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*दीपावली क्यों है त्यौहारों का त्यौहार*

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      प्रस्तुति : नीलम ज्योति

दीपावली को ११वीं शताब्दी के हेमचन्द्र ने जक्खरती कहा। दीपावली की परंपरा यक्ष-संस्कृति के सूत्र से जुड़ती है. किसी जमाने में यक्षरात्रि पर कुबेर और लक्ष्मी  की पूजा होती थी। यक्ष-परंपरा की प्रतिमाओं में  तुन्दिल-काया  दिख जाती है और  गणपति की तुन्दिल-काया  भी  यक्ष-परंपरा से  है। गणपति हस्ति-गणगोत्र  टोटम है , जो  हमें कबीलों के जमाने के जीवन का स्मरण करा देता है।  वैदिक-परंपरा में लक्ष्मी का सूत्र विष्णु या नारायण से जुड़ा है । वेद के श्रीसूक्त में लक्ष्मी का रूप धन-धान्य,वैभव,समृद्धि,सुख -संपन्नता का रूप है। महाकवि अश्वघोष के शब्द हैं :

 सा पद्मरागं वसनं वसाना, पद्मानना-पद्मदलायिताक्षी।

    वह सुन्दरी पद्म के रंग के कपडे पहने , कमल जैसा मुख और कमल जैसे नेत्र, लावण्यमयी। वह पद्मा लक्ष्मी है। दीपावली पर  कुबेर के स्थान पर गणेश की प्रतिष्ठा का सूत्र हमारा ध्यान आकर्षित करता है। 

भारतीय-त्यौहारों  को देखें तो पहली दृष्टि में ही यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनकी एक परंपरा रात्रि-त्यौहारों की है और दूसरी परंपरा दिवस-पर्वों की है। मकर-संक्रान्ति दिवस-त्यौहार है तथा दीपावली रात्रि-पर्व है। रात्रि-पर्वों में दीपावली का नाम महारात्रि है।

     दूसरी महत्त्वपूर्ण बात दीपावली को वात्स्यायन ने  यक्षरात्रि कहा था -माहिमनी। यशोधर कामसूत्र के टीकाकार थे,उन्होंने स्पष्ट किया – यक्षरात्रिरिति सुखरात्रि:, यक्षाणां तत्र सन्निधानात्‌।

    तीसरी बात दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की मूर्तियों की  परम्परा पाषाण -प्रतिमाओं की परम्परा से पुरानी है। मोअन जो दडो की खुदाई में मृण्मूर्तियां  मिल चुकी हैं। 

    चौथी बात दीपावली त्यौहार दीपक की प्रतिष्ठा का त्यौहार है। मनुष्य के जीवन में जिस दिन दीपक का आविष्कार हुआ , वह दिन ऐतिहासिक दिन था , वह दिन था , जब मनुष्य  के संकल्प ने अंधकार पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए दीप शब्द इस त्यौहार से बहुत पहले से जुड़ गया था। हर्ष [ई.६०६-६४८] द्वारा रचित नागानन्द नाटक में दीपप्रतिपदुत्सव नाम का उल्लेख हुआ है।

ई.१०१० अद्दहमाण [अब्दुलरहमान] के सन्देशरासक में “दिन्तिय णिसि दीवालिय दीवय” का उल्लेख है। सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू में दीपोत्सव, प्रदीपोत्सव और दीपावली नाम आ गया है – “दीपोत्सव:तव तनोतु” या  

“दीपावली द्युतिधृत पुर सौधबन्धा:।”

      उत्तरभारत हो अथवा दक्षिण-भारत  दीपक जलाना  लोक-अनुष्ठानों का अभिन्न अंग है। कार्तिकै दीपम्‌ तमिलनाडु का दीपोत्सव है , जिसे तोलकप्पियम् के दिनों से मनाया जाता है।  चौराहे पर दीपक रखा जाता है। पितृविसर्जन के समय दीपक भी जलाया जाता है। माता, भैरों, शिव, भुमियाँ तथा सैयद पर भी दीपक जलाया जाता है। चौमुख दिवला, मानिक दिवला, चौराहे का दीया, विसर्जन का दीपक, नजर की बातो, संजाबाती , चबूतरों पर दीपक आदि दीपदान के ही अनुष्ठान हैं।

