डॉ. सलमान अरशद
एक शंकराचार्य धर्म संसद में राहुल गांधी को हिन्दू धर्म से निकालने का प्रस्ताव पास करते हैं और ये खबर मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म्स पर दौड़ लगाने लगती है। राजनीतिक विश्लेषक इस स्थिति को राहुल गांधी पर एक खतरे के रूप में देखते हैं।
अब सवाल पैदा होता है कि क्या राहुल गांधी इस ख़तरे से बाहर निकल पाएंगे, और अगर इस ख़तरे से बाहर निकलते हैं तो क्या वो संतों के चरणों में बैठकर माफ़ी मांगेंगे या एक धर्म निरपेक्ष राजनीतिज्ञ की तरह इसे पूरी तरह इग्नोर करते हुए जनसरोकार की राजनीति की तरफ आगे बढ़ेंगे, आइये इसे समझने की कोशिश करते हैं।
आगे बढ़ने से पहले इस पहलू पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि भारतीय राजनीति में अभी तक मुस्लिम धर्म गुरुओं के फ़तवों पर अक्सर चर्चा होती थी और हिंदुत्व की सियासत करने वाले इसे एक मुद्दे के रूप में लोगों के बीच डिस्कस करते थे, अब राहुल गांधी को हिन्दू धर्म से निकालने का जो फतवा आया है, क्या कांग्रेस और उसके सहयोगी इसे भी उसी रूप में पब्लिक डिबेट का हिस्सा बना पाएंगे जैसे मुस्लिम धर्म गुरुओं के फ़तवे बनते रहे हैं, ये एक महत्वपूर्ण सवाल है जिस पर कांग्रेस को सोचना चाहिए।
शंकराचार्य राहुल गांधी से नाराज़ हैं क्योंकि राहुल गांधी ने कहा कि “मनुस्मृति बलात्कारियों को संरक्षण देती है और उनका समर्थन करती है” शंकराचार्य का कहना है कि इससे हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है।
अब सोचना ये है कि क्या मनुस्मृति सच में बलात्कारियों के पक्ष में खड़ी होती है या क्या मनुस्मृति न्याय के असमानतापूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन करती है? बेहतर होता कि कांग्रेस इन सवालों पर खुल कर बात करती और लोगों को बताती कि देखिये ये वो नियम हैं जिन्हें राहुल गांधी ग़लत मानते हैं और जनता को भी ये तय करने का मौका मिलता कि क्या सही या कि क्या ग़लत है।
मनुस्मृति आसानी से कहीं भी मिल जाने वाली क़िताब है, इस पर चर्चा तो पिछले कई सदियों से हो रही है लेकिन इन चर्चाओं को कभी भी इतना विस्तार नहीं मिला कि ये आम लोगों की बहस का हिस्सा बनता, राहुल गांधी और उनके दल के पास ये अवसर है और संचार तकनीक का हर हाथ में होना वो सुविधा है जिसके ज़रिये इस चर्चा को आसान बनाया जा सकता है। हलांकि राहुल गांधी को हिन्दू धर्म से निकालने के प्रस्ताव को पास हुए कई दिन हो चुके हैं, लेकिन ऐसा कहीं होता हुआ नज़र नहीं आ रहा है।
भारत के सियासी जगत में हिंदुत्व की राजनीति की सफ़लता के साथ एक बहुत बड़ा परिवर्तन ये आया है कि मीडिया और जनता के बीच होने वाली चर्चाओं में आर्थिक मुद्दे घटते गये हैं और सामाजिक व धार्मिक मुद्दे लगातार केन्द्रीय स्थान लेते गये हैं, एक और परिवर्तन ये आया है कि हिंदुत्व की राजनीति के सभी धड़े, यानि भाजपा, संघ और उनके साथी संगठन और संत रूपी राजनीतिज्ञों का एक समूह धर्म आधारित सियासत में बेहद आक्रामक हुआ है।
लेकिन इस पूरे काल में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल सुरक्षात्मक रूप से इस आक्रामकता का सामना करते रहे हैं, अक्सर तो सफाई देते हुए ही नज़र आये हैं, आखिर वो कौन सी मजबूरी थी कि राहुल गांधी को अपना जनेऊ दिखाना पड़ा।
जनेऊ दिखाकर, खुद को ब्राह्मण साबित करते हुए राजनीति करना यही साबित करता है कि ब्राह्मण भारतीय समाज का सबसे शक्तिशाली समूह है और जब बात हिंदुत्व और मनुस्मृति की आती है तो भी यही समूह शक्तिशाली है, ऐसे में राहुल गांधी उपेक्षितों के साथ कैसे खड़े हो पाएंगे, ये सवाल तो है।
