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 इंदिरा गांधी की घोषित और मोदी की अघोषित इमरजेंसी?

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रामशरण जोशी

“सरकार के अवैध व अनैतिक आदेशों का पालन पुलिस, सेना और सरकारी अधिकारी व कर्मचारी न करें”, जयप्रकाश नारायण (इंडियन एक्सप्रेस, 26 जून, 1975;  दिल्ली संस्करण)

भारत में इमरजेंसी दुबारा भी लगाई जा सकती है।”, लालकृष्ण आडवाणी की चेतावनी (बिजनेस स्टैण्डर्ड, 18 जून, 2015;  दिल्ली संस्करण )

आज़ाद भारत में पहली दफा आपातकाल या इमरजेंसी को लगे एक साल कम आधी सदी हो जायेगी। हर वर्ष  25 जून को काले दिवस के रूप में शिद्दत के साथ याद किया जाता है, और भविष्य में भी किया जाता रहेगा। बेशक, 25 जून,1975 को इमरजेंसी देश पर लादना, लोकतंत्र और गणतंत्र की आत्मा व देह पर पहला संवैधानिक कुठाराघात था।

बेशक, देश के पहले लोकतंत्रवादी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का तानाशाही चेहरा जनता के सामने तब उजागर हुआ था। बेशक, वरिष्ठतम नेता व समूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नाडीज, मधु लिमये, राज नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयराजे सिंधिया, श्रीलता स्वामीनाथन, गायत्री देवी जैसे नेताओं सहित हजारों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया था।

बेशक, प्रेस पर सेंसरशिप लाद दी गई थी। कुलदीप नैयर जैसे प्रतिष्ठित पत्रकार भी जेल में रहे। इंडियन एक्सप्रेस सहित छोटे बड़े अखबार और पत्र पत्रिकाएं राज्य आतंक के साये में सांसे लेते रहे। प्रतिरोध के रूप में संपादकीय कॉलम को खाली छोड़ा गया। इस दौर में कांग्रेसी नेताओं की ’इंदिरा चापलूसी’ भी अपने चरम पर थी; तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने नारा उछाला: इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया यानी भारत इंदिरा है, इंदिरा भारत है। देश भर में इस नारे का हर स्तर पर डंका पीटा गया। लोकतांत्रिक संस्थाएं शिथिल पड़ गई थीं। लेकिन, संसद और विधानसभाएं चलती रहीं; अदालतों ने भी अपने काम ज़ारी रखे; अनुशासन अपने चरम पर था, ट्रेनें समयबद्ध रहीं, दफ्तरों में हाजरी नियमित रही और इंदिरा सरकार के 20 सूत्री कार्यक्रम की धूम ग्रामीण व शहरी भारत में खूब रही। बावजूद इमरजेंसी के, भूमिगत प्रतिरोधी गतिविधियां भी खूब चलती रहीं और राजनैतिक बंदी रिहा भी होते रहे। बंदियों की क्षमा याचनाओं पर विचार भी होता रहा।

बेशक, घोषित इमरजेंसी ने भारतीय लोकतंत्र को कलंकित किया था। यह एक विराट दुखद स्वप्न था जिसे जनता ने देखा था। देश के राजनीतिक इतिहास में इंदिरा जी की इस तानाशाही करतूत को कभी मिटाया नहीं जा सकेगा। निश्चित ही उनकी अनेक महान उपलब्धियों को भी यथावत याद रखा जाएगा: बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पूर्व नरेशों के प्रिवी पर्स का खात्मा, पाकिस्तान का विभाजन व सिक्किम का भारत में विलय,  पोखरण में एटॉमिक पावर का विस्फोट, बंधक प्रथा की समाप्ति और ऋण मुक्ति आदि। यह भी सच है कि इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय एकता-अखंडता -धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग ( 31 अक्तूबर, 1984) किया था।

इमरजेंसी की घोषणा से पहले जयप्रकाश जी द्वारा एक सार्वजनिक सभा में सहस्त्र बल और अधिकारियों से सरकार के आदेशों की अवज्ञा की अपील कितनी संविधान सम्मत या लोकतान्त्रिक थी, यह आज भी एक खुला सवाल है। करीब आधी सदी के अवसर पर भी इस अपील की सार्थकता और सम्भावी परिणामों पर मंथन हो सकता है। यदि, जयप्रकाश जी की अपील पर अमल होने लग जाता तो निश्चित ही किसी भी सरकार का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता था। देश में अराजकता की आशंका फ़ैल सकती थी। सैन्य बल द्वारा सरकारी आदेशों की अवज्ञा निश्चित ही ‘सैन्य विद्रोह’ के समान होती। ऐसी स्थिति को कोई  भी निर्वाचित सरकार कैसे बर्दाश्त कर सकती थी?

आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी गांधी जी ने सिविल नाफ़रमानी का आह्वान किया था, लेकिन पुलिस व आर्मी से कभी भी विद्रोह या अवज्ञा के लिए नहीं कहा था।इसलिए, उन्होंने मुंबई में नेवी विद्रोह (1946) को कभी पसंद नहीं किया था। ऐसी दशा में इंदिरा गांधी के पास विकल्प सीमित थे।संविधान में तीन प्रकार की इमर्जेन्सियां के लिए प्रावधान है: राष्ट्रीय इमरजेंसी, संवैधानिक इमरजेंसी और फाइनेंसियल इमरजेंसी। लेकिन, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि इंदिरा जी ने जो मार्ग या विकल्प चुना था, वह सही ही था। संवैधानिक दृष्टि से विकल्प सही हो सकता है, लेकिन राजनैतिक नैतिकता, लोक दृष्टि और लोकतांत्रिक कसौटी की नज़र से इमरजेंसी को लागू करना नितान्त ग़लत था। उनके द्वारा अपनाये गए विकल्प का समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी आज़ जेपी की ‘अवज्ञा -अपील और इंदिरा- विकल्प’ पर फिरसे गंभीर चिंतन-विश्लेषण  की ज़रूरत है।

अघोषित इमरजेंसी:

अब हम अघोषित इमरजेंसी पर विचार करते हैं। 2014 में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में देश की केंद्रीय सत्ता मंच पर अवतरण होता है। विगत एक दशक की अवधि (2014 -2024 ) के दौरान आम धारणा बनी हुई  है कि देश में ‘अघोषित इमरजेंसी’ का वातावरण है। आख़िर ऐसी धारण के कारण क्या हैं? सबसे पहले हम मीडिया की दशा-दिशा पर विचार करते हैं। इस काल में ‘गोदी मीडिया’ शब्द का प्रचलन इस बात का सुबूत है कि मीडिया की कार्यशैली स्वतंत्र नहीं है। मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप  को लाद  रखा है। प्रेस या मीडिया को राज्य व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ  माना  जाता है। लेकिन, क्या वह अपनी इस भूमिका को ईमानदारी के साथ निभा पा  रहा है? 

क्या देश की मुख्यधारा का मीडिया मोदी -शासन और प्रादेशिक भाजपा सरकारों के प्रति विवेचनात्मक या ऑब्जेक्टिव दृष्टिकोण अपना पाता है ? क्या यह सही नहीं है कि विगत दस सालों में  देश में ‘पोस्ट ट्रुथ मीडिया’ की अप -संस्कृति का विस्फोट हुआ है?  गोदी मीडिया ‘सत्य को असत्य में, असत्य को सत्य‘ में सुविधानुसार रूपांतरण करता रहता है। 1 जून को एग्जिट पोल के परिणाम इस अपसंस्कृति की पुष्टि करते हैं। गोदी मीडिया की सम्पूर्ण कोशिशें  सत्ताधीशों को सही दर्शाना,  विपक्ष को कटघरे में खड़ा करना, चैनलों पर हिन्दू-मुस्लिम बहसें कराना, समाज का  ध्रुवीकरण, विवादास्पद मुद्दों -सवालों  से परहेज़ करना, सरकारी घपलों -खामियों के प्रति उदासीनता दिखाना  जैसे कामों के इर्द -गिर्द घूमती रहती है।

यह सर्व विदित है कि मीडिया में भय-आतंक का माहौल बना रहता आया है। मीडियकर्मियों में आम चर्चा रहती है कि ऊपर से आदेश मिलते रहते हैं और उसके अनुसार समाचार व चर्चाओं की तस्वीर तय करनी पड़ती है। पिछले सालों में सत्ता से चिपके नेताओं और तथाकथित बुद्धिजीवियों के लेखों की भरमार मीडिया में हुई है। घोषित इमरजेंसी के दौरान मालूम था कि असली ‘शत्रु या अपराधी‘ कौन है? लेकिन, अघोषित आपातकाल में तो सब कुछ अदृश्य और अज्ञात है। पर्दे के पीछे से कोई ‘मोगाम्बो या गब्बर सिंह‘ हुकुम देता रहता है और मीडिया नक़ाब पर नक़ाब चढ़ाता और उतारता  रहता है। यह है अघोषित आपातकाल की अघोषित सेंसरशिप। क्या मीडिया में नोट बंदी की सार्थकता पर बहसें हुई हैं?

इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने विपक्ष मुक्त भारत की बात नहीं कही थी। लेकिन, मोदी जी ने पहले ही ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का शोर मचा दिया। इसके बाद विपक्ष मुक्त संसद की धारणा फैलने लगी। मोदी-सत्ता को  संसद के भीतर या बाहर आंखों में चुभता है विपक्ष। संसद के इतिहास में एक ही सत्र में करीब डेढ़ सौ विपक्षी सांसदों को सदन बाहर किया गया। विपक्ष को देशद्रोही, आतंकी, खालिस्तानी, घुसपैठिया आदि तमगों से सुशोभित किया गया। घोषित इमरजेंसी में ऐसे कारनामे देखने को नहीं मिले थे।

घोषित इमरजेंसी में विपक्षियों पर ईडी, सीबीआई, आयकर जैसी एजेंसियों के छापे  नहीं पड़े थे। राजनैतिक आधार पर गिफ्तारियां हुई थीं। लेकिन, इस दौर में भाजपा में शामिल करने के लिए विपक्षी नेताओं की विभिन्न तरीकों से घेराबंदी की गई।उन्हें जेलों में डाला गया। भाजपा में शामिल होने या भाजपा सरकार को समर्थन देने के बाद  उन्हें ‘क्लीन चिट‘ मिल गई; प्रफुल्ल पटेल, अजित पवार, छगन भुजबल, हिमंता बिश्व सरमा जैसे नेता इसकी ज्वलंत मिसाल हैं। और भी छोटे-मोटे  नेता हैं।कई और भी नेता हैं जिनके ख़िलाफ़ भाजपा ने भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलन चलाया था। लेकिन, भाजपा का हिस्सा बनते ही उनके सभी आरोप ‘छूमंतर’ हो गए। तभी तो भाजपा को ‘वाशिंग मशीन’ के तमगे से सुशोभित गया है।

मोदी -काल में  विपक्षी दलों की  सरकारों में तोड़फोड़ हुई; महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गोवा, अरुणाचल, उत्तराखंड, बिहार, कर्णाटक जैसे प्रदेशों में विपक्षी सरकारों  का पतन ‘वाशिंग मशीन संस्कृति ‘ की गवाही देता है। जब विपक्षी नेता निरंतर आतंक के साये में रहेंगे तो इस स्थिति को ‘परोक्ष इमरजेंसी या आपातकाल ‘ ही कहा जायेगा। क्या यह कम आश्चर्य नहीं है कि मोदी -काल में ही सबसे अधिक अरबपति-खरबपति बैंकों का पैसा हज़ारों करोड़ रूपये डकार कर देश से फरार हुए हैं।

प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह एक भी भगोड़े को वापस देश नहीं ला सके हैं! इस काल में ही गुजरात के दो कोर्पोरेटपति अम्बानी +अडानी घरानों की दौलत का फैलाव हुआ है। इसी दौर में बैंकों ने अरबपतियों के 1-16 लाख करोड़ रुपये की राशि को बट्टे खाते में डाला है। यदि राहुल गांधी के शब्दों में कहें तो मोदी सरकार ने अरबपतियों के कर्ज़ों को माफ़ कर दिया, वहीं किसान कर्ज़ा नहीं चुकाने के कारण ख़ुदकुशी कर रहे हैं।

पिछले दस सालों में वामपंथी और मानवाधिकार कर्मियों को  बेलगाम जेलों में ठूंसा; गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, सोमा  सेन, वरवरा राव, पत्रकार पुरकायस्थ सहित अनेक बुद्धिजीवी हैं जिन्हें मोदी-सत्ता के आतंक का शिकार होना पड़ा है।फादर स्टैन स्वामी की तो जैल में ही मृत्यु हो गई थी। अब प्रसिद्ध प्रतिरोधी लेखिका अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ सरकार ने मोर्चा खोल दिया है।उनके विरुद्ध 14 साल पुराने केस को  फिर से ज़िंदा किया गया है और कानूनी कार्रवाई की तलवार उन पर लटकी हुई है।कभी भी उन्हें अदालत में घसीटा जा सकता है। एक प्रकार से प्रतिरोधी बुद्धिजीवियों और रचनाकारों को मनोवैज्ञानिक ढंग से आतंकित करने के हथकंडों को अपनाया जा रहा है।