    संजाबाती प्रतिदिन की जाती है- संजा तरै , दीपक बरै। नजर की बाती भी होती है , जिससे नजर उतारी जाती है। मृतक का  “दियो” होता है , जो मृत्यु के दिन से लेकर दस दिन तक जलाया जाता है , ग्यारहवें दिन नदी में विसर्जन किया जाता है। पितृविसर्जन के समय दीपक भी जलाया जाता है। दीपक के अनेक प्रकार होते हैं , जैसे -मानिक दिवला , चौमुख दिवला आदि ।दीपक के गीत  गाये जाते हैं – भरे भरे दिवला जोरती मोय मुर-मुर देत  देव अशीष। गोवर्धन और यमुना जी का दीपक जलाया जाता है। जमदीया प्राप्त करने पर ही यमपत्नी  की माँ नरक के बंधन से मुक्त होती है। देवता की पूजा  हो या पितर का तर्पण हो ,  भारत की लोकसंस्कृति में दीप प्रज्वलित करने का बहुत महत्त्व है। 

पीपल इत्यादि वृक्षों के नीचे दीपक जलाया जाता है। आज भी अनेक समारोहों के उद्घाटन दीप-प्रज्वलन के साथ ही किया जाता है।  दीपावली का पर्व दीपदान का ही पर्व है। दीपावली के दूसरे दिन सवेरे दरिद्र का विसर्जन किया जाता है, उस समय  भी दीपक जलाया जाता है।

     दीपावली अत्यन्त प्राचीन त्यौहार है और वह केवल एक त्यौहार नहीं है,  अनेकानेक त्यौहार उसमें अन्तर्भुक्त हैं। यह अन्तर्भुक्ति ही उसे राष्ट्रीय त्यौहार बनाती भी है , जिसका विस्तार इतना व्यापक बन सका है। उससे यम का सूत्र भी जुड़ा हुआ है। यम का दीपक और यम संबंधी अनुष्ठान भी यमद्वितीया दीपावली के विस्तार में मौजूद हैं.  यम का सूत्र वैदिक काल से जुड़ जाता है !यम दक्षिण-दिशा का दिग्पाल है. समस्त प्राणियों के पाप-पुण्य का निर्णायक और नियामक है , इसलिये इन को धर्मराज भी कहा गया है। यम विवस्वान के पुत्र है.  यम की जुडवां- बहन का नाम है यमी। जब यमी ने यम से रति-प्रस्ताव किया तब यम ने इसे अधर्म के रूप में निरूपित किया। 

     आगे चल कर यम को मृत्यु के देवता और पितरों के अधिपति के रूप में चित्रित किया गया। सावित्री को इन्होंने सत्यवान के जीवित होने का वर दिया था।

कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद है , जिसमें यम ने बताया था कि मृत्यु के बाद प्राण नष्ट नहीं होते , उसे कर्म के अनुसार गति प्राप्त होती है। यहां यम एक आचार्य के रूप में हैं। इनका गौतम से भी संवाद हुआ। यमगीता में यम का यमदूतों से संवाद है। यम भारतीय-मिथकशास्त्र का एक महत्वपूर्ण चरित्र है। मिथक-विकास की निरन्तर- प्रक्रिया में अन्य मिथकीय-व्यक्तित्वों की तरह यम के व्यक्तित्व पर भी अन्य चरित्रों का अध्यारोपण होता रहा है। 

     दीपावली को राम के अयोध्या-आगमन से जोड़ा जाता है , यह लोकमान्यता का ही एक रूप है।दीपावली का सूत्र  व्यापार हाट -हटरी  और जूआ से भी जुड़ा हुआ है , व्यापार का यह सूत्र कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ,पुराने खाते बंद होकर नये खाते शुरू करने और नयी बही की पूजा होती है।नरकासुर असम का राजा था। अन्यायी था , नरक-चतुर्दशी को उसको परास्त किया गया था।  

     समुद्र-मंथन का मिथक दीपावली से जुड़ा हुआ है – चौदह रत्न और धन्वन्तरि का प्राकट्य। धन्वन्तरि आयुर्वेद के प्रवर्तक-आचार्य थे।धन्वन्तरि- त्रयोदशी लोक में धनतेरस बन गयी। धन्वन्तरि के अमृतकलश का सूत्र भी समुद्रमन्थन [दीपावली के पर्व ] के साथ है.  लक्ष्मी का प्रादुर्भाव भी समुद्रमन्थन से जुड़ा हुआ है. कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बलि-प्रतिपदा भी कहते हैं और इस दिन बलि पूजन होता है। बलिराज्य चतुर्दशी से तीन दिन चलता है। 

    हिन्दू होलीडेज एंड सेरिमोनियल्स में रायबहादुर बीए गुप्ते ने महाराष्ट्र के लोकजीवन का उल्लेख किया है कि वहाँ स्त्रियाँ चावल के आटे से या गोबर से राजा बलि की मूर्ति बनाती हैं और उसकी पूजा करके कहती हैं कि राजा बलि का साम्राज्य पुन: प्राप्त हो. राजा बलि का उल्लेख ब्रज के गीतों में भी आता है.

