य क्या था तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे स्याह अंधेरा नजर आता है। देश की 80 फीसद आबादी को मिल रहा तथाकथित मुफ्त राशन, इस स्थिति पर गर्व करती सत्ता और इसके बावजूद भूख से मरते लोग, भयावह भ्रष्टाचार, पानी को तरसते खेत, काम की तलाश करते करोड़ों हाथ, देश के विभिन्न इलाकों में सामाजिक टकराव के चलते गृहयुद्ध जैसे बनते हालात, बेकाबू कानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध, चुनावी धांधली, विभिन्न राज्यों में आए दिन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त के जरिए जनादेश का अपहरण, निर्वाचन आयोग का सत्ता के इशारे पर काम करना, न्याय पालिका के जनविरोधी फैसले और सत्ता की पैरोकारी, सत्ता से असहमति का निर्ममतापूर्वक दमन आदि बातें हमारी आज़ादी को और हमारे गणतंत्र की मजबूती व कामयाबी के दावे को मुंह चिढ़ाती हैं। 

सवाल है कि क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि हम एक असफल राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहे हैं। समस्या और भी कई सारी हैं जो हमें इस सवाल पर सोचने पर मजबूर करती हैं। दरअसल, भारत की वास्तविक आजादी बड़े शहरों तक और उसमें भी सिर्फ उन खाए-अघाए तबकों तक ही सिमट कर रह गई है जिनके पास कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है। इसीलिए शहरों का गांवों से नाता टूट गया है। 

हालांकि इस कमी को दूर करने के लिए कोई तीन दशक पहले पंचायती राज प्रणाली लागू की गई, मगर सवाल है कि ग्रामीण इलाकों में निवेश नहीं बढ़ने से पंचायतें भी गांवों को कितना खुशहाल बना सकती हैं? इन्हीं सब कारणों के चलते के हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गांव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अति परावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए। गांव के लोगों को सामान्य जीवनयापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है। 

खेती की जमीन पर सीमेंट के जंगल लहलहा रहे हैं, जिसकी वजह से गांवों का क्षेत्रफल कितनी तेजी से सिकुड़ रहा है, इसका प्रमाण है 2011 की जनगणना। इसमें पहली बार गांवों की तुलना में शहरों की आबादी बढ़ने की गति अब तक की जनगणनाओं में सबसे ज्यादा रही। शहरों की आबादी 2001 की 27.81 फीसदी से बढ़कर 2011 की जनगणना के मुताबिक 31.16 फीसदी हो गई जबकि गांवों की आबादी 72.19 फीसदी से घटकर 68.84 फीसदी हो गई। अब 2021 में स्थगित हुई जनगणना जब भी होगी तो उसमें यह अंतर और भी ज्यादा बढ़कर सामने आना तय है। 

इस प्रकार गांवों की कब्रगाह पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संविधान की मूल भावना के एकदम विपरीत है। हमारा संविधान कहीं भी देहाती आबादी को खत्म करने की बात नहीं करता, पर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के इशारे पर बनने वाली हमारी आर्थिक नीतियां वही भूमिका निभा रही हैं और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाईं लगातार गहरी होती जा रही है। 

दरअसल, भारत की आज़ादी और भारतीय गणतंत्र की मुकम्मल कामयाबी की एक मात्र शर्त यही है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले क्षेत्रों और तबकों की अस्मिताओं और संवेदनाओं की कद्र की जाए। 

आखिर जो तबके हर तरह से वंचित होने के बाद भी शेषनाग की तरह भारत को अपनी पीठ पर टिकाए हुए हैं, उनकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या हमारी आज़ादी मुकम्मल हो सकती है और क्या हमारा गणतंत्र मजबूत हो सकता है? जो समाज स्थायी तौर पर विभाजित, निराश और नाराज हो, वह कैसे एक सफल राष्ट्र बन सकता है? 

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की विशेषता यही थी कि उसमें सिर्फ विदेशी शासन की समाप्ति को आजादी नहीं समझा गया। बल्कि 90 साल चले स्वतंत्रता संग्राम में क्रमिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन की एक विचारधारा विकसित हुई। इस विचारधारा का आधार यह समझ थी कि ब्रिटिश राज भारत के संसाधनों का दोहन कर रहा है, जिससे भारतवासी गरीब हो रहे हैं। 

दादाभाई नौरोजी के मशहूर ड्रेन ऑफ वेल्थ संबंधी शोध ने सबसे पहले इस हकीकत से भारतवासियों का परिचय कराया। जैसे-जैसे इस समझ का प्रसार हुआ, यह धारणा मजबूत होती चली गई कि ब्रिटिश राज से मुक्ति हर भारतवासी के हित में है। इसके साथ ही इस सपने या कल्पना पर चर्चा शुरू हुई कि आजादी के बाद का भारत कैसा होगा। संघर्ष और समन्वय की लंबी प्रक्रिया के बीच सभी विचारों और संस्कृतियों के लिए खुलापन, लोकतंत्र, आधुनिक विकास नीति, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय इस सपने का हिस्सा बनते चले गए। इन सभी उसूलों को हमारे संविधान में जगह मिली। संविधान में व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों और आज़ादियों का विस्तार से वर्णन किया गया।

लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि प्रतिकूल आर्थिक और सामाजिक स्थितियों के कारण भारतीय आबादी की बहुसंख्या के लिए ये स्वतंत्रताएं सिर्फ किताबी बातें रही हैं। इस परिस्थिति के बीच यह आश्चर्यजनक नहीं है कि स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य आज खतरे में पड़े दिखते हैं। भारत में प्राचीन ग्रीस के दार्शनिक प्लेटो की यह समझ साकार होती नजर आ रही है कि लोकतंत्र धीरे-धीरे एक कुलीनतंत्र में बदल जाता है, क्योंकि समाज के प्रभुत्वशाली तबके अपने धन-बल का इस्तेमाल कर व्यवस्था को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लेते हैं। 

अगर लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक ना रहें- अगर बहुसंख्यक लोग लोकतंत्र की रक्षा में अपना हित समझने में विफल रहते हों- तो यह परिणति अवश्य ही होती है। आज जबकि हम अपनी आजादी की तीन चौथाई सदी पार कर चुके हैं, इन प्रश्नों पर आत्म-मंथन ज़रूर किया जाना चाहिए। आखिर लोकतंत्र के बिना किसी आज़ादी की कल्पना नहीं हो सकती। तो हमारी स्वतंत्रता किस तरह लोकतंत्र की भावना से परिपूर्ण हो- इस पर विचार करना ही आज के दिन की शायद सबसे महत्त्वपूर्ण सार्थकता होगी।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से साभार

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