डॉ. सिद्धार्थ
सपा सांसद आरके चौधरी ने राजशाही (सामंतवाद) के प्रतीक सेंगोल को संसद से हटाने और उसकी जगह संविधान की कॉपी रखने की मांग की। उन्होंने संसद में शपथ लेने के बाद प्रो-टेम स्पीकर को चिट्ठी लिखी थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि सेंगोल राजाओं-महाराजाओं का प्रतीक है, इसलिए उसे संसद से हटाया जाना चाहिए। उन्होंने संविधान के नाम पर शपथ लेने के बाद अपनी चिट्टी में लिखा, “सदन में पीठ के ठीक दाहिने सेंगोल देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। महोदय हमारा संविधान भारतीय लोकतंत्र का एक पवित्र ग्रंथ है। जबकि सेंगोल अर्थात राजदंड राजतंत्र का प्रतीक है। हमारी संसद लोकतंत्र का मंदिर है किसी राजे-रजवाड़े का महल नहीं। अत: मैं आग्रह करना चाहूंगा कि संसद भवन से सेंगोल हटाकर उसकी जगह भारती संविधान की विशालकाय प्रति स्थापित की जाए।”
भारत में सिर्फ मोदी राजशाही के प्रतीकों को नहीं स्थापित कर रहे हैं, दुनिया भर के फासीवादियों ने भी यही किया। इटली के फासीवादी शासक मुसोलिनी ने प्राचीन रोम राजशाही के प्रतीक लकड़ियों के गठ्ठर और कुल्हाड़ी को राष्ट्रीय प्रतीक बनाया था। फासीवाद अपने देश के राजशाही से अपने गहरा नाता जोड़ता है और उसका गौरवगान करता है।
यहां यह रेखांकित कर लेना जरूरी है कि आर. के .चौधरी इस बार सपा से सांसद जरूर हुए हैं, लेकिन वे सपा के वैचारिक स्कूल के नहीं हैं। वे बसपा ( 1984) के संस्थापक सदस्य रहे हैं। वह 1977-78 में ही कांशीराम के साथ जुड़ गए थे। वे कांशीराम के नेतृत्व में वामसेफ के संस्थापक सदस्य भी रहे, बाद में 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DSSSS, या DS4) कांशीराम के साथ मिलकर बनाया।
चौधरी उसके भी संस्थापक सदस्यों में रहे। उन्होंने वामसेफ, डीएस-4 और बसपा की राजनीति उस दौर में शुरू की जब बसपा ब्राह्मणवाद और वर्ण-जाति व्यवस्था को समझौता विहीन तरीके से चुनौती दे रही थी। वह एक पक्के आंबेडकरवादी व्यक्ति रहे हैं। वे चार बार विधायक रहे हैं। वे उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हैं। बसपा के मायावती के कब्जे में आने के बाद उन्हें वहां से निकाला गया। वे फिर एक बार बसपा में शामिल हुए। फिर बसपा छोड़ दिए। वे दलितों में पासी समाज से हैं। इस बार उन्होंने मोहनलाल गंज से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और सांसद बने।
आर. के. चौधरी क्या किसी भी सच्चे आंबेडकरवादी और लोकतांत्रिक व्यक्ति के मन में संसद में सेंगोल देखकर तन-बदन में आग लग सकती है। क्योंकि सेंगोल राजदंड के रूप में न केवल राजतंत्र बल्कि ब्राह्मणवाद का प्रतीक है। यह सेंगोल वर्णाश्रम धर्मी-ब्राह्मणवादी चोल वंश का राजदंड था। जिसे तमिलनाडु के अधीनम मठ के मठाधीशों ने नेहरू को सौंपा था। नेहरू ने उसे म्यूजियम में रखवा दिया था। ठीक ही किया था, ऐसी चीजों को म्यूजियम में ही रखा जाना चाहिए। संसद भवन में उनके लिए कोई जगह नहीं होना चाहिए। सोने के इस सिंगोल का मेहनतकशों-श्रमिकों और किसानों के लूट से बना है और राजशाही की लूट का प्रतीक है।
