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स्त्री विमर्श और समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार

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महान समाजवादी नेता और प्रखर चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक और उपयोगी नजर आते हैं। समाजवाद को एक नया आयाम देने वाले लोहिया ने कहा भी था, “लोग मुझे सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद।” लोहिया के चले जाने के इतने सालों बाद आज जब देश की राजनीति में भी इतना बदलाव आ गया है, तब भी लोहिया अपने मौलिक चिंतन से समय-समय पर देश को सतर्क करते और एक नई दिशा देते नजर आते हैं।

किताब ‘भारत के शासक’ के संपादक ओंकार शरद लिखते हैं, “लोहिया ऐसे इतिहास पुरुष हो गए हैं, जैसे- जैसे दिन बीतेंगे, उनका महत्व बढ़ता जाएगा।” गैर-बराबरी को लेकर बेचैनी और समरसता की खोज ने लोहिया को राजनीति तक ही सीमित न रखकर समाज और संस्कृति के संबंध में देश के हालातों पर चिंतन करने को मजबूर किया। उन्होंने जाति, मार्क्सवाद, गांधीवाद, जेंडर, भाषा, शिल्प, इतिहास, समाजवाद, खेल, अर्थशास्त्र और दर्शन जैसे विषयों पर विस्तार से अपने विचार प्रकट किए और नई सभ्यता के रूप में समाज की परिकल्पना की। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों को बखूबी पहचाना और उन पर मुखरता से लिखा भी।

लोहिया ने अपने समय से आगे बढ़कर चिंतन किया और भावी बदलाव की बयार बहुत पहले ही ला दी थी। उनकी समाजवाद की परिभाषा उनकी भिन्न और मौलिक विचारधारा को बहुत हद तक स्पष्ट करती है जो कुछ इस प्रकार है, “ऊंचों के बारे में क्रोध भी समाजवाद नहीं है और नीचे के बारे में अलगाव भी। शोषण के विरोध में क्रोध और छोटों के प्रति करुणा का नाम समाजवाद है।”

कहने को तो हम कह देते हैं कि हम बड़े आधुनिक लोग हैं। हर मुद्दे पर अपने विचार बेबाकी से रखते हैं, हिचकते नहीं लेकिन जब बात महिलाओं के संदर्भ में हो तो एक चुप्पी हमें घेर लेती है। हमारा बेबाकीपन पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गठित महिला चरित्र के संकीर्ण विचारों से ही कहीं दबकर रह जाता है। लेकिन लोहिया की मुखरता में ऐसा कोई अपवाद नजर नहीं आता। उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र ‘समाज’ के ही एक भाग महिलाओं को भी समान अधिकार दिए जाने की वकालत पूरी शिद्दत से की। उन्होंने इस पक्ष पर खूब ज़ोर दिया कि जब तक दलितों और औरतों की सोई हुई आत्मा नहीं जागती और उसे फूलने-फलने की कोशिश नहीं होगी तब तक भारत की तरक्की संभव नहीं हो सकेगी। वह कहते हैं कि सारी राजनीति में कम्यूनिस्ट हो, कांग्रेसी हो या समाजवादी, सबने जान- बूझकर या परंपराओं के अधीन होकर एक राष्ट्रीय सहमति पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं जिसमें शूद्रों और औरत को दबाकर रखो और राजनीति से दूर रखो।औरत और मर्द के बीच गैर-बराबरी को लोहिया ने समाज में व्याप्त सभी तरह की गैर- बराबरी की बुनियाद की चट्टानों में सबसे बड़ी चट्टान बताया। वह चाहते थे कि स्त्री और पुरुष दोनों ही उस मनोवैज्ञानिक जाल से बाहर आएं जिसमें वे सदियों से फंसे हुए हैं।

लोहिया के मुताबिक घरेलू और सार्वजनिक स्तर पर नीति-निर्माण की प्रक्रियाओं में भागीदारी महिला सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण संकेतक है। लोहिया कहते थे कि सशक्तीकरण का लक्ष्य तीन बातों पर निर्भर करता है। पहला लोगों के ह्रदय, दूसरा उनकी ज़िंदगी और तीसरा सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाना।

