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जब देश ने आयरन लेडी इंदिरा गांधी को पहली बार इतना बेबस देखा 

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कोई आयरन लेडी कहता था, किसी ने दुर्गा कहकर तारीफ की थी। वह चेहरा महिला सशक्तीकरण या कहिए देश की ताकत का पर्याय बन चुका था लेकिन उस दिन देश पहली बार अपनी आयरन लेडी को इतना मायूस और बेबस देख रहा था। जी हां, ये कहानी है भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की। उस रोज वह बेसुध सी नजर आ रही थीं। चेहरे की रंगत उड़ गई थी। वो मनहूस तारीख थी 23 जून 1980। नई दिल्ली के आसमान में एक प्लेन क्रैश हुआ था और गांधी परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। इंदिरा जिस बेटे को अपना उत्तराधिकारी मानकर चल रही थीं, वह बेटा अब इस दुनिया में नहीं था। संजय गांधी के बारे में कहा जाता है कि सियासत हो या निजी जिंदगी, वह खतरों से बेपरवाह होकर आगे बढ़ जाते थे। उस दिन पिट्स प्लेन उड़ाते समय भी उन्होंने बिल्कुल यही किया। पिछले साल राहुल गांधी ने उस दुर्घटना को याद करते हुए कहा था कि उस दिन राजीव ने चाचा को विमान उड़ाने से मना किया था। उन्होंने बताया कि मेरे चाचा एक खास किस्म का प्लेन पिट्स उड़ा रहे थे। वह बेहद तेज प्लेन था। मेरे पिता ने कहा था कि ऐसा मत करो क्योंकि चाचा के पास प्लेन उड़ाने का उतना अनुभव नहीं था। वास्तव में, संजय गांधी रोमांच में यकीन करते थे। वह सड़क पर मेटाडोर चला रहे हों या आसमान में प्लेन, देखने वालों में कौतूहल पैदा कर देते थे।

इंदिरा को था मलाल
उस दिन इंदिरा ताकतवर प्रधानमंत्री नहीं, एक बेबस मां की तरह फूट-फूटकर रोई थां। इंदिरा को बार-बार एक दिन पहले की वो बात याद आ रही थी जब उनके सहयोगी आरके धवन ने संजय की उड़ान को लेकर आगाह करने जैसी बात कही थी। दरअसल, दुर्घटना से एक दिन पहले यानी 22 जून 1980 को संजय गांधी सफदरजंग एयरपोर्ट के दिल्ली फ्लाइंग क्लब के प्लेन को उड़ाने के लिए निकले तो उन्होंने आरके धवन को भी साथ ले लिया। हवा में कुछ देर तक रहने के बाद जब धवन जमीन पर आए तो उनकी जान में जान आई। शाम को वह इंदिरा से मिले तो बोले- मैडम प्राइम मिनिस्टर, मैं आज के बाद संजय के साथ प्लेन में नहीं बैठूंगा। इंदिरा को ऐसी बात पहले भी कई लोग कह चुके थे लेकिन 23 जून को जब दर्दनाक खबर मिली तो इंदिरा पछता रही थीं कि काश, कल वह संजय को कुछ कह पातीं। शायद उनके कहने से संजय आज प्लेन न उड़ाते।

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संजय की मौत से गमगीन इंदिरा गांधी।
संजय का एडवेंचर
इससे पहले कई अधिकारी और नेता संजय के प्लेन एडवेंचर के बारे में इंदिरा को बता चुके थे। प्रधानमंत्री मन में यह बात लेकर बैठी थीं कि वह संजय से कहेंगी कि तुम्हें देश संभालना है, प्लेन संभालना छोड़ो। लेकिन यह बात वह अपने बेटे से कभी नहीं कह पाईं। 23 जून को सुबह अशोका होटल के ऊपर कलाबाजी करते हुए अचानक संजय ने प्लेन से नियंत्रण खो दिया। आसमान में प्लेन गोल-गोल घूमने लगा। कुछ ही पल में जोर की आवाज हुई और प्लेन का मलबा पेड़ों के बीच फंसा दिखा। चीफ इंस्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना और संजय गांधी के शव उतारे गए।

26 फरवरी 1979 को संजय और मेनका गांधी।

26 फरवरी 1979 को संजय और मेनका गांधी।
पीएम को संभाला जा सकता था, मां को नहीं
बेटे का एयरक्राफ्ट क्रैश होने की खबर मिलते ही इंदिरा अपने सहयोगी आरके धवन के साथ मौके पर पहुंचीं। दुर्घटना वाली जगह से कुछ दूरी पर कार रुकी। वहां सैकड़ों लोग खड़े थे। बेटे के गम में डूबीं इंदिरा संजय के शव की तरफ दौड़ीं। शव देखकर वह रोने लगीं। यह पहला मौका था जब देश आयरन लेडी की आंखों में आंसू देख रहा था। कुछ देर एक बेबस मां की तरह रहने के बाद इंदिरा को लगा कि वह देश की प्रधानमंत्री हैं और इस तरह आंसू दिखना ठीक नहीं है। उन्होंने खुद को संभाला पर मां की ममता कहां मानने वाली थी। आंखों से आंसू बंद नहीं हो रहे थे। इंदिरा ने आंखों पर काला चश्मा रख लिया, जैसे उन्होंने अपने गम को छिपा लिया हो।

दरअसल, संजय की मौत का शायद सबसे ज्यादा दुख मां इंदिरा को था। यह उनके लिए बड़े झटके जैसा था। इंदिरा गांधी कुछ ही महीने पहले सत्ता में वापस लौटी थीं। इमरजेंसी के कारण सत्ता गंवाने के ढाई साल बाद वापसी का श्रेय संजय गांधी को दिया गया। उन्होंने टिकट वितरण के साथ युवाओं को आगे बढ़ाया था। संजय का सरकार में दखल कितना था या कहिए इंदिरा उनकी बात किस हद तक मानती थीं कि उनके कहने पर 9 विरोधी पार्टी शासित राज्यों की विधानसभाएं भंग कर दी गईं। दोबारा चुनाव हुए और 8 राज्यों में कांग्रेस सत्ता में लौटी। सीएम हों या अधिकारी संजय की बात पत्थर की लकीर हुआ करती थी। जनता कार वाला प्रोजेक्ट हो या जनसंख्या नियंत्रण की पहल, संजय गांधी की ही चलती थी। वह देश को हर समस्या से उबारना चाहते थे लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था।

कुछ महीने पहले ही इंदिरा गांधी ने संजय गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाया था। तब तक राजीव गांधी राजनीति में सीन से गायब थे। कहा जाता है कि अगर संजय गांधी की मौत नहीं हुई होती तो राजीव गांधी की राजनीति में शायद एंट्री नहीं होती। संजय गांधी को इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शामिल करने वाली थीं लेकिन वह मौका कभी नहीं आया।

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