इसके बारे में नेहरू को आगाह करते हुए ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ के संस्थापक और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री सी. एन. अन्नादुरई ने अपने साप्ताहिक पत्रिका ‘द्रविड़ नाडु’ में 24 अगस्त 1947 को ‘सेंगोल’ शीर्षक से एक लेख लिखा। उन्होंने नेहरू को लिखा, “यह किसी भक्त द्वारा भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए भक्तिभाव से भजन गाते हुए अर्पित किया हुआ राजदंड नहीं है। अधीनम मठ का उपहार लोगों का श्रम निचोड़ कर गढ़ा गया है। जो सोना इसके निर्माण में लगा है, उसका भुगतान करने वालों को इस बात की परवाह नहीं है कि यहां ऐसे गरीब लोग भी हैं जो दिन-रात भूखे रहते हैं।
वे लोग दूसरों के धन का दुरुपयोग करते हैं, किसानों के पेट में लात मारते हैं, श्रमिकों को कम से कम वेतन देकर उन्हें कर्ज के जाल में फंसा लेते हैं, और इस तरह से शोषण करके अपने लाभ को कई गुना बढ़ा लेते हैं। और अपने कुकर्मों को, अपने पापों को छिपाने के लिए, और ईश्वर को धोखा देने के लिए उसे यह सोना चढ़ाते हैं। हमारे भविष्य के शासक अगर लोगों के तन-मन का शोषण करने के आदती लोगों से ऐसे राजदंड स्वीकार करने लगें तो यह शुभ संकेत नहीं होगा।”
द्रविड आंदोलन के अगुवा अन्नादुराई का यह कहना पूरी तरह सटीक है कि भारतीय लोकतंत्र में सेंगोल की लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। आरएसएस-भाजपा ने कभी भी भारतीय संविधान और लोकतंत्र को स्वीकार नहीं किया। वे अतीत के नाम पर राजशाही और ब्राह्मणवाद-सामंतवाद की पुनर्स्थापना के पैरोकार हैं। संसद में सेंगोल की स्थापना भी इसी का एक प्रतीक था। जिसका बड़े पैमाने इसकी स्थापना के समय भी दलित-बहुजनों और लोकतांत्रिक विचारों के लोगों ने विरोध किया था। सेंगोल की स्थापना के बहाने पंडे-पुरोहितों के बड़े पैमाने पर संसद में प्रवेश दिलाया गया।
आर. के. चौधरी द्वारा सेंगोल के विरोध में चिट्ठी लिखने और उसे हटाकर संविधान की प्रतिमा लगाने की बात करने के बाद जो लोग सेंगोल के समर्थन में सबसे मुखर तरीके से आकर खड़े हुए, वे कोई और नहीं बल्कि खुद को दलित-बहुजन की राजनीति करने वालों ने किया। इसमें सबसे मुखर आवाज चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और अनुप्रिया पटेल की थी। लगा कि जैसे तीनों में कौन कितना ज्यादा सेंगोल और मोदी का पैरोकार है, इसके लिए होड़ लगी हो।
चिराग पासवान ने सेंगोल को उचित सम्मान न देने के लिए कांग्रेस पर हमला बोला। उन्होंने सेंगोल के प्रतीक की महानता बताते हुए कहा कि, कहा, “ जिस तरह से इतने दशकों तक ऐसे प्रतीकों को गलत रोशनी में दिखाने की कोशिश की गई, आज जब उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जी ने उचित सम्मान दिया है, तो आपको इन सब बातों से क्यों तकलीफ होती है?”
उन्होंने यह भी कहा, “ऐसे में जब आप इन प्रतीकों का अपमान करने की सोच रखते हैं तो कहीं ना कहीं उन भावनाओं को भी आप ठेस पहुंचाते हैं। जिन्होंने देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान देने का काम किया।”
मोदी की पैरोकारी सटीक रूप में कहें तो चापलूसी में चिराग बाजी न मार ले जाएं, जीतनराम मांझी सेंगोल और मोदी के समर्थन में कूद पड़े। उन्होंने तर्क-वितर्क के चक्कर में पड़ने की जगह दो टूक कहा, “…पीएम मोदी ने जो किया है सही किया है। इसे (सेंगोल) रहना चाहिए..” जीतनराम मांझी का सहारा लेकर जयंत चौधरी ने कहा, “इन बातों का कोई अर्थ नहीं है।”
अनुप्रिया पटेल भी मोदी की पैरोकारी का यह मौका नहीं खोना चाहती थीं, उन्होंने कहा, “सेंगोल की स्थापना हुई, तब भी समाजवादी पार्टी सदन में थी, उस समय उसके सांसद क्या कर रहे थे?”