     दीपावली  के त्यौहार से कितने सांस्कृतिक-परिवर्तन जुड़े हुए हैं , भारतीय लोकसंस्कृति के अध्येता के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है। ब्रज के गोपों में दीपावली इन्द्रपूजा का त्यौहार था।

श्री कृष्ण के समय में  ब्रज में इन्द्रपूजा होती थी , अब इन्द्रपूजा नहीं होती है। परंपरा में परिवर्तन का यह एक उल्लेखनीय उदाहरण है. कृष्ण ने नन्दबाबा से पूछा – हमारे यहां यह क्या हो रहा है? किस देव की पूजा की तैयारी हो रही है ?नन्दबाबा ने उत्तर दिया कि – बेटा , इन्द्र मेघों का स्वामी देवता है , वह वर्षा करता है। हम उसकी मान्यता करते हैं। उसकी पूजा करते हैं। यज्ञ करते हैं. यह हमारी पुरानी रीत है. सूरसागर में पद हैं :

ये ई हैं कुल देव हमारे।

दीपमालिका के दिन पांचक गोपन कह्यौ बुलाई।

करौ बिचार इन्द्रपूजा कौ जो चाहौ सो लेहु मंगाई।

अथवा

पूजा करत इन्द्र की जानी।

     बहुत स्पष्ट बात है और वह यह कि ब्रज की लोकपरंपरा में गोवर्द्धन-पूजा दीपावली के विस्तार में विद्यमान है. भागवत की कृष्णकथा में इन्द्रपूजा के स्थान पर गोवर्द्धन-पूजा की प्रतिष्ठा हुई. ब्रज में इससे पहले दीपावली के दिन इन्द्रपूजा होती थी , यह बात सूरदास जी ने बहुत विस्तार से लिखी है.

    आज दीपति दिव्य दीपमालिका।

मनहु कोटि रवि चन्द्र कोटि छवि , मिटि जु गई निसि कालिका।

गोकुल सकल विचित्र मनिमंडित सोभित झाक झब झालिका।

गज मोंतिन के चौक पुराये , बिच-बिच लाल प्रवालिका।

झलमल दीप समीप सोंज भरि कर लै कंचन थालिका।

गावत हंसत गबाय हंसाबत पटकि-पटकि कर तालिका।

नन्द द्वार आनन्द बढ्यौ अति दिखियत परम रसालिका।

सूरदास कुसुमनि सुर बरसत करसंपुट करि मालिका।

(सूरदास) 

*तम के विरुद्ध :*

     दीपावली की लोककहानी के  तीन रूप प्रस्तुत किये हैं. ये दक्षिणभारत , बंगाल और उत्तरभारत में प्रचलित हैं।

     नटेश शास्त्री ने दक्षिण -भारत की जो कहानी दी है उसका सार यह है :गरुड़ पक्षी किसी राजा की अंगूठी उड़ा लाया। वह अंगूठी उसने एक सगुनी के घर में डाल दी। वह उसे लेकर राजा के पास गया। राजा अंगूठी पाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

     उसने कहा— कुछ माँग। राजा का हठ देखकर उस व्यक्ति ने विचित्र माँग रखी कि प्रति शुक्र को सब घरों में अंधेरा रहे केवल मुझे ही अपना घर प्रकाशित करने दिया जाय। राजा ने स्वीकार कर लिया। शुक्रवार को समस्त राज्य में अंधेरा देखकर लक्ष्मी उसके घर ही आयी। इस प्रकार उसकी दरिद्रता सदा के लिए दूर हो गयी। 

बंगाल में लक्ष्मी पूजा की एक कहानी में राजपुत्री ने वरदान माँगा कि उसके घर को छोड़ कार्तिकी अमावस्या को और किसी के घर प्रकाश न हो। राजपुत्री का राजा ने एक बहुत दरिद्र से विवाह कर दिया था। राजपुत्री ने अपने पति से कहा था कि तुम्हें मार्ग में जो वस्तु मिले ले आना। उसे एक मरा हुआ सांप मिला। राजपुत्र बीमार हुआ और वैद्यों ने बताया कि मरे साप के सिर से यह अच्छा हो सकता है। राज पुत्री मरे सांप का सिर ले गयी, राजपुत्र अच्छा हो गया, और तब राजपुत्री ने वह वरदान मांगा। राजपुत्री के लक्ष्मी आ गयी।

     बंगला कहानी इससे आग बढ़कर यह बताती है कि राजा दरिद्र हो गया और पुत्रों के यहां भिक्षार्थ पहुँचा। उसने पिता को पहचाना और लक्ष्मी पूजा की विधि बतायी, आदि। 

     अवध में दिवाली की कहानी की भूमिका में एक ऐसा घर है जिसमें सात लड़के और छः बहू  थी, सबके अलग-अलग चूल्हे थे सब लड़ते थे। सातवीं बहू आयी तो उसने एक चूल्हा किया। पहली छः मायके चली गयीं। वह अकेली सब भाइयों को खिलाती। उसने कहा सभी भाई कमा कमा कर लाओ, जिसे कमाई न मिले, वह कोई चीज ही लाये। एक दिन सबसे बड़े भाई को काम नहीं मिला तो वह रास्ते में पड़े सांप की खुली उठा लाया। 

      अवध की बहू चतुर थी। उसने उस अमावस्या को खूब रोशनी की घर के कोने-कोने में कोने कोने को मूसल से पीटा।  दरिद्र भाग गया प्रकाश देखकर लक्ष्मी आ गयी। दोनों से बहू ने वचन ले लिया।

    उस गांव में एक बडी-बूढी बडे श्रद्धा-विश्वास के साथ लक्ष्मी की कथा सुना रही है , सब बालबच्चे हाथ में थोडी खील ले कर कहानी सुन रहे हैं ,आज रात को लक्ष्मी अपने घर में आवेंगी , चलिये आप भी हाथ में थोडी खील ले कर वह पवित्र कथा सुन लीजिये -भाट और भटियारिन की कथा।

    कंगाली थी।भाट से भटियारिन ने कहा कि – कुछ कमा के ही नहीं लाता , घर में आवे तो कुछ ले कर आया कर। भाट घर लौट रहा था तो एक मरा हुआ सांप पडा था। उसने सोचा , चलो इसी को ले चलूं , नहीं तो भटियारिन कहेगी कि खाली आ गया। भटियारिन ने मरा सांप छप्पर पर पटक दिया। उधर राज्य की रानी अपनी मोतीमाला उतार कर सरोवर में नहा रही थी कि चील उसकी माला ले कर उडी।

   भटियारिन के छप्पर पर मरा सांप था , चील ने उसे उठाया और माला पटक दी। भटियारिन ने माला ले ली।

    उधर राजा की ओर से मुनादी फिरी कि माला ला कर देगा उसे मुंहमांगा इनाम दिया जायेगा। भटियारिन पंहुच गयी ।रानी ने इनाम मांगने को कहा तो भटियारिन बोली – दीपावली की रात मांगती हूं। इस रात केवल मेरे यहां ही दीप जलें। चारों ओर अंधेरा देख कर लक्ष्मी ने भटियारिन का दरवाजा खटखटाया।

    भटियारिन ने कहा – लक्ष्मी, तू चंचळा है , पहले कौल-करार कर कि मेरी सात पीढियों तक तू मेरे यहां रहेगी। लक्ष्मी अंधेरे में घबरा रही थी , बोली – भागमान ऐसे ही सही। तू दरवाजा खोल। लक्ष्मी भटियारिन के घर आयी और भटयारिन के यहाँ चारों कोने , पांचवीं देहरी – सुख ही सुख , समृद्धि ही समृद्धि.

    भटियारिन के यहां चारों ओर सुख-समृद्धि बिखर गयी। हाथ की खील लक्ष्मी-गणेश पर चढा दीजिये। जय लक्ष्मी परमेश्वरी.  जैसे भटियारिन के यहां आयी ऐसे सब किसी के यहां आना. सबके यहां सुख समृद्धि आवे।भगवान  जैसे भटियारिन के दिन बदले ऐसे सब किसी के दिन बदलें , सबके यहां सुख समृद्धि आवे। दीपक की महिमा पर ध्यान दीजिये.

     ध्यान दीजिये कहानी की नायिका भटियारिन है। पहले तो कच्चे ही घर हुआ करते थे , भीत पर गेरू – खड़िया के रंग से यह दीपावली का चित्र बनाया जाता था , इसकी ही पूजा होती थी। जहाँ – कहीं यह चित्र जमीन पर सफेद-रंग के ऊपर नारियल के खोपड़े को जला कर उसकी स्याही से बनाया जाता है. इस चित्र में अंकित अभिप्राय होता है :

   १ चन्दा २ सूरज ३ शिव और गंगा ,४ पार्वती ५ नादिया ६ गणेश ७ पंचमुखी दिया ८ हाथी ९ लक्ष्मी १० कमल ११ सरमन १२ स्याहू १३ स्वस्तिक १४ ग्वारिया १५ द्वारपाल १६ गंगा यमुना १७ छबरिया १८ गोवर्धन १९ तुलसी २० हनुमान २१ तोता।

    ये एक तरह से उन लोगों के मन के चित्र होते है , जिसकी वे लोग विश्वास के साथ पूजा करते हैं. आजकल भी ग्रामों में कुछ घरों में इस परंपरा का निर्वाह होता है।(चेतना विकास मिशन).

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