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण का मुद्दा

पिछले कुछ दशकों से चर्चा का विषय रहा है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अन्य प्रयास किए जाने की भी ज़रूरत है। राम मनोहर लोहिया ने जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की समान सहभागिता सुनिश्चित करने की लड़ाई लड़ी। लोहिया इस विषय में पूरी तरीके से आश्वस्त थे कि भारत की अवनति के लिए जातिगत और लैंगिक भेदभाव मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। उनका मानना था कि भले ही राजनीति में महिलाओं को आरक्षण दे दिया जाए लेकिन जब तक महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होती हैं तब तक समानता और विकास का सपना कोसों दूर ही रहेगा। लोहिया का ये विचार आज के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सही साबित होता है क्योंकि हम देख सकते हैं कि महिलाओं की राजनीतिक आजादी पर सामाजिक और आर्थिक स्थिति का कितना ज्यादा प्रभाव पड़ता है। राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व इसकी मुख्य बाधाओं में से एक है।

लोकनीती CSDS (Centre for Study of Developing Societies) और कोनराड एडेनॉयर स्टिफटंग (Konrad Adenauer Stiftung)” की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश महिलाओं का मानना है कि भारतीय मतदाता महिला उम्मीदवारों की तुलना में उनके समकक्ष पुरुषों के पक्ष में अधिक मत देते हैं। इसके अलावा सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की बात करें तो सर्वेक्षण रिपोर्ट के ही मुताबिक दलित-बहुजन जाति की महिलाओं की तुलना में सवर्ण जाति की महिलाओं का राजनीति में हिस्सा लेना आसान है। साथ ही घरेलू जिम्मेदारियां, जागरूकता का अभाव, शैक्षिक पिछड़ापन, रूढ़िवादी सोच, आम लोगों में राजनीति की नकारात्मक और भ्रष्टाचार वाली छवि और महिलाओं को लेकर राजनीतिक पार्टियों की उदासीनता भी ऐसे कारणों में सम्मिलित हैं जो महिलाओं की राजनीतिक सक्रियता में बाधक बनते हैं। इसलिए लोहिया इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाए जाने की बात करते हैं जिससे समाज में व्याप्त रूढ़ियां खत्म हो और महिलाओं को बराबरी का हक मिले।

महिलाओं को हो यौन व्यवहार की आज़ादी

लोहिया के विचार उनके समय के नारीवादी विमर्श से कहीं आगे की बात करते हैं। वह यौन आचरण पर बेबाकी से अपने विचार प्रकट करते हैं। उनके मुताबिक यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध हैं, बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना, दूसरों को तकलीफ पहुंचाना। वह भारतीय समाज में यौन शुचिता को लेकर व्याप्त दोहरे मापदंड़ों का विरोध करते हुए कहते हैं, ”हिंदुस्तान आज विकृत हो गया है। यौन- पवित्रता की लंबी-चौड़ी बातों के बावज़ूद आमतौर पर विवाह और यौन संबंध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं। सारे संसार में कभी न कभी मर्द व औरत के संबंध शुचिता, शुद्धता, पवित्रता के बड़े लंबे- चौड़े आदर्श बनाए गए हैं। घूम-फिरकर इन आदर्शों का संबंध शरीर तक सिमट जाता है और शरीर के भी छोटे से हिस्से पर।”

