अंजनी कुमार
संसद के पहले सत्र में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का भाषण भाजपा को इस कदर नागवार गुजरा कि उनके हरेक वाक्य पर वह शोर मचाती रही, सफाई देती रही और ‘मर्यादा’ का पालन करने की बात करती रही। राहुल गांधी ने संसद में भारत में धर्म का पूरा पिटारा खोल दिया था। वह शिव, गुरू नानक, ईसा मसीह के चित्र और कुरान की एक आयत का प्रिंट लेकर संसद पहुंचे थे। उन्होंने बुद्ध का हवाला दिया और दावा किया कि हिंसा हमारे देश की परम्परा नहीं है। उन्होंने भाजपा और आरएसएस पर हमलावर होते हुए उनके हिंदू होने के दावे और हिंसा की राजनीति करने पर जमकर हमला किया। उनके भाषण पर संसद में खूब शोर-शराबा हो रहा था। यह पहली बार था जब उनके भाषण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टिप्पणी करने पर मजबूर हो रहे थे। गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह से लेकर किरेण रिजिजू, भूपेंद्र यादव और अन्य लोग उनके भाषण के बीच में बोल रहे थे। राहुल गांधी के भाषण की लंबाई एक घंटा को पार कर गया था। वह राष्ट्रपति के अभिवादन भाषण पर अपनी राय रख रहे थे।
भाजपा को क्या नागवार गुजरा?
राहुल गांधी के भाषण में कुछ तथ्यों को लेकर विवाद हुआ। खासकर, अग्निवीर की योजना और उससे जुड़ी समस्या को लेकर राजनाथ सिंह ने जो तथ्य दिये वह राहुल गांधी के एक दावे से मेल नहीं खा रहा था। अन्य दावे या तो विवाद के दायरे में हैं या सच हैं। नेता प्रतिपक्ष सवाल उठा सकता है और अपने अनुभवों को रख सकता है। इसमें नेता प्रतिपक्ष की गलत बयानी का मसला नहीं बनता है। लेकिन, सत्ता पक्ष यदि ऐसा करता है, तब यह निश्चित ही गंभीर मसला बनता है। सत्ता पक्ष नीति निर्माण और उसके कार्यान्वयन का मुख्य कर्ताधर्ता होता है। दरअसल, राहुल गांधी के भाषण के इस तरह के अंश से भाजपा को उतनी दिक्कत नहीं हुई जितनी उनके ‘हिंदू होने के दावे’ को ‘हिंसा’ के साथ जोड़ देने से हुई। यही वह केंद्रीय बिंदु था जहां से संसद का माहौल गरम हो गया।
राहुल गांधी ने इस ‘हिंदू होने के दावे’ को स्पष्टतः भाजपा और आरएसएस से जोड़ा और उनके त्रिशूल लहराने की भंगिमा से जोड़ दिया। उन्होंने भाजपा के अयोध्या आयोजन को जनता पर जुल्म और अभिजात्य वर्ग की तरफदारी से जोड़ते हुए मोदी के धर्म की राजनीति पर सीधा हमला बोला। और, सबसे महत्वपूर्ण था कुरान की आयत का संसद में अर्थ बताना। यह भाजपा और आरएसएस की राजनीतिक विचारधारा पर सीधा हमला था। भाजपा और आरएसएस अपने भाषणों में लगातार संस्कृति और राष्ट्रवाद को हिंदुत्व के आईने से देखती रही है। उसकी व्याख्या में, मुसलमान को ‘भारतीय’ होना बाकी है। यही वह कथित सांस्कृतिक चिंतन है जिसके तहत नरेंद्र मोदी, जब मुख्यमंत्री थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी ‘कपड़ों से पहचान’ करने, ‘घुसपैठिया’ बताने आदि का काम करते रहे हैं। आरएसएस इसे ही अन्य तरीकों से यह काम करती है।
धर्म की अर्थ सहित व्याख्या की राजनीति
