अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 वर्ष 2014 से लगातार कमज़ोर किया जा रहा है सूचना के अधिकार को

Share

राज वाल्मीकि

19 और 20 अक्‍टूबर 2024 को सूचना के अधिकार को लेकर राजस्‍थान के ब्‍यावर में जिस तरह का आयोजन हुआ उसे आरटीआई एक्‍ट में पुन: प्राण फूंकने का शंखनाद कहा जा सकता है। यहां यह बताने का प्रयास किया गया है कि यह जनता के प्रयासों से लाया गया कानून है और जनता ही इसे जिंदा रखेगी। पर वर्तमान सरकार के कार्यकलापों के चलते सूचना के अधिकार के समक्ष कुछ चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।

हाल ही में ब्‍यावर में राजस्‍थान सरकार द्वारा सूचना का अधिकार यानी Right to Information (RTI) का म्‍यूजियम बनाने के लिए एक हेक्‍टेयर भूमि आवंटित की गई। म्‍यूजियम का शिलान्‍यास 20 अक्‍टूबर 2024 को किया गया। इसी संदर्भ में सूचना के अधिकार के अनुपालन पर सवाल उठे। जिस पर यहां चर्चा की जा रही है।

संक्षिप्‍त पृष्‍ठभूमि के तौर पर बताते चलें कि जनता के आंदोलन के बाद सूचना का अधिकार अधिनियम 15 जून 2005 को संसद द्वारा बनाया गया था और राष्‍ट्रपति की अनुमति के बाद 21 जून 2005 को आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचित किया गया था।

इसके बाद 12 अक्‍टूबर 2005 को इसे लागू किया गया था।

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत नागरिकों को सरकार के कामकाज में पारदर्शिता जबावदेही बढ़ाने, भ्रष्‍टाचार रोकने, और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलती है। इस अधिनियम के तहत नागरिक सरकारी दफ्तरों से सवाल पूछ सकते हैं।

राष्‍ट्रीय सुरक्षा से संबंधित दस्‍तावेजों को छोड़कर बाकी की जानकारी देने के लिए सरकारी विभाग के सूचना अधिकारी जिम्‍मेदार होते हैं। उन्‍हें एक महीने के अंदर इसका जबाव देना होता है। जबाव न देने की स्थिति में उन पर अनुशानात्‍मक कार्रवाई होती है।

संवैधानिक कार्यों को लागू करवाने और लोकतंत्र को सशक्‍त बनाने सूचना का अधिकार महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है।

वर्ष 2014 यानी जब से भाजपा सरकार सत्ता में आई है तब से चिंता का विषय है कि सूचना के इस अधिकार को लगातार कमजोर किया जा रहा है।

बता दें कि 1996 में राजस्‍थान के ब्‍यावर में 40 दिन तक सूचना के अधिकार के लिए आंदोलन शुरु हुआ था जिसके निरंतर प्रभाव से 2005 में हमारे देश को सूचना का अधिकार कानून मिला।

लेकिन तब से लेकर अब तक यानी 2024 तक काफी परिवर्तन आया है। ऐसा लग रहा है कि सूचना का अधिकार कानून अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है।

अब सूचना के कानून के तहत जरूरी जानकारी नहीं मिल रही हैं। यहां तक कि सूचना के अधिकारियों की नियुक्तियां भी नहीं हो रही हैं। किसी भी विषय के बारे में यह कह कर जानकारी नहीं दी जाती कि यह राष्‍ट्रीय सुरक्षा का विषय है भले ही विषय राष्‍ट्रीय सुरक्षा का न हो। उदाहरण के लिए अफ्रीका से खरीदे गए चीतों के विषय में आरटीआई के तहत ब्‍योरा मांगा गया तो इसे राष्‍ट्रीय सुरक्षा का विषय बता कर जानकारी नहीं दी गई।

ऐसे समय में राजस्‍थान के ब्‍यावर में जश्‍ने-संविधान मनाया जाता है। आरटीआई के म्‍यूजियम का शिलान्‍यास किया जाना एक सुखद पहल है।