स्त्री का देह, यौनिकता और चरित्र सदियों से पितृसत्तात्मक मर्यादाओं के गुलाम रहे हैं। स्त्रियों के ऊपर प्रभुत्व की इस प्रणाली पर लोहिया ने प्रहार करते हुए कहा था कि कई हजार बरस से मर्द का दिमाग पितृसत्ता के आधार पर बहुत ज्यादा गठित हो चुका है। उसने अपने हित के लिए कुछ नियम बनाकर औरतों पर थोप दिए हैं जैसे कि उसका दूसरे पुरुष से स्पर्श न हो। शादी के पहले हरगिज़ न हो, बाद में अपने पति से हो। लड़की को विवाह हो जाने तक शुचिशुद्ध और पवित्र बनाकर रखा जाता है। भले ही ऐसे विचार मर्द के लिए सारे संसार में कभी न कभी स्वाभाविक रहे हैं, लेकिन भारत में इन विचारों की जड़ें और प्रस्फुटन मिले, अनिर्वचनीय है।

घरेलू हिंसा पर लगे लगाम

महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के सबसे घिनौने और जटिल स्वरूप घरेलू हिंसा पर भी लोहिया ने गंभीर चिंता प्रकट की। उन्होंने इसके लिए मर्दवादी मानसिकता के साथ-साथ घोर विषमता वाली व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया जिसमें बलवान कमजोर पर अपना जोर चलाता है। लोहिया के अनुसार, ”भारतीय मर्द इतना पाजी है कि औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं, लेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैं इतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान का मर्द सड़क पर, खेत पर, दुकान पर इतनी ज्यादा ज़िल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता है, जिसकी सीमा नहीं। जिसका नतीजा होता है कि वह पलटकर जवाब तो दे नहीं पाता, दिल में भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता है, तो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है। फिर जब औरतों को गुस्सा चढ़ता है तो औरतें बच्चों पर उतारती हैं और ऐसे ही देश पर चीन जैसा देश आक्रमण करता है। जुल्म का चक्र चलता रहता है।” लोहिया इस चक्र को तोड़ने की बात करते हैं।

प्रजनन पर महिलाओं का हो पूरा हक

वैसे तो महिलाओं के महिलाओं के प्रजनन के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में मान्यता 1994 में ही मिल गई थी। कायरो में हुई इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एंड डवलपमेंट में 179 देशों की सरकारें इस बात पर राजी हुई थीं कि महिला सशक्तीकरण और प्रजनन के अधिकार को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता है। इन दोनों का आपस में एक संबंध है और समाज के विकास के लिए दोनों ही महत्वपूर्ण हैं लेकिन कॉन्फ्रेंस के इतने सालों बाद भी महिलाओं को प्रजनन पर अधिकार नहीं मिला है। आज भी यह वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय है। आज भी सेक्स और प्रजनन के कानूनी अधिकारों को सुधारने की मांग जारी है जिसमें महिलाओं को अब तक सफलता हाथ नहीं लगी है। राम मनोहर लोहिया उस वक्त अबॉर्शन पर कानूनी अधिकार की बात करते हैं। लोहिया के मुताबिक स्त्री- पुरुष संबंधों में पसंद-नापसंद, बलात्कार, अबॉर्शन और दुराचार से अगर बचना चाहते हैं तो लोगों को संकीर्णता के सिद्धांत को पुनर्गठित करने की आवश्यकता है।

लोहिया ने समाज में व्याप्त आदर्श नारी की उस अवधारणा को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें एक स्त्री से पतिव्रता होने की अपेक्षा की जाती है।

दहेज और पर्दा प्रथा का विरोध

लोहिया दहेज लेने और देने के भी खिलाफ थे। वह दहेज के खिलाफ विरोध न करने की महिलाओं की मजबूरी भी समझते हैं। वह कहते हैं कि गुजरात में दो- तीन औरतें रोज दाह करती हैं, वे समाज दाह क्यों नहीं करतीं क्योंकि वे सर्वथा जकड़ दी गई हैं। लोहिया के मुताबिक बेटे- बेटियों की शादी करने की जिम्मेदारी माता- पिता की नहीं होती है। उनकी जिम्मेदारी बस इतनी है कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें। इसके साथ ही लोहिया अविवाहित मांओं को भी समाज और पड़ोस से उस स्नेह और सम्मान मिलने की पैरवी करते हैं जो कि एक शादीशुदा मां को मिलता है। वह पर्दा और बुर्का का भी विरोध करते हैं और इस पर कानून बनाए जाने की बात करते हैं।

भारतीय नारी का आदर्श सावित्री नहीं, द्रौपदी हो

लोहिया ने समाज में व्याप्त आदर्श नारी की उस अवधारणा को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें एक स्त्री से पतिव्रता होने की अपेक्षा की जाती है। वह सावित्री के बरअक्स नारीवाद के प्रतीक के रूप में द्रौपदी को स्थापित करते हैं। वह कहते हैं कि केवल एक पतिव्रत धर्म के कारण सावित्री को इतना सिर पर उठाना अनुचित बात है। यह दिखाता है कि हम लोगों का दिमाग मिथ्याभिमानों और गलत प्रतीकों के कारण कितना कूड़मगज और मर्दों के हितों की रक्षा करने वाला हो गया है। हालांकि लोहिया के मन में सावित्री के लिए सम्मान था लेकिन वह नहीं चाहते थे कि स्त्रीत्व को निष्ठा जैसे गुणों तक ही सीमित कर दिया जाए। वह द्रौपदी को महाभारत की नायिका कहते हैं जो समझदार, बहादुर, हिम्मतवाली और हाजिरजवाब थी। लोहिया कहते हैं कि बावज़ूद इसके आज भी भारत में लोग द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी के रूप में ही याद करते हैं और उसकी खास बातों की तरफ गौर नहीं करते। वह लिखते हैं, ”यह आज के सड़े-गले हिंदुस्तान की पहचान है कि लोग इस तरह के सवालों पर अधिक दिमाग लगाते हैं कि किस औरत के कितने पति हैं, कितने प्रेमी हैं। यह जरूरी नहीं कि किसी औरत के एक से ज्यादा पति या प्रेमी हों, जिस तरह ये जरूरी नहीं कि एक मर्द के एक से ज्यादा कोई प्रेमिका या पत्नी हो। अगर एक-एक ही हो तो शायद ये दुनिया अच्छी होगी।” 

लोहिया समझते थे कि हमारा भारतीय समाज धार्मिकता को अधिक महत्व देता है इसलिए उनका चिंतन परंपरा और इतिहास के प्रतीकों से भरा हुआ है। वह समाज में व्याप्त उस मानसिकता का भी विरोध करते हैं जिसमें स्त्री की उन्नति को केवल महिलाओं का और मर्दों की उन्नति को पूरे देश का गौरव माना जाता है। इसके लिए वो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण देते हैं। लोहिया कहते हैं, ”ऐसा लिखा गया है कि लक्ष्मीबाई ने भारतीय नारी का गौरव बढ़ाया है। मैंने तो यही सीखा था कि लक्ष्मीबाई ने भारत का गौरव बढ़ाया है। भारत के सभी जन- गण का। इस तरह से तो शिवाजी और सुभाष चंद्र बोस पर भी लिखा जाना चाहिए कि उन्होंने भारत के मर्द का गौरव बढ़ाया। लेकिन उन्होंने भारतीय नारी का गौरव भी बढ़ाया है और इस तरह लक्ष्मीबाई ने भी भारत के मर्द का भी गौरव बढ़ाया है।” लोहिया का मानना था कि सभी औरतें खूबसूरत होती हैं। कुछ दूसरों से ज्यादा सुंदर होती हैं।

लोहिया हमेशा लीक से हटकर चले। उनकी विद्रोही आत्मा ने कभी भी बने बनाए वादों, सिद्धांतों को नहीं माना। सबको जाना, सबसे सीखा और फिर आलोचना भी की, अब चाहे वह फिर गांधी ही क्यों न हों। वह गांधी के रामराज्य के विचार को खारिज कर सीता- रामराज कायम करने की बात कहते हैं। उन्होंने कहा था कि यदि सीता- रामराज घर- घर पहुंच जाए तो औरत- मर्द के झगड़े हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगे और तब उनके आपसी रिश्ते भी अच्छे होंगे।

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