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 *परिसीमन को टालना कोई हल नहीं*

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 सत्येंद्र रंजन

आज के दौर में, अगर सोशल मीडिया को नियंत्रित किया जाए और टीवी चैनलों को अपने हिसाब से चलाया जाए, तो ऐसा दिखाना आसान हो जाता है कि लोग किसी मुद्दे को लेकर बहुत नाराज हैं। फिर, अगर एक शोर मचाने वाला छोटा समूह हिंसा करने को तैयार हो, तो अचानक यह मुद्दा “राष्ट्रीय विवाद” बन जाता है। औरंगजेब पर मचा हंगामा भी इसी रणनीति का एक उदाहरण है। जब सरकारें असली मुद्दों पर काम करने में असफल हो जाती हैं, तो वे जनता का ध्यान भटकाने के लिए उन चीजों पर जोर देने लगती हैं, जिनका असल मेंकोई मतलब नहीं होता।मकसद स्थानीय एवं पांतीय पहचानों को सुरक्षित रखते हुए भारत की संधीय राष्ट्रीय पहचान बनाए रखने की है, तो कुछ नया सोचने का साहस दिवार खिला ऐसा कर पाना मुश्किल बना रहेगा। अपने अभिजात्य वगर्गीय चरित्र के कारण ज्यादातर वर्तमान राजनीतिक दल ऐस साहस दिखाने में अक्षम है। इसलिए इस दिशा में सोचने और पहल की जिम्मेदारी अंततः आम जन को ही स्वीकार करनी होगी।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन परिसीमन के त खिलाफ एक मजबूत विपक्षों लामबंदी करने में सफल रहे हैं। अपने राज्य में उन्होंने 2016 में लोकसभा सीटों के प्रस्तावित परिसीमन के साथ-साथ हिंदी थोपने की कथित कोशिश और नई शिक्षा नीति के तहत राज्यों की स्वापनता के हनन को जोड़ कर सिपाली मुद्दा गरमा रखा है। लेकिन 22 मार्च को उनहोंने चेन्नई में बहुदलीय बैठक का आयोजन किया, तो उसमें सिर्फ परिसीमन का मुद्दा ही रखा गया। संभवतः इसलिए कि गैर-दक्षिणी भाषी राज्यों में राजनीतिक हित रखने वाले कुछ दल भाषा जैसे विवाद में उलझाने को इच्छुक ना रहे हों।

जबकि जिन राज्यों पर अगले परिसीमन का खराब असर होने की आशंका है, वहां के राजनीतिक दलों को इसमें अपने लिए अनुकूल सियासी मुद्दा दिखना स्वाभाविक है। तो केनई में हुई बैठक में तमिलनाडु (डीएमके), तेलंगाना, कर्नाटक (कोप्रेस) और केरल (लेफ्ट फ्रंट) के अलावा पंजाब (आम आदमी पाटी) के मुख्यमंत्री भी शामिल हुए उनके अलावा आंध प्रदेश को विपक्षी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना की विपक्षी पार्टी भारत राष्ट्र समिति और ओडीशा की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजू जनता दल के प्रतिनिधि भी बैठक में आए। उन्होंने एक स्वर से मांग की

परिसीमन को 25 साल के लिए टाल दिया जाए, जैस्तकि 2001 में किया गया था।

परिसीमन विरोधी राज्यों एवं दलों के एलराज का कारण इस प्रक्रिया के बाद चुनी जाने वाली लोकसभा में उनके प्रतिनिधित्व में गिरावट की आशंका है। परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हुआ तो जिन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार तेज रही है, वहां से अधिक नुमाइंदे चुने जाएंगे, जबकि जिन राज्यों ने जनसंख्या वृद्धि रोकने में कामयाबी पाई है, उनके नुमाइंदे उस अनुपात में नहीं कहेंगे। इन राज्यों ने इसे *अच्छा काम करने का दंड’ माना है।

इन राज्यों ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस आश्वासन को अस्वीकार कर दिया है कि परिसीमन “pro rata” किया जाएगा। Pro rata एक लेटिन शब्द है, जिसका अर्थ है- आनुपातिक रूप से परिसीमन के संदर्भमें इसका मतलव होगा कि अगर उत्तर प्रदेश की सीटें 50 फीसदी बहती है, तो तमिलनाडु या केरल की भी 50 फीसदी सीटें बहेंगी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने एक यी इंटरप्पू में दावा किया कि इस फॉर्मूले के लागू होने पर भी दक्षिणी राज्यों को मुकरन होगा। उन्होंने उदाहरण दिक

मान लीजिए कि उत्तर प्रदेश की 50 प्रतिशत सीटें बढ़ती है। उस स्थिति में उसकी लोकसभा में सीटें 80 से बड़ कर 120 हो जाएंगी।

तमिलनाडु और पुड्डु‌चेरी को सीटें 40 हैं तो Pro rata વિપિ કે કનવચ્ચે છેટે 60 ક ત પણ કે વિ. संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश को जहां 40 सीटों का लाभ होगा, वहीं तमिलनाडु पुडुचेरी को 20 सीटों का ही लाभ होगा। इस रूप में उत्तरों राज्यों की सीटें इतनी ज्यादा बढ़ जाएंगे कि दक्षिण राज्यों की सीटें बढ़ने के बावजूद दक्षिणी राज्य राजनीतिक रूप से और कमजोर स्थिति में पहुंच जाएंगे।

ती उपाय क्या है?

