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महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन पर मेहरबान वोटर्स का क्‍यों बदला मूड?

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कृष्णमोहन झा

संभवत: यह पहला अवसर है जब गांधी परिवार के तीन सदस्य राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा लोकसभा में एवं सोनिया गांधी राज्य सभा में एक साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं परंतु वायनाड उपचुनाव में पार्टी की शानदार जीत के बावजूद कांग्रेस सदस्यों के चेहरों पर विजेता जैसी चमक नहीं है जिसका एक मात्र कारण यह है कि हाल में संपन्न हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में उसे अत्यंत शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है।

” दूसरी ओर संसद के शीतकालीन सत्र में भाग ले रहे भाजपा सांसदों के चेहरों पर महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में भाजपा की ऐतिहासिक विजय से उपजा उल्लास और उमंग स्पष्ट देखा जा सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद सत्ता के गलियारों तक पहुंच जाने की उम्मीद लगाए बैठे इंडिया गठबंधन के घटक दलों में कांग्रेस की हताशा बाकी दलों से कहीं अधिक है वैसे कमोवेश यही हाल शिव सेना ( उद्धव ठाकरे ) और एनसीपी ( शरद पवार) का भी है।

लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन पर मेहरबान वोटर्स का क्‍यों बदला मूड? इंडिया गठबंधन के ये तीनों घटक दल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि महाराष्ट्र के जिन मतदाताओं ने 18 वीं लोकसभा के चुनावों में उन्हें सर आंखों पर बिठाया था उन्हीं मतदाताओं ने आखिर राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा को ऐतिहासिक जीत का हकदार क्यों मान लिया। अब उन दलों को इस हकीकत को स्वीकार करना ही होगा कि उनके पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता को चुनौती देने का सामर्थ्य और साहस नहीं है।

“महाराष्ट्र चुनाव में नए मशाल चिह्न को लोकप्रिय बनाने के लिए शिवसेना UTB ने रैलियां निकालीं” महाराष्‍ट्र परिणाम दे रहा ये संकेत महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणामों से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि देश की राजनीति एक बार फिर नई करवट ले रही है। 18 वीं लोकसभा के चुनावों में 99 सीटों पर मिली जीत के बाद कांग्रेस पार्टी जिस उमंग और उल्लास से लबरेज दिखाई दे रही थी उसकी चमक को महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने फीका कर दिया है। हरियाणा में भी मात खाईं कांग्रेस दरअसल, इसकी शुरुआत तो कुछ माह पूर्व संपन्न हुए हरियाणा विधानसभा के चुनावों से हो गई थी जहां वह एक दशक बाद सत्ता पर काबिज होने का सुनहरा स्वप्न संजोए बैठी थी लेकिन हरियाणा में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बीच अंदरूनी खींचतान और अति आत्मविश्वास के कारण सदन के अंदर उसे लगातार तीसरी बार विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा। मजेदार बात तो यह है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान ही पार्टी में भावी मुख्यमंत्री बनने के लिए एकाधिक दावेदार सामने आ चुके थे लेकिन एक दशक बाद भी कांग्रेस सत्ता से दूर रह गई।

हरियाणा जैसा अतिआत्मविश्वास ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस ,एनसीपी ( शरद पवार) और शिव सेना ( उद्धव ठाकरे ) की उम्मीदें टूटने का कारण बन गया। महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने तीनों पार्टियों के पैरों तले की जमीन ही खिसका दी है। महाराष्‍ट्र में हुआ और बुरा हाल हरियाणा में कांग्रेस कम से कम इतनी सीटें जीतने में तो कामयाब हो ही गई थी कि वह विधानसभा के अंदर सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा सके परन्तु महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम तो यह संकेत दे रहे हैं कि वहां उक्त तीनों पार्टियों को हताशा की स्थिति से उबरने में लंबा वक्त लग सकता है। उद्धव ठाकरे की नेतृत्व क्षमता पर सवाल लग चुका है। एनसीपी से बगावत कर के अजित पवार ने शरद पवार के नेतृत्व को जो चुनौती दी थी उससे निपटने में वे सफल नहीं हो पाए। कांग्रेस के पास महाराष्ट्र में कोई इतना लोकप्रिय चेहरा नहीं है जिससे पार्टी किसी करिश्मे की उम्मीद कर सके।

कुल मिलाकर आगे का रास्ता मुश्किलों से भरा हुआ है। झारखंड में कांग्रेस को जो सफलता मिली है वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ जाने से मिली है। उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी का साथ लोकसभा चुनावों में उसके लिए फायदे का सौदा साबित हुआ परंतु हाल में संपन्न राज्य की नौ विधानसभा सीटों के उपचुनाव में किसी भी सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा न करने का उसका फैसला यही संदेश देता है कि समाजवादी पार्टी के साथ उसके संबंधों में अब पहले जैसी मधुरता नहीं रह गई है। दिल्ली में तो सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के साथ उसके रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे। दोनों पार्टियों के नेताओं ने एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले साल होने वाले दिल्ली विधानसभा के चुनावों पर इस बयानबाजी का असर पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा के अगले चुनाव़ों में भाजपा से कड़ी चुनौती मिलना तय है।

देश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य यह संकेत दे रहा है कि आने वाले समय में नए राजनीतिक समीकरण बन सकते हैं जिनमें एनडीए गठबंधन में भाजपा तो अपना वर्चस्व बनाए रखने में कामयाब रहेगी लेकिन विपक्षी इंडिया गठबंधन में कांग्रेस को अपना वर्चस्व बनाए रखने में दिक्कत आ सकती है। यह भी उत्सुकता का विषय है कि संसद में प्रियंका गांधी वाड्रा का प्रवेश राहुल गांधी की ताकत और मनोबल को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा अथवा प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी के तुलना होने लगेगी। निश्चित रूप से प्रियंका गांधी वाड्रा यह कभी नहीं चाहेंगी कि संसद में राहुल गांधी के साथ उनकी तुलना की जाए।

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