राहुल गांधी को लगातार हिन्दू विरोधी साबित करने की कोशिश होती रही है, हलांकि अभी तक इसमें सफलता नहीं मिली है, लेकिन शंकराचार्य के ज़रिये हिन्दू धर्म से बहिष्कृत करने के मामले को इस दिशा में बड़ा कदम माना जा सकता है, साथ ही ये सवाल भी अहम है कि एक राजनेता के काम महत्वपूर्ण हैं या उसका धर्म, कम से कम भारतीय जनता पार्टी अभी तक यही साबित करती रही है कि धर्म महत्वपूर्ण है और उसे इसमें किसी हद तक राजनीतिक सफलता भी मिलती रही है।
यहां ये भी जानना ज़रूरी है कि आखिर राहुल गांधी पर हिंदुत्वा समूह इतना हमलावर क्यूं है। पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस पर बहुत खुल कर हमला किया है, ऐसा ही हमला दूसरे राजनेताओं ने नहीं किया, यही नहीं खुद कांग्रेस के नेताओं ने भी संघ और भाजपा पर राहुल गांधी की तरह हमला नहीं किया।
राहुल गांधी को हिन्दू विरोधी साबित करने की ये एक बड़ी वजह है क्योंकि संघ और भाजपा अपने समूह को हिन्दू धर्म के सरंक्षक के रूप में ही पेश करते हैं, ऐसे में अगर राहुल गांधी हिन्दू विरोधी साबित हो जाते हैं तो वो स्वमेव हिन्दुओं के दुश्मन मान लिए जायेंगे।
इसके अलावा राहुल गांधी इधर जाति आधारित राजनीति में भी घुसपैठ करते हुए नज़र आ रहे हैं, वो जाति जनगणना का सवाल लगातार उठा रहे हैं, अगर जाति जनगणना होती है तो फिर इसी के अनुरूप आरक्षण की व्यवस्था का भी विस्तार होगा, अब यहीं पर कई चुनौतियां भी नज़र आती हैं।
सबसे पहले तो हिन्दू धर्म के वे चिन्तक, संत महात्मा हैं जो जाति व्यवस्था को हिन्दू समाज व्यवस्था का धार्मिक आधार मानते हैं और जो चाहते हैं कि इसमें किसी भी तरह का छेड़छाड़ न किया जाए। हलांकि जाति व्यवस्था के शास्त्रीय स्वरूप को समय ने पहले ही काफ़ी बिगाड़ दिया है।
दूसरी चुनौतियां वो राजनीतिक दल हैं जो पहले ही जाति आधारित राजनीति करते रहे हैं, अगर राहुल गांधी इस मोर्चे पर सफल होते हैं तो उनकी राजनीतिक ज़मीन खिसक जाएगी, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती ख़ुद कांग्रेस के लोग हैं।
कांग्रेस एक ऐसी पार्टी रही है जिसमें सवर्णों का ही हमेशा वर्चस्व रहा है, विचारधारा में भारी अंतर के बावजूद कांग्रेस और बीजेपी में ये आसानी से आते-जाते रहते हैं, ऐसे में क्या ये जाति के सवाल पर उसी तरह स्टैंड ले सकेंगे जैसा राहुल गांधी लेते हुए दिखाई देते हैं? यहीं पर ये सवाल भी बहुत अहम हो जाता है कि क्या राहुल गांधी शंकराचार्य के इस हमले के बाद भी दलितों के पक्ष में खड़े हुए दिखाई देंगे या रास्ता बदल लेंगे।
मनुस्मृति औपचारिक रूप से देश का संविधान नहीं है लेकिन भारत की समाज व्यवस्था पर नज़र डालें तो मनुस्मृति संविधान से कहीं ज़्यादा ताकतवर नज़र आती है। भारत का धार्मिक हिन्दू और हिन्दू धर्म के संत संविधान नहीं बल्कि मनस्मृति के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते रहे हैं, ऐसे में जाति आधारित समाज व्यवस्था में वो किसी भी तरह के रद्दोबदल को पसंद नहीं करते।
संघ की राजनीतिक सफ़लता दरअसल मनुस्मिति पर आधारित समाज व्यवस्था को बहाल करने की दिशा में सवर्ण हिन्दुओं की कोशिशों की भी सफ़लता है, राहुल गांधी के सामने इसलिए फ़िलहाल दो ही रास्ते हैं, या तो वो व्यापक जनसमुदाय के हित में आगे बढ़ते हुए हिंदुत्वा समूह के हमलों को झलने के लिए तैयार रहें या इनके सामने घुटने टेक कर इन्हीं के गिरोह में शामिल हो जायेंगे, हालांकि मुझे लगता है कि राहुल गांधी और उनकी टीम इस मामले पर खामोशी को तरजीह देगी, यानि एक बार फिर संघ की आक्रामकता के सामने सुरक्षात्मक खेलेगी, हालांकि अगर वो अपने तेवर को बरक़रार रखते हैं तो भारतीय राजनीति की गुणा-गणित में बड़ा बदलाव आएगा।