राहुल गांधी संसद में जब धर्म की अर्थ सहित व्याख्या करते हुए उन्हें शांति का दूत बता रहे थे, तब सत्ता पक्ष में जो बेचैनी दिख रही थी, उसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता था। भारतीय राजसत्ता की आधारभूमि धर्मनिरपेक्षता की रही है। इस धर्म निरपेक्षता में धर्म की उपस्थिति है और इसे आमतौर पर धर्म के प्रति समभाव की तरह ही व्याख्यायित किया गया है। भाजपा ने धर्म की इसी उपस्थिति को हिंदू धर्म के नजरिये से देखा है और इसे राष्ट्र के समकक्ष बना दिया। अन्य धर्मों की उपस्थिति इसी के संदर्भ में है। भाजपा की कुल जमा राजनीतिक विकास उसे बहुसंख्यावाद के उस दलदल में ले गया जिसके शीर्ष पर सिर्फ सवर्ण धार्मिक वर्चस्व ही नहीं है, उसकी आधारभूमि भी मंदिरों और मठों से निर्मित होती है। इस दलदल में जो वंचित हैं वे दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदाय हैं और साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं। धार्मिक व्याख्याएं जाति, धर्म, क्षेत्र आदि को उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक व्याख्याओं की ओर स्वभावतः ले जाती हैं।
भारत में ऐसी कोई जाति, समुदाय, विश्वास, धर्म नहीं है जिसकी ऐतिहासिकता का दावा किसी से भी पीछे हो। जोर जबरदस्ती कर किसी के इतिहास को भले ही नकार दिया जाये, लेकिन मिथकों और कई बार अंधविश्वासों पर विश्वास करने से भला कौन रोक सकता है। भाजपा ने दलित, ओबीसी और आदिवासियों के लिए ऐसे ही कई मिथक और अंधविश्वासों को उसकी ऐतिहासिकता प्रदान करते हुए खूब वोट बटोरा है और सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजनों को गति प्रदान करते हुए ध्रुवीकरण को ठोस बनाने का काम किया है। भाजपा जब इस तरह का ध्रुवीकरण कर रही थी, तब निश्चित ही जाति संरचना और समुदायों के सोपानों का भी ध्यान रख रही थी। लेकिन, उसकी मूल संरचना सनातन धर्म की संरचना रही है। यही कारण है कि जब सनातन धर्म पर बहस छिड़ी तब भाजपा आग बबूला हो उठी थी। हिंदू होना सनातन होना था और सोपानीकृत संरचना ही इसकी आत्मा है।
राहुल गांधी की धर्म की व्याख्या सारे धर्मो को एक बताने में गुजरा। यह एक ऐसी बात थी जिसे भारत में आमतौर पर स्वीकृत किया जाता है, खासतौर पर राजनीति में। हालांकि भारतीय राजनीति में इसकी स्वीकृति व्यवहार में देखी नहीं गई। आधुनिक भारतीय राजनीति के इतिहास में सांप्रदायिक दंगे एक अनिवार्य हिस्से के तौर पर हैं और आज भी इसकी परंपरा और इसका अध्ययन जारी है। लेकिन, जिस तरह से पिछले 30 सालों में हिंदुत्व की राजनीति क्रमशः मजबूत होते हुए बहुसंख्यावाद से बर्चस्व की ओर बढ़ती गई है और यह एक फासीवादी शक्ल लेते हुए दिखने लगी थी, उसमें राहुल गांधी का संसद के पहले सत्र में कई धर्मों को एक साथ पेश करना, इस तरह की राजनीति को चुनौती देने से कम नहीं था। यह संसदीय राजनीति में उस संवैधानिक स्थिति की याद दिलाना था, जिसकी बार-बार कसम खाकर संसद में प्रवेश किया जाता है और सरकार चलाई जाती है। राहुल गांधी का संसद में संविधान का प्रदर्शन और धर्म की व्याख्या उस खतरे से आगाह करता हुआ दिखा जो अभी भी संसद और संसद के बाहर बना हुआ है।