भारत राष्ट्र समिति के नेता के रामराव ने इस सिलसिले में एक अजीब सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि फिलहाल भारत के जीडीपी में दक्षिणी राज्य 36 फीसदी का योगदान करते हैं, जबकि लोकसभा में उनकी सीटें 33 प्रतिशत ही हैं। तो परिसीमन का उचित फॉर्मूला यह होगा कि उनकी सीटें 36 फीसदी कर दी जाएं।

तो बाहस इस मुकाम तक पहुंच गई है। इसलिए जरूरी हो जाता है कि इस पान पर अधिक व्यापक संदर्भ में तथा अधिक गंभीरता से विचार किया जाए।

बुनियादी सवाल प्रातिनिधिक (representative) लोकतंत्र में प्रतिनिधित्वव (representation) का आधार क्या होना चाहिए?

प्रातिनिधिक लोकतंत्र का सबसे बुनियादी आधार बयरक

मताधिकार का सिद्धांत है। वयस्क मताधिकार का अर्थ है कि एक उम्र (भारत में यह 18 साल है) का होने के बाद हर व्यक्ति योट डालने का अधिकारी होता है, भले वो किसी जाति, धर्म, बक्षेत्र या लिंग का हो। (संगीन जुर्म का दोषी होने या मानसिक विक्षित के शिकार व्यक्तियों को ही इस अधिकार से बैंच प्रक्रिया के तहात बंचित किया जा सकता है।)

दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है भारतीय संविधान का गणतांत्रिक स्वरूप। इस संविधान के तहत स्थापित राज्य-व्यवस्था को इकाई नागरिका है। सिद्धांततः राज्य (देश) नागरिकों की इच्छा और सहमति का प्रतिबिंच है। यहां की राजनीतिक व्यवस्था यानी सरकार का गठन नागरिकों के बोट से होता है।

गौरतलब है। वयस्क मताधिकार के सिद्धांत और भारतीय संवैधानिक व्यवस्था दोनों ही नजरियों से भारत में महत्वपूर्ण व्यक्ति (जो भारत का नागरिक) है। इसीलिए जन प्रतिनिधियों का निर्वाचन मताधिकार पा चुके नागरिक करते हैं। जन प्रतिनिधियों और प्रकारांतर में सरकार का सर्वोच्च उत्तरदायित्व उन्हीं मतदाताओं के प्रति होता है।

ऐसे में घरन है कि मतदाताओं की संख्या जन प्रतिनिधियों की संख्या तय करने के लिहाज से निर्णायक महत्व का कैसे नहीं है?

और अगर यह पहलू निर्णायक नहीं है, तो फिर किस आधार पर सीटों की संख्या तय की जाएगी?

चूंकि इस प्रश्न का कोई सर्वस्वीकार्य उत्तर चेन्नई में इक्ट्ठा हुए नेताओं के पास नहीं था, इसलिए उनके बीच सहमति इस मांग पर बनी कि परिसीमन को 25 साल के लिए टाल दिया जाए। लेकिन यह स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं है। यह सिर्फ अपने सामने आई समस्या को अगली पीड़ी पर टालने का गैर-जिम्मेदार नजरिया है। 2001 में ऐसा ही गैर-जिम्मेदार नजरिया तत्कालीन राजनेताओं ने अपनाया था।

परिपक्व नेतृत्व अपने सामने मोजूद समस्या का हत યુધ ગૂંજતા રે ગીર ફરસ પણ આ અને પાછો પછિી મને થા समरया में उलझा जाने के बजाय, बेहतर परिस्थितियों प्रदान करता है। आज चुनौती ऐसा समाधान ढूंढने की है, जिसमें मूलभूत लोकतांत्रिक तवाने और संपीय (federal) तकाजे के बीच संतुलन चना दिखे। जो चहुसंख्यक-वाद (majoritarianism) से प्रेरित ना हो, मगर चुनाची लोकतंत्र की बुनियादी शर्तों का उल्लंघन भी ना करता हो।