सूचना के अधिकार के लिए राजस्‍थान के ब्‍यावर के किसान मजदूर शक्ति संगठन के सदस्‍यों घूंघट वाली महिलाओं से लेकर मैगसेसे पुरस्‍कार प्राप्‍त सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय, निखिल डे, लाल सिंह और शंकर (जिन्‍हें मामा के नाम से जाना जाता है) जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर लगातार दस वर्षों तक संघर्ष किया।

इस आयोजन में जमीन से जुड़े किसान-मजदूर से लेकर उच्‍च शिक्षित लोगों, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों तक ने शिरकत की।

मैगसेसे अवार्डी अरूणा राय कहती हैं कि सूचना के अधिकार और ब्‍यावर की दोस्‍ती बहुत पुरानी है। सूचना का अधिकार आंदोलन जब 1996 में शुरु हुआ था तब बीड़ी मजदूर, खेतिहर मजदूर मेहनतकशों से लेकर ब्‍यावर शहर के शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, ब्‍यावर के आम नागरिकों सभी ने हमारा साथ दिया था। सब के साथ मिलकर एक ऐसी अद्भूत समझ बनी थी कि यदि लोकतांत्रिकों मूल्‍यों को आगे लेकर जाना है तो हम सभी को एक साथ आना होगा। एकजुट होना होगा। इस तरह ब्‍यावर ने हमें एक रास्‍ता दिखाया था।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एस मुरलीधरन ने कहा कि सूचना का अधिकार लोगों द्वारा लाया गया है। उनके अनुभवों के कारण यह बन पाया था। आगे भी उनके अनुभव काम आएंगे। आगे आने वाले लोग जान पाएंगे कि यह अधिकार क्‍यों लाया गया था। क्‍यों जरूरी है। और हमें इसकी रक्षा करना क्‍यों जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन लोकुर आरटीआई म्‍यूजियम के बारे में कहते हैं कि लोगों के लिए यह म्‍यूजियम महत्‍वपूर्ण साबित होगा। क्‍योंकि आरटीआई के लिए मूवमेंट करीब तीस साल पहले शुरु हुआ था। बहुत से लोगों को इसके बारे में मालूम नहीं है। वे इसके माध्‍यम से जान पाएंगे। और आगे चलकर सूचना के कानून की रक्षा करेंगे।

सामाजिक कार्यकर्ता व पीयूसीएल की राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष कविता श्रीवास्‍तव कहती हैं कि सूचना का अधिकार जनता का हक है। इसके लिए वह अदालत में जा सकती है। अपने अधिकार का इस्‍तेमाल कर सकती है।

इसमें कोई शक नहीं कि सूचना का अधिकार एक सशक्‍त हथियार है जनता के हाथ में। सरकारी मनमानियों को रोकने का एक टूल। क्‍योंकि सरकार को भी कहीं न कहीं यह भय रहता ही है कि जनता आरटीआई के तहत आवेदन देकर कर हमारे कार्यों का लेखा-जोखा ले सकती है। हमारा भ्रष्‍टाचार उजागर हो सकता है। हालांकि सरकार यदि ईमानदार हो तो उसे कोई खतरा सूचना के अधिकार से नहीं है। पर जिस सरकार की नीयत और करनी-कथनी में फर्क होता है उस पर आरटीआई की तलवार लटकती रहती है। यही कारण है कि फासस्टिवादी अघोषित तानाशाही सरकारों की नजर में सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई एक्‍ट 2005) आंखों की किरकिरी बन गया है। इसलिए ऐसी सरकारें आरटीआई एक्‍ट को निरंतर कमजोर करना चाहती हैं। कई प्रकार के बहाने बनाकर जानकारी देने से बचने की कोशिश करती हैं।

ऐसी वर्तमान परिस्थितियों में जनता को विशेष सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है। इस कानून को लाने में जनता ने जिस गंभीरता और कड़ी मशक्‍कत से काम किया था आज उसे बचाने के लिए भी उतनी ही मेहनत, सतर्कता, जागरूकता, एकजुटता की जरूरत है ताकि हमारा यह सूचना का अधिकार कानून जो कि एक सशक्‍त हथियार है भोथरा और औपचारिकता मात्र न बन कर रह जाए।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें