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64 साल बीत जाने के बावजूद महाराष्ट्र में क्यों नहीं मिली कोई महिला मुख्यमंत्री?

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महाराष्ट्र की मौजूदा 14वीं विधानसभा में कुल 288 विधायकों में से केवल 24 महिला विधायक हैं.इससे पहले 2014 में चुनी गई विधानसभा में 20 और 2009 में चुनी गई विधानसभा में केवल 11 महिला विधायक थीं. यानी प्रदेश में महिला विधायकों का आंकड़ा कभी भी 8-9 प्रतिशत से ऊपर नहीं गया.

यह भी एक वजह है कि राज्य में अब तक कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं बन सकी हैं. लेकिन उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कितना प्रभावी है, इस पर भी गंभीरता से बात नहीं होती.ऐसे में जब यह राज्य एक बार फिर से चुनाव की ओर बढ़ रहा है, यहां की राजनीति में महिलाओं की जगह कितनी सशक्त है, इस पर चर्चा ज़रूरी है.

1960 में राज्य के गठन के 64 साल बीत जाने के बावजूद ‘महाराष्ट्र राज्य को एक भी महिला मुख्यमंत्री क्यों नहीं मिली?’ यह सवाल, राज्य के प्रगितशील होने के दावे पर सवाल खड़े करता है.राज्य की कांग्रेस नेता वर्षा गायकवाड़ का महिला मुख्यमंत्री पद को लेकर बयान और आतिशी का दिल्ली की मुख्यमंत्री बनना, दोनों बातों ने महाराष्ट्र में इस चर्चा को बढ़ावा दिया है.

वैसे यहां यह जानना ज़रूरी है कि अब तक देश के विभिन्न राज्यों में 17 बार महिला मुख्यमंत्रियों (दिल्ली में आतिशी सहित) के नेतृत्व में सरकारें बन और चल चुकी हैं.देश की महिला मुख्यमंत्रियों में सुचेता कृपलानी (उत्तर प्रदेश), नंदिनी सतपथी (ओडिशा), शशिकला काकोडकर (गोवा), अनवरा तैमूर (असम), राजिंदर कौर भट्टल (पंजाब) महबूबा मुफ्ती (जम्मू-कश्मीर), सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित (दिल्ली), वसुंधरा राजे (राजस्थान), मायावती (उत्तर प्रदेश), राबड़ी देवी (बिहार), उमा भारती (मध्य प्रदेश), जानकी रामचंद्रन और जयललिता (तमिलनाडु), आनंदीबेन पटेल (गुजरात), ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल) और अब आतिशी (दिल्ली) शामिल हैं.

अन्य राज्यों में महिला मुख्यमंत्री तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं?

इमेज कैप्शन,महिलाएं वोट करते हुए

जब अन्य राज्यों को महिला मुख्यमंत्री मिल चुकी हैं को प्रगतिशील राज्यों में से एक माने जाने वाला महाराष्ट्र इस मामले में पीछे क्यों है?

इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार जयदेव डोले कहते हैं, “असम, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य आर्थिक तौर पर महाराष्ट्र से पीछे हैं, लेकिन वहां महिला मुख्यमंत्री होने के दो कारण हैं. पहला तो ये कि महिला खुद भी ताक़तवर वोट बैंक से आ रही हैं और दूसरी बात यह है कि उन्हें विधायकों का समर्थन हासिल है.”

उनका दावा है कि इन्हीं वजहों से उत्तर प्रदेश में मायावती और राजस्थान में वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बन सकीं. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पितृसत्तात्मक यानी पुरुष प्रधान व्यवस्था के चलते भी महाराष्ट्र में अब तक कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं बन सकी हैं.

उन्होंने कहा, “महिला आरक्षण बिल भी तीन दशक से लटका है, जो दर्शा रहा है कि पुरुष नेता महिलाओं के हाथों में सत्ता सौंपना नहीं चाहते.”

वहीं वरिष्ठ पत्रकार अलका धूपकर का कहना है कि हमारे राजनेता न तो इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हैं और न ही महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात को .

वह कहती हैं, “पितृसत्तात्मक और सामंती मानसिकता का मुद्दा अहम है. इन्हीं कारणों से महिलाएं राजनीतिक मुक़ाबले में हमेशा पीछे रह गईं. आज भी महिलाओं को ज्यादा टिकट नहीं दिए जाते. आज भी जो महिला नेता हैं उन्हें महिला उत्पीड़न और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर ही बोलने के लिए आगे किया जाता है. महत्वपूर्ण मुद्दों पर वे पार्टी के मंच पर नहीं होतीं. अगर सुप्रिया सुले पवार परिवार से नहीं होतीं तो क्या उन्हें अब अपनी पार्टी में इतना महत्व मिलता?”

इमेज कैप्शन,कांग्रेस नेता यशोमति ठाकुर ने कहा कि महिला राजनेताओं को राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में किस्मत आज़माने वाली महिलाओं की संख्या पर नजर डालें तो 2009 के विधानसभा चुनाव में 3,559 में से 211, 2014 के चुनाव में 4,119 में से 277 और 2019 के चुनाव में 3,237 में से 237 महिला उम्मीदवार थीं. यह आंकड़ा आठ प्रतिशत से ज्यादा नहीं है.

इस संबंध में अलका धूपकर कहती हैं, ”2019 में विधानसभा में 264 पुरुष और केवल 24 महिलाएं निर्वाचित हुईं. दिलचस्प बात यह है कि यह विधानसभा में महिलाओं की अब तक की सबसे अधिक संख्या थी. विधानसभा में निर्वाचित महिलाओं की कुल संख्या अब तक 170 से ज्यादा नहीं है. ये सारे आंकड़े बताते हैं कि अंतर कितना बड़ा है.”

वैसे दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र को सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर काफी सजग राज्य माना जाता है. लेकिन राज्य सरकार में मुख्यमंत्री का पद ही नहीं, बल्कि तमाम दूसरे महत्वपूर्ण विभागों में भी महिलाएं दूर ही दिखती हैं.

मुख्यमंत्री पद के अलावा गृह, वित्त, शहरी विकास, सार्वजनिक कार्य जैसे महत्वपूर्ण खाते महिलाओं के पास नहीं रहे हैं. अगर मंत्रिमंडल में महिलाओं को जगह भी मिली तो उन्हें महिला मामलों या फिर पर्यटन जैसे महकमे दिए गए. हालांकि शालिनीताई पाटिल इसका एक दुर्लभ अपवाद रहीं, जब उन्हें ए.आर. अंतुले ने अपने मंत्रिमंडल में राजस्व का अहम विभाग सौंपा था.

कांग्रेस नेता यशोमति ठाकुर का कहना है कि महिला राजनेताओं को राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है.

बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने कहा, “हाल ही में पहली बार एक महिला को मुख्य सचिव नियुक्त किया गया था और लोगों ने उसकी आलोचना भी की. मुझे भी अपनी पार्टी के भीतर संघर्ष करना पड़ता है. मेरे विधायक बनने के बाद भी मेरी तस्वीर बैनर पर नहीं लगाई गई. बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि मैं एक महिला हूं.”

महाराष्ट्र की महिला नेताओं की स्थिति

फिलहाल, महाराष्ट्र की राजनीति में जब भी महिला मुख्यमंत्री पद की चर्चा शुरू होती है तो सबसे पहले एनसीपी से सुप्रिया सुले, बीजेपी से पंकजा मुंडे, शिवसेना से रश्मि ठाकरे और कांग्रेस से वर्षा गायकवाड़ या यशोमती ठाकुर जैसी नेताओं का नाम लिया जाता है.

इस बारे में बात करते हुए अलका धूपकर कहती हैं, ”अस्थायी रूप से भाई-भतीजावाद के आरोप को किनारे कर भी दें तो सुप्रिया सुले को छोड़कर कितनी महिला नेता निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल हैं? अगर आप सीट आवंटन बैठकों की तस्वीरें देखिए, किसी पार्टी या गठबंधन की किसी भी बैठक में महिला नहीं है.”

1990 तक महाराष्ट्र की राजनीति में मुख्य रूप से कांग्रेस का ही दबदबा था. प्रतिभा पाटिल, प्रभा राव, शालिनीताई पाटिल और प्रेमला चव्हाण का नाम 1960 से 1990 के बीच राज्य की राजनीति में अग्रणी महिला नेताओं के रूप में लिया जाता रहा.

इमेज कैप्शन,प्रतिभा पाटिल, प्रभा राव, शालिनीताई पाटिल और प्रेमला चव्हाण का नाम महाराष्ट्र की राजनीति में अग्रणी महिला नेताओं के रूप में लिया जाता रहा

मुख्यमंत्री पद के लिए प्रतिभा पाटिल और महाराष्ट्र कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रहीं प्रभा राव के नाम पर भी चर्चा हुई. हालांकि, फिर भी वह मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं.

उस समय की राजनीति का विश्लेषण करते हुए वरिष्ठ पत्रकार हेमंत देसाई कहते हैं, “महाराष्ट्र में यह धारणा थी कि जो भी स्थानीय सहकारी समितियों को नियंत्रित करेगा, वह उस क्षेत्र की राजनीति पर हावी होगा.”

“विभिन्न स्थानों पर प्राथमिक क्रय-विक्रय संघों, जिला बैंकों, चीनी कारखानों, कपास मिलों जैसी विभिन्न सहकारी समितियों में बहुत अधिक महिलाएं नहीं थीं. अत: राजनीति में उनकी स्थिति भी नगण्य थी. भले ही प्रभा राव या प्रतिभा पाटिल अग्रणी नेता थीं, लेकिन सहकारी समिति पर उनका दबदबा नहीं था. इसलिए भी वह मुख्यमंत्री पद तक नहीं पहुंच सकीं.”

जयदेव डोले इसके पीछे के सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों को रेखांकित करते हैं. वो कहते हैं, “चांदबीबी, अहिल्या देवी, लक्ष्मी बाई और तारा रानी जैसी जो कुछ महिलाएं राजनीति में आईं, वे अलग-थलग पड़ गईं. उनके लिए सत्ता हासिल करना आसान नहीं था. उन्हें पुरुषों से सत्ता छीनकर सत्ता हासिल करनी थी. उसे बनाए रखना भी मुश्किल था. स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी के कारण कई महिलाएं राजनीति में आईं.”

“आज़ादी और महाराष्ट्र के गठन के बाद विधानसभा और संसद में महिलाएं उतनी नहीं आ पाईं जितनी होनी चाहिए थीं. कांग्रेस की प्रभा राव, प्रतिभा पाटिल, प्रेमला चव्हाण और समाजवादी नेता मृणाल गोरे चार सफल महिलाएँ थीं. उसने निश्चित तौर पर अच्छा प्रदर्शन किया होगा.”

राजनीति में ‘डमी’ उम्मीदवार

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए 1994 में महाराष्ट्र में महिला नीति लागू की गई. स्थानीय निकायों में महिलाओं को पहले 33 प्रतिशत और फिर 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. हालांकि, अलका धूपकर का कहना है कि इसके बाद कई महिला सरपंच ‘डमी’ सरपंच रहीं जिनका उपयोग केवल अंगूठे या हस्ताक्षर कराने के लिए किया जाने लगा.

अलका धूपकर कहती हैं, ”महिला नीति पेश करने वाली कांग्रेस से लेकर 2019 के चुनावों में सबसे ज़्यादा महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने वाली बीजेपी तक, आप मंच पर उन्हीं महिलाओं को देखेंगे जो किसी बड़े नेता या राजनीतिक परिवार की बेटी या बहू हैं.”

