*राजकुमार जैन*
यूं तो सोशल मीडिया की मार्फत रोज- बरोज नए-नए मुख्तलिफ मुद्दों पर लेख, टिप्पणियां, खंडन- मंडन, आरोप- प्रत्यारोप, घात – प्रतिघात, तोहमत तारीफ, उठा पठक, सीख,अदब, आदर, मस्ती पस्ती, , खुशी गम और गुस्सा, कलम की हमलावर उत्तेजना पैदा करती है।
हर इंसान का दिमागी खलल अलग-अलग तरह का होना कोई अजूबा नहीं, उसी के मुताबिक उसकी जबान और कलम चलती है। इन दोनों मेरे एक नौजवान समाजवादी, समाजशास्त्री जो आइटीम यूनिवर्सिटी ग्वालियर में प्रोफेसर भी है ने अपने ताजातरीन लेख,”सत्य और सत्य की समझ” में एक वैचारिक चर्चा छेड़ी है। उनके लेख पर पहले मैंने बहुत ही छोटी अपनी प्रतिक्रिया लिख दी। उसके बाद मेरे एक और सोशलिस्ट साथी अरविंद जैन जो कि ऊपर से साधारण दिखते हैं तथा हर सभा सेमिनार, वैचारिक मंथन में चुपचाप आखरी लाइन में बैठकर शिरकत करते हैं, परंतु उसके बाद उस वैचारिक दंगल पर उनकी कलम लंबा-लंबा तस्किरा करती है। उन्होंने गौतम के लेख पर अपने नजरिए को पेश कर दिया।
अपनी अपनी पसंद का लेखन है, जैसे मैं हर सुबह उठकर अपने पुराने साथी बनारस यूनिवर्सिटी छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंचल की कलम की इबारत को पढ़ने के लिए बेताब रहता हूं। इस तरह उर्दू अदब के शेरो शायरी मुशायरो, मजलिसों पर बेरहम टांग खींचने, दोयम दर्जे का घोषित करने में कतई गुरेज नहीं करनें,उनको यह हक इसलिए हासिल है क्योंकि उनके वालिद दिल्ली शहर के पुराने क्लासिकल उसूलों से बंधे, नामवर आलिम रहे हैं। मेरे दिल्ली-, 6 के पुराने किस्सागो ठहाके लगाने वाले साथी अजीम अख्तर जो एक साहित्यिक क्रिटिक होने तथा मुख्तलिफ अखबारों पत्रिकाओं में मुसलसल लिखने के साथ-साथ दिल्ली के आल्हा अफसर, एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पद से रिटायर्ड भी है, उनकी किताब “उर्दू तो बेजबान है,किससे करे सवाल” ( देवनागरी लिपि) में इसकी बानगी पढ़ने को मिल जाती है।
बहरहाल रणधीर गौतम के लेख, मेरी टिप्पणी तथा अरविंद जैन की प्रतिक्रिया और गौतम का जवाब आपकी वैचारिक खुराक के लिए पेश कर रहा हूं।
नौजवान राजनीतिक अध्येता, समाजशास्त्री रणधीर कुमार गौतम का लेख “सत्य और सत्य की समझ” में मशहूर समाजविज्ञानियों जॉर्ज गर्डनर, सुकरात, प्लेटो, रॉबर्ट बोलेनो जैसे बाह्य जगत के दार्शनिकों की सूक्तियां के साथ-साथ बुद्ध, गांधी कृपलानी, विनोबा जैसे भारतीयो की आध्यात्मिक तात्विक दृष्टि के साथ-साथ अच्युत पटवर्धन, रामनंदन मिश्र जैसे नामचीन हस्तियों की सूक्तियों की मार्फत ज्ञान चर्चा के गहन उत्तांग शिखर की ओर उद्वेलित करता प्रतीत हो रहा है। समाजशास्त्री नजरिए से यह लेख चमत्कृत करता हुआ सत्यकी सीख अर्थात आध्यात्म ही उसके निर्वाण का मार्ग प्रशस्त करता है, गौतम स्थापित करते हैं। राजनीति तथा अध्यात्म की शक्तियों की तुलनात्मकता में “राजनीतिक में सत्य को कभी नहीं माना गया है, और झूठ को हमेशा एक उचित साधन माना गया” तथा व्यक्ति को आध्यात्मिक गहन खोज की प्रेरणा तलाश करनी चाहिए। अपने पक्ष के सबल तर्क में वे अच्युत पटवर्धन तथा रामनंदन मिश्र का उदाहरण रेखांकित करते हैं। अगर हम इन्हीं दो महान समाजवादी चिंतकों के विचारों की समीक्षा करें तो पाएंगे की दोनों महापुरुषों के राजनीतिक चिंतन क्रियाकलापों से ज्यादा ऊर्जा समाज को मिली है, बनिस्पत आध्यात्मिक परिवेश से। अध्यात्म व्यक्ति विशेष को संपूर्णता की और, अमरता और नश्वरता की तात्विक खोज को पाने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, परंतु व्यापक समाज, राजनीति के सिद्धान्तो, नियमों, साधनों, संस्कारों दिशा निर्देशन से ही संचालित हो सकता है। समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया के विचारों ने जितना समाज को शिक्षित और दीक्षित किया क्या वह किसी आध्यात्मिक संत के द्वारा हो सका? इसलिए राजनीति की व्यापक भूमिका है, अध्यात्म निर्गुण एक आभासी परिकल्पना है,। दोनों की अपनी भूमिका है। हमारे नौजवान समाजशास्त्री रणधीर गौतम उन गिने चुने नव समाजवादी विचारकों की कतार में एक नई आशा का संचार करते प्रतीत हो रहे हैं।