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मर्दानी जैसी फिल्में फ्लॉप क्यों हो जाती हैं?

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इंटरनेट, मोबाइल और फिल्मों की सतरंगी दुनिया में जहां फिल्में हमारे समाज का आईना रही हैं, वहीं हम फिल्मों से प्रभावित भी होते रहे हैं। फिल्मों की दुनिया में हमेशा एक पक्ष ऐसा रहा है जो अतिपुरुषत्व का दीवाना रहा है। ऐसी अतिपुरुषत्व का जलवा दिखाने वाली फिल्में हॉलीवुड के मार्वल स्टूडियो से लेकर बॉलीवुड और ट्रॉलीवुड तक बनती रही हैं।

1960-70 के दशक में हीरो ओरिएंटेड फिल्में बनती थीं जिनमें एंग्री यंगमैन का किरदार लोगों को बहुत पसंद आता था। मर्द को दर्द नहीं होता था, विलेन को मारना और लड़की को बचाना होता था। इस तरह की फिल्में उस दौर में काफी बनीं और आज भी बन रही हैं। इन सब फिल्मों में महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक बेबसी–बेचारगी और यौन शोषण की शिकार रहीं प्राणी के रूप में दिखाया जाता रहा है।

अब फिल्मों में तेजी से बदलाव आ रहा है। एक तरफ एनिमल जैसी फिल्में बन रही हैं तो दूसरी तरफ मर्दानी जैसी फिल्में भी आ रही है। अगर एनिमल जैसी फिल्में सुपर हिट होती हैं और मर्दानी जैसी फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं, तो सोचना पड़ेगा कि फिल्मों के ज्यादातर दर्शक कौन हैं? किस जेंडर के हैं और इन दोनों पात्रों से कौन सा जेंडर कितना अपने को रिलेट कर रहा है और कौन सा जेंडर किसे खारिज कर रहा है?

हमारे अंदर हो रहे बदलावों की जड़े काफी हद तक हमारे पालन-पोषण और समाजीकरण पर निर्भर करता है। स्विट्जरलैंड के चिकित्सा मनोविज्ञानी जां प्याजे, जिन्होंने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर काम किया था का मानना था कि व्यक्ति के विकास में बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, जिसे उन्होंने विकास अवस्था सिद्धांत कहा था।

जां प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना था। पहला संगठनीकरण जो बुद्धि की विभिन्न क्रियाओं, जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, चिंतन और तर्क को संगठित करता है। वातावरण के साथ समायोजन करना संगठनीकरण का ही परिणाम है। संगठनीकरण व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है।

दूसरा अनुकूलन जो व्यक्ति को बाह्य रूप से प्रभावित करता है यानि वातावरण के साथ अनुकूलन करने के लिए वस्तुओं एवं घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता और वास्तविक और अवास्तविक में भेद करना, उसे कल्पनाओं में ढालने का संज्ञान करना।

जां प्याजे ने बाल विकास को नैतिक शिक्षा के साथ जोड़ने की भी बात की थी जिसमें उन्होंने चार साल से ऊपर के बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा को महत्वपूर्ण माना था, और प्राथमिक विद्यालयों में नैतिक शिक्षा को कहानियों के साथ जोड़ने की बात की थी, ताकि नैतिक शिक्षा के मूल अर्थों को बच्चों तक पहुंचाया जा सके और उनमें नैतिकता का विकास किया जा सके।

जब बच्चे परिवार और पास-पड़ोस में ऐसी घटनाओं को घटित होते देखने लगते हैं जो नैतिक मूल्यों का क्षरण करते हैं, तब उनके भीतर एक विक्षोभ पैदा होता है। शिक्षा और करियर की प्रतिस्पर्धी दुनिया में अपने आपको साबित करने की होड़ उस विक्षोभ को और बढ़ा देती है।

यह विक्षोभ कुछ बच्चों को अकेलेपन, अवसाद और तनाव की तरफ ले जाता है और कुछ बच्चों में अति पुरुषत्व को जन्म देता है जो उनके अंदर की कोमलता, करुणा और प्यार जैसी खूबसूरती को खत्म कर देता है। अब इस तरह के भावनात्मक बदलाव सिर्फ लडकों में ही नहीं, बल्कि लड़कियों में भी देखने को मिल रहे हैं।

 (मंजुला शिक्षा, कला और बाल मनोविज्ञान के क्षेत्र से जुड़ी हैं)

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