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उर्फी जावेद सी महिलाएं साहित्यकारों से बेहतर 

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(आज तक टीवी चैनल द्वारा साहित्यकारों के कार्यक्रम में उर्फी जावेद को चीफ गेस्ट बनाने पर मचे कोहराम का प्रकरण)

         शिफ़ा ख़ान, फेसमॉडल 

मेरे इस लेख का विषय किसी से तुलना करके किसी को अच्छा/बुरा ठहराने का नहीं है, न ही किसी का मज़ाक उड़ाने का है। मुद्दा सिर्फ़ सच लिखना है.

       उर्फ़ी की कोई अपनी स्वतंत्र अस्मिता नहीं है। वह पहनावे और फ़ैशन का जो ढब प्रस्तुत करती हैं, वह स्त्री शरीर के वस्तुकरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह बुर्जुआ कल्चर इण्डस्ट्री और उसी से सम्बद्ध फ़ैशन इण्डस्ट्री के एक टूल से अधिक कुछ भी नहीं हैं। 

       यह कल्चर इण्डस्ट्री जिस उपभोक्ता समाज के लिए अपने उत्पाद तैयार करती है उसकी बीमार सांस्कृतिक अभिरुचियों में से मर्दवादी यौन पिपासा एक अहम घटक है। 

उर्फ़ी जैसों की कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं होती। वह उस बाज़ार तंत्र की एक ग़ुलाम हैं जिसकी सूत्रधार प्रोमोटर व प्रायोजक कम्पनियांँ, मुनाफ़े में हिस्सा बँटाने वाली विज्ञापन एजेंसियाँ, मीडिया मुगल्स और फ़ैशन डिज़ाइनर्स आदि होते हैं।

        उर्फ़ी जैसी तो सिर्फ़ कठपुतलियांँ होती हैं। उर्फ़ी की अल्पवस्त्रता उनकी वैयक्तिक नागरिक स्वतंत्रता से नहीं, कल्चर इण्डस्ट्री और फ़ैशन इण्डस्ट्री की माँग से निर्धारित होती है। बीच पर कम कपड़े या नग्नता किसी नागरिक का अपना स्वतंत्र चयन होता है, चाहे मर्दवादी कामपिपासु मनोरोगी और रूढ़िवादी स्त्रियाँ उसे जिस निगाह से देखें। उर्फ़ी जैसों की दुनिया एक अलग दुनिया है।

      कोई संजीदा आदमी या स्त्री उर्फ़ी का मजाक भला क्यों उड़ायेगा, या आलोचना भला क्यों करेगा! हाँ, यौन मनोरोगी मर्दों या विचारहीन “नैतिकतावादी” स्त्रियों की बात और है। मज़ाक, आलोचना और भर्त्सना के पात्र तो वे तथाकथित प्रगतिशील कवि-लेखक-संस्कृतिकर्मी हैं जो एक फ़ासिस्टी गोदी मीडिया का मंच सजाने में उर्फ़ी जावेद के साथ भागीदारी करके अपनी “प्रगतिशीलता” को बुर्जुआ कल्चर इण्डस्ट्री का भी एक हिस्सा बना रहे हैं।

      बाहर गजब की कविता , कहानी लिखने वाले और भीतर से सड़े गले , स्त्रिद्वेषी , पुरुषद्वेषी , रूढ़िवादी , धर्मान्ध , डरे हुए , सुविधानुसार व्यवहार करने वाले , असमानता से भरे कुछेक उन साहित्यकारों ( महिला पुरुष दोनों ) से लाख बेहतर हैं वे स्त्रियाँ जो जैसी भीतर हैं , वैसी ही बाहर भी दिखती हैं। 

      उनका वैसा दिखना उनकी रोजी रोटी निभाता है।  उनके काम की मांग है। दुनिया उनके आगे पीछे डोलती है। उनको भला बुरा कहती है। उनको छुप छुप के देखती है। उनको लाख गलियाती है पर उनको इग्नोर नहीं कर सकती।

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