विरोध, विपक्ष और प्रतिरोध हिमालय की बर्फीली चट्टानों में ज़म जाएं, मोदी+ शाह सत्ता की कोशिशें यही हैं। तब कैसे समझा जाए कि वर्तमान एक दशकीय काल घोषित इमरजेंसी से अलहदा है। बल्कि यह काल और डरावना है। इस काल में इस्लामोफोबिया पैदा किया गया, समाज का ध्रुवीकरण किया गया, लव जिहाद+ हिज़ाब ज़िहाद+ गोरक्षक धावा+ मॉब लिंचिंग + मुस्लिमों की आर्थिक नाकेबंदी जैसी घटनाओं को लेकर भड़काऊ  नैरेटिव फैलाये गए। फ़र्ज़ी ख़बरों और अफ़वाहों के कारखाने दिन-रात चलते रहे। बुलडोज़र संस्कृति की शुरुआत हुई। हिंदुत्व का बेलगाम प्रचार हुआ और  ‘जय श्री राम‘ की गूंजे सुनाई दीं।  

बहुसंख्यकवाद बनाम अल्पसंख्यकवाद जैसे हालत पैदा नहीं किये गए थे। किसी  मंत्री ने नारा नहीं लगाया था- गोली मारो गद्दारों को। इंदिरा गांधी ने मुसलमाओं को घुसपैठिए और अधिक बच्चे पैदा करने वाले नहीं कहा था। और न ही यह कहा था कि’ सम्पूर्ण क्रांति के लोग ‘मंगल सूत्र ले जायेंगे, भैंस और टोंटी खोल कर ले जायेंगे।’ श्मसान और कब्रिस्तान का टंटा भी नहीं खड़ा किया था। आपातकाल में इस पत्रकार ने कई लेख ( दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नई दुनिया, नवभारत टाइम्स, लिंक, पेट्रियट आदि ) लिखे जोकि इंदिरा सरकार को खुश करने वाले नहीं थे।

और कल्पना करें कि राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, स्टालिन, शरद पवार जैसे विपक्षी नेता जेपी की भाषा बोलते और सेना व अधिकारीयों से अवज्ञा की अपील करते तो मोदी+शाह सत्ता उन्हें देश द्रोही, राज्य द्रोही, हिन्दू विरोधी और पाकिस्तानी कह कर तत्काल जेलों में डाल  देती। गोदी मीडिया उदार हिन्दुओं, मुसलमानों और गैर-भाजपाइयों पर कहर बरपा देता। मोदी -विरोधी घर से बाहर नहीं निकल पाते।कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार को ‘टुकड़ा टुकड़ा गैंग’ का सदस्य कह कर आज तक बदनाम किया जा रहा है।कई मुस्लिम युवक-युवती एक्टिविस्ट जेलों में सड़ रहे हैं।इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी में क्या अंतर है?

और अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के  दौरान स्वयं को ‘नॉन- बायोलॉजिकल, दैविक, देवी का अवतार, ईश्वर का दूत‘ कभी नहीं घोषित किया। वे जैविक या हाड़-मांस की औरत प्रधानमंत्री बनी रहीं। वे थकी भीं, संसद का सामना भी किया, प्रेस का भी किया और अंततः रायबरेली में पराजय का सामना भी किया। उन्होंने दिन में वस्त्र-पोशाक नहीं बदले थे।लेकिन, शासन-प्रशासन को अनुशासित रखने के लिए मोर्चे पर अहर्निश डटी रहीं। घोषित इमरजेंसी में दोस्त, शत्रु , तटस्थ और गद्दार के चेहरे साफ़ थे। नीतियां स्पष्ट थीं। लेकिन, अघोषित इमरजेंसी में कौन मित्र, शत्रु और मूक दर्शक है, पता ही नहीं है।सभी नक़ाबपोश हैं, नक़ाबधारी हैं। यही फरक है घोषित और अघोषित आपातकालों के बीच। 

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