के. दी. रामामराय ने दो सुझाव दिए, जिनमें एक विचारणीय है, जबकि दूसरे को पहली नजर में तुकरा दिया जाना चाहिए। उनका विचारणीय सुशाम यह था कि चूंकि लोकसभा राष्ट्रीय नीति बनाने का मंच है और जनता अपनी रोजमरी की जरूरतों के लिए विधायकों को याद करती है, तो लोकसभा सौटी के बजाय विधानसभा सीटों को राज्यों की आबादी के अनुपात में बहा दिया जाए। पैसे इस सुझाब में भी एक पेच है. मगर अधिक साहसी एवं आपिष्वारी (innovative) गजरिया अपना कर उनका हात बूंदा जा सकता है।

पेच यह है कि संसद के उच्च सदन राज्यसभा की कल्पना राज्यों के प्रतिनिधि सदन के रूप में की गई थी। उसके सदस्यों का निर्वाचन संबंधित राज्य के विधायकों की संख्या के अनुरूप होता है। रामराय के सुराय के मुताबिक विधानसभा की सीटें आबादी के अनुपात में बड़ी तो राज्यसभा में उसके अनुपात में सदस्य संख्या तय करनी

होगी। उस स्थिति में वहां उत्तरी राज्य लाभ की स्थिति रहेंगे। इस तरह उत्तर में जिन पार्टियों का वर्चस्व होगा, उनका राजनीतिक प्रभाव केंद्र में बहेगा। समाधान क्या हो सकता है, इस पर बाद में आएंगे।

पहले रामाराव के दूसरे सुझाव को लेते हैं कि राज्यों को जीडीपी में उनके योगदान के अनुपात में लोकसभा सीटों की संख्या आवंटित की जाए। यह सिरे से अभिजात्यवादी और धनिक-तंत्र (plutocracy) समर्थक मांग है। यह देश पर हाथी हो चुके कुलीनी (oligarchic) नजरिए का ही संकेत है कि ऐसी मांग पर ना तो चेन्नई में और ना देश के बाकी हिस्सों में कोई आदेश जताया गया।

पहली बात तो यह कि समुद्र तटीय राज्य बेहतर आर्थिक प्रदर्शन करते हैं, तो उसके पीछे बड़ी वजह उनकी भौगोलिक स्थिति है। यह दुनिया भर का अनुभव है। इसका एक आर्थिक गतिशास्त्र है, जिसकी उपेक्षा कर कोई ज्ञान से युक्त चर्चा नहीं हो सकती। समृद्धि भी सामाज कल्याण के कार्यक्रमों पर बेहतर अमल को एक पालू होती है, जिससे साभाविक विकास संकेतकों पर बेहतर नतीने हासिल होते हैं। बेशक एक अहम पहलू सांस्कृतिक परिदृश्य का भी होता है, जिसकी अनदेखी नहीं हो सकती।

इसलिए उपरोक्त मोचों पर दक्षिणी राज्यों की सफलता कोई अजूबा पानी exceptional नहीं है बल्कि पह दुनिया भर में दिखे रुझानों के अनुरूप ही है।

इस पहलू को छोड़ भी दिया जाए, तो यह सवाल उठेगा कि क्या नागरिकता का वजन एर्य उनके मतदान का मोल भी उनकी आर्थिक स्थिति से तय होना चाहिए? अगर राज्यों को इस कसौटी पर प्रतिनिधित्व देने का सुशराव आज आया है, तो उसकी स्वाभाविक परिणति होगी कि आगे चल कर यह नागरिकों के संदर्भ में भी आए। इस तरह राजनीतिक यात्रा जहां से चली थी, કસે પાછો પહુંચા વિચા ના પણ પાદ 10ના પ कि 26 जनवरी 1950 को वर्तमान संविधान लागू होने के पहले देश में मतदान का अधिकार संपत्ति तथा ऐसी अन्य योग्यताओं के आधार पर मिलता था। लेकिन उसे आज की समझ के अनुरूप लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता।

यहां यह स्पष्ट कर लिया जाए कि इस स्तंभकार का मकसद दक्षिणी या अन्य राज्यों में असमान व्यवहार की फैली शिकायतों को खारिज करना नहीं है। (इस बारे में स्तंभकार के इस लेख को देखा जा सकता है-https://janchowk.com/beech-bahas/why-have-the-southern-states-opened-a-front-against-the-centre/)1

मगर राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) के उभरते नए रूप के साथ पैदा हुई शिकायतों का समाधान ऐसा नहीं हो सकता, जो अंत में मोनोपॉली पूंजी और सांप्रदायिक राजनीति के गठजोड़ से मजबूत हो रही political economy के हितों के और अधिक अनुरूप हो। इस क्रम में यह सवाल विचारणीय है। क्या यह विडंचना नहीं है कि संघीय व्यवस्था के उल्लंघन और बहुलता के दमन की शिकायतों को लेकर जो गोलबंदियां उभर रही हैं, उनमें वित्तीय संभवाद का मुद्दा सिरे से गायब है?