बुलडोजर अभी थमा नहीं हैः उत्तर प्रदेश में लखनऊ डेवेलपमेंट अथॉरिटी ने 10-18 जून तक एक तरह से पूरे अकबरनगर को ढहा दिया गया। अखबारों की खबर के अनुसार 1972 में उत्तर प्रदेश के गर्वनर अकबर अली खान ने इसे जगह देकर बसाया था। गोमती नदी को कुकरैल नदी से जोड़ने की योजना जिस समय बनी उस समय बसावट वाली जगह जंगलों से भरा हुआ था। गोमती और कुकरैल नदी के बीच के इस पाट पर 53 साल से रह रहे लगभग 2200 परिवारों की दो पीढ़ियां गुजर गईं। 2023 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कुकरैल नदी पर रिवर फ्रंट बनाने का निर्णय लिया और इसी साल के दिसम्बर में मोहल्ले का सर्वे भी हो गया। इस नदी पर 6 किमी लंबी योजना बनाई गई। पेड़ लगाने से लेकर जंगल सफारी की योजनाएं सामने रखी गईं। अब देखना है कि ये योजनाएं किस तरह और कब तक लागू होंगी। लेकिन, एक पूरी आबादी, जिसे धर्म और मिली-जुली संस्कृति दोनों नजरिये से देखा जा सकता है, को उखाड़कर फेंक दिया गया।
अकबरनगर का यह मॉडल देश में और भी जगहों पर लागू हुआ है और आने वाले समय में यह नीति जारी रहेगी। ‘अवैघ निर्माण’ एक ऐसी शब्दावली बन चुका है जिसमें कोर्ट के आदेशों की जरूरत नहीं रह गई है। यह सिर्फ राजनीतिक निर्णय और प्रशासिनक कार्यवाहियों के बीच सामंजस्य बनाने का ही मसला रह गया है। चूंकि धर्म राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है, ऐसे में ‘अवैध निर्माण’ की कार्यवाहियों में इसकी उपस्थिति होना उतना ही सहज बन गया है।
लोकसभा चुनाव के बाद सिर्फ ‘अवैध निर्माण’ पर बुलडोजर चलाने की नीति पर ही जोर नहीं आया। एक बार फिर से मॉब लिंचिंग की घटनाएं दुहराई गईं। यह आक्रामकता यह दिखाने के लिए था कि अब भी उनका बर्चस्व है और उनकी ताकत कम नहीं हुई है। यहां हमें यह जरूर समझना होगा कि सांप्रदायिकता की राजनीति मुख्यतः बर्चस्व को बनाये रखने की राजनीति है। यह बर्चस्व आर्थिक, सामाजिक दायरों से होते हुए राजनीति तक आती है। यह बर्चस्व जब तक स्थानीय स्तर पर काम करता है तब तक यह स्थानीय स्तर के ही विभाजनों को बढ़ाता और प्रभावित करता है। लेकिन, जब बर्चस्व का यह दायरा केंद्रीय स्तर पर चला जाये और सत्ता पक्ष बन जाये तब यह पूरे देश और समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। यह तब सिर्फ सांप्रदायिकता शब्द की व्याख्या से विश्लेषित नहीं किया जा सकता। इसे फासीवाद जैसे शब्दों के माध्यम से ही परखा और विश्लेषित किया जा सकता है। राहुल गांधी जब धर्म, पार्टी, अभिजात्य वर्ग के गठजोड़ को अयोध्या में राम मंदिर के संदर्भ में रख रहे थे, तब वह इसी ओर इशारा करते हुए दिखे।
आने वाले समय में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। संसद में राहुल गांधी द्वारा धर्म की व्याख्या भारतीय समाज और राजनीति को कितना प्रभावित कर सकेगी, यह देखना बाकी है। लेकिन, भाजपा ने हिंदुत्व बर्चस्व की राजनीति को उसकी अर्थव्यवस्था, समाज, संस्कृति और इतिहास के नजरिये तक जिस दूर तक ले गई है, उसका प्रतिकार खुद कांग्रेस शासित प्रदेशों में नहीं दिख रहा है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसे हल करने का अर्थ होगा राजनीति, अर्थव्यस्था, समाज, संस्कृति, इतिहास को देखने का नजरिया बदलना और इसके पुनर्गठन की धार को तेज करना।