इमेज कैप्शन,1997 में राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बनीं थीं

1997 में राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया. इसे महिलाओं को नाममात्र यानी ‘डमी’ के रूप में इस्तेमाल करने का राजनीतिक प्रयोग कहा गया.सार्वजनिक जीवन से दूर घरेलू महिला के तौर पर रहने वाली राबड़ी देवी तीन बार बिहार की मुख्यमंत्री बनीं. उस वक्त उनको मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर काफी आलोचना हुई थी. कुछ लोग इसे इस रूप में भी देखते हैं कि महिला होने के चलते राबड़ी देवी को ज़्यादा आलोचना झेलनी पड़ी.

वैसे एक हक़ीक़त ये भी है कि जब किसी नेता को पार्टी टिकट नहीं देती या उनकी मृत्यु हो जाती है, तो सबसे पहले बेटे को उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता है. बाद में उनकी बेटी, पत्नी या बहू की उम्मीदवारी को देखा जाता है, हालांकि यह सहानुभूति के वोट हासिल करने के लिए होता है.

अलका धूपकर कहती हैं, ”महिला मुख्यमंत्री कौन हो, इसका सवाल उठने पर सुप्रिया सुले, पंकजा मुंडे या वर्षा गायकवाड़ चर्चा में आ जाती हैं, ये उनके पिता की राजनीतिक विरासत है.”पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसका अपवाद रही हैं. उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर राज्य की सत्ता हासिल की है, जबकि महाराष्ट्र में ऐसी एक भी महिला नहीं है जिन्होंने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाई हो.इस संबंध में हेमंत देसाई कहते हैं, ”ममता बनर्जी ने ज़िद दिखाकर अपना राजनीतिक करियर चलाया है. महाराष्ट्र में एक भी महिला नेता ऐसी नहीं है, जिसने अपनी पार्टी बनाई हो.”

महिलाओं का सशक्तिकरण

महाराष्ट्र में किसी महिला के अब तक मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की वजह पर चर्चा करते हुए महिला मुद्दों की पत्रिका मिलून सरायाजानी की संपादिका गीताली विनायक मंदाकिनी कहती हैं, “महाराष्ट्र में महिला मुख्यमंत्री की उम्मीद करना तो सही है, लेकिन यब बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि इससे आम महिलाओं की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में कितना सुधार होगा? संवैधानिक ढांचे में महिलाओं को वोट तो मिला, लेकिन क्या उन्हें बराबर का श्रेय मिला?”

दरअसल, भारत में महिलाओं को आज़ादी के तुरंत बाद वोट देने का अधिकार मिल गया. जबकि अमेरिका में वोट का अधिकार पाने के लिए महिलाओं को आंदोलन तक करना पड़ा.

संयोग ऐसा है कि अमेरिका में भी चुनाव नवंबर महीने में हो रहे हैं और वहां भी अब तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन सकी हैं.कांग्रेस नेता यशोमति ठाकुर का मानना है कि चाहे वह महिलाओं के लिए वोटिंग का हक़ हो या भारत में महिलाओं के लिए राजनीतिक आरक्षण, औपचारिक समानता के मुद्दे के अलावा, राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को ‘वास्तविक’ तौर पर ताक़त और हैसियत नहीं मिली है.

मध्य प्रदेश की ‘लाडली’ योजना हो या महाराष्ट्र की ‘लड़की’ योजना, इन योजनाओं में भी पुरुष के संदर्भ में ही महिलाओं को देखा जाता है. अलका धूपकर भी इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कुल मिलाकर राजनीति की भाषा बहुत ‘मर्दाना’ है.एक सच यह भी है कि महिलाओं के प्रति नज़रिया काफी हद तक ‘पुरुषवादी धारणाओं’ पर आधारित होता है.

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