भारत में वित्तीय संघवाद पर सबसे बड़ा प्रहार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) सिस्टम लागू करना रहा है। जीएसटी ने संसाधन जुटाने के राज्यों के अधिकार लगभग खत्म कर दिए हैं। इस तरह संसाधानों के लिए चे पूरी तरह केंद्र पर निर्भर हो गए हैं। इसका कैसा परिणाम हो सकता है, इसका पीड़ादायक अनुभव राज्यों को कोरोना महामारी के समय हुआ पैसे, इस तरह के तब से उन्हें अक्सर गुजरना पड़ता है। इसलिए जीएसटी व्यवस्था को खत्म करना federalism के पक्ष में किसी मुहिम के केंद्र में होना चाहिए। मगर यह नहीं है, तो वय उस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि जहां मोनोपोली पूंजी के हित ह चहां सभी राजनीतिक दलों की जुबान सिल जाती है?

बहरहाल, ये बात बेहिचक कही जा सकती है कि मोनोपॉली पूंजी के हितों के साथ चत्तते हुए राजनीतिक व्यवस्था के हो रहे monopolization (एकाधिकरण) को रोकना मुमकिन नहीं होगा।

चूंकि यह बड़ा संदर्भ आज चर्चा में नहीं है, इसलिए परिसीमन की संभावना से उपनी आशंकाओं को व्यक्त करते समय कोई अभिनव सुाच भी चेन्नई बैठक से सामने नहीं आए। सहमति समस्या को टालने पर बनी, जबकि इक्के-दुक्के अधकचरे या समस्याग्रस्त सुझाव यहां दिए गए। जबकि यह संभव था कि मसले पर बड़े संदर्भ में चर्चा को जाती और समाधान पर ध्यान केंद्रित किया जाता। मसलन, रामाराय का यह सुझाव सही दिशा में है कि विधानसभा की सीटें आबादी के अनुपात में बड़ा दी जाएं।

मगर यह सार्थक तभी होगा, जब कहा जाए कि राज्यसभा का नए सिरे पुनर्गठन हो। इस सिलसिले में एक मॉडल अमेरिका का है। वहाँ ऊपरी सदन सोनेट में सभी राज्यों को समान- दो सीटें मिली हुई है, चाहे उनका आकार कुछ भी हो। सीनेट को निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिय के बराबर बरिका कुछ मामलों में उससे अधिक अधिकार मिले हुए हैं। क्या भारत में भी इस दिशा में सोचा जा सकता है?

• अगर राज्यसभा को वास्तव में राज्यों का सदन बनाने, उसमें सभी राज्यों के लिए समान प्रतिनिधित्व, और राज्यों के हितों के मामले में उसे लोकसभा से अधिक अधिकार देने पर सहमति बने, तो लोकसभा सीटों के अनकात परिसीमन पर शायद ही किरों को एतराज होगा।

वाहाल, मुरा संपवाद और लोकतंत्र के बीच संतुलन का भी है173वें और 74 संविधान संशोधन में पंचायतो राज एवं नगर निकायों को शासन का तीसरा स्तंभ(केंद्र-राज्य स्थानीय निकाय बनाने की परिकल्पन्ना શ્રી વરું ચીફ રૂરલ પરિયત્વના વટે શષી વાગે શામપનિષે में स्थार्थ रखने वाले सियासी समूहों ने पूरा नहीं होने दिपा मगर अब उन दोनों संविधान संशोधनों की भावना के मुताबिक इन व्यवस्थाओं को शक्तिशाली बनाने पर सहमति बनाई जा सकती है।

इसके लिए दो खास उपाय करने होंगे: पहला, पित्त आयोग को स्थानीय निकायों के लिए अलग से धन हस्तांतरण करने का सिस्टम बनाना होगा। (यानी राज्य सरकारों पर उनकी निर्भरता खाम करनी होगी। उसके साथ ही स्थानीय निकायों के लिए अलग नौकरशाही स्थापित करने की जरूरत होगी जो प्राथमिक रूप से उन निकायों के प्रति जवाबदेह हो। इन दोनों पहलुओं के अभाव के कारण ही पंचायती राज व्यवस्था अपनी मूल भावना के मुताबिक लागू नहीं हो सकी।

मकसद स्थानीय एवं प्रांतीप पहचानों को सुरक्षित रखते हुए भारत की संपीय राष्ट्रीय पहचान बनाए रखने की है तो कुछ नया सोचने का साहस दिखाए बिना ऐसा कर पाना मुश्किल बना रहेगा। अपने अभिजात्य-वगाँध चारित्र के कारण ज्यादातर वर्तमान राजनीतिक दल ऐसा साहस दिखाने में अक्षम है। इसलिए इस दिशा में सोचने और पहल की जिम्मेदारी अंततः आम जन को हो स्वीकार करना होगी।

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