अखिलेश यादव ने भी सेंगोल या अपने पार्टी के सांसद के पक्ष में खड़े होने या उन्हें खारिज करने की जगह गोल-मटोल प्रतिक्रिया दी। उन्होंने संसद में संविधान की विशालकाय प्रति लगाने की बात का तो समर्थन किया लेकिन सेंगोल पर टाल-मटोल करने वाला जवाब दिया। उन्होंने कहा, “हमारे सांसद आर.के. चौधरी ने ऐसा इसलिए कहा होगा क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब शपथ लेने गए थे तो प्रणाम नहीं किया था। इसलिए चौधरी को यह भावना आई कि सेंगोल को संसद से हटाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार को संसद में भारतीय संविधान की विशालकाय प्रति लगाने में क्या दिक्कत है।”
अखिलेश का यह जवाब उनके मुलायम सिंह मार्का लोहियावादी वैचारिकी को ही प्रकट करता है। अखिलेश यादव के लिए आंबेडकर- कांशीराम की बहुजन वैचारिकी से आने वाले दलित-पिछड़ों की वैचारिकी दिक्कत पैदा करने वाली है। इसका एक प्रमाण आर. के. चौधरी की सेंगोल पर चिट्ठी भी है। अखिलेश यादव को दलितों का वोट और आंबेडकरवादी नेता चाहिए। लेकिन वे और उनकी पार्टी आंबेडकरवाद और दलित वैचारिकी पर खड़े होने की फिलहाल न तो स्थिति में हैं, न उनके पास इसकी वैचारिक विरासत है।
इस विवाद में बसपा सुप्रीमों मायावती भी कूदीं। उन्होंने भी ब्राह्मणवादी राजशाही के प्रतीक सेंगोल पर कोई पोजीशन नहीं लिया। मायावती ने शुक्रवार को सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर कहा कि सेंगोल को संसद में लगाना या नहीं लगाना, इस पर बोलने के साथ-साथ सपा के लिए यह बेहतर होता कि यह पार्टी देश के कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों के हितों में तथा आम जनहित के मुद्दों को भी लेकर केंद्र सरकार को घेरती।”
सेंगोल पर मायावती जी ने भाजपा को निशाने पर लेने की जगह सपा को निशाने पर लिया। वे अपनी बुरी तरह हार के बाद कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। भाजपा की हिंदुत्वादी-ब्राह्मणवादी वैचारिकी को किसी भी तरह से कटघरे में खड़ा करने के बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही हैं। आंबेडकरवादी वैचारिकी से उलटी दिशा में जा रही हैं।
सेंगोल पर आर. के.चौधरी को इंडिया गठबंधन के कई दलों का समर्थन प्राप्त हुआ। कांग्रेस के एमपी मणिकम टैगोर ने उनकी मांग का समर्थन किया और कहा कि सपा के सांसद का बहुत अच्छा प्रस्ताव है। सेंगोल के स्थापना के समय सरकार ने बहुत सारा ड्रामा किया था। आरजेडी की मीसा भारती ने कहा कि सेंगोल को म्यूजियम में रख देना चाहिए संसद में उसकी कोई जरूरत नहीं है। एसपी के सांसद के समर्थन में डीएमके बहुत मजबूती से खड़ी हुई। उसने कहा कि सेंगोल राजशाही का प्रतिनिधित्व करता है। लोकतांत्रिक देश में इसकी कोई भूमिका नहीं है इसको म्यूजियम में रख देना चाहिए। अन्य कोनों से भी उन्हें समर्थन प्राप्त हुआ।
कांशीराम की भाषा में दलित-बहुजन राजनीति के चमचों ( चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और अनुप्रिया पटेल आदि) के लिए तो यह अवसर मोदी की चमचागिरी करने का मौका बनकर आया। इस चमचागिरी में वे एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं। मान्यवर कांशीराम ने अपनी किताब ‘चमचा युग’ में ऐसे चमचों को बहुजन आंदोलन के लिए सबसे खतरनाक कहा था।