अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष :
नग़्मा कुमारी अंसारी
मैं हुआ करती थी एक ठण्डी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैंने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्ही धाराओं को नयी ज़िन्दगी देना है
न तो लम्बा रास्ता, न तो लम्बा खड्ड
न रूक जाने का लालच
रोक सके मुझे बहते जाने से
अब मैं जा मिली हूँ अन्तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत
-मर्ज़िएह ऑस्कोई (ईरानी कवयित्री जिनकी शाह-ईरान ने मरवा दिया).

8 मार्च का दिन स्त्रियों के साथ ही इस व्यवस्था में सभी उत्पीड़ितों और न्याय तथा बराबरी में यक़ीन रखने वालों की याददिहानी का एक ऐतिहासिक दिन है। यह सच है कि इस दिन को भी लूट पर टिकी मौजूदा व्यवस्था ने अपने रंग में रंग दिया है। सरकारी आयोजनों, नारीवादियों और एन.जी.ओ मार्का सुधारवादियों ने इस दिन को भी रस्म-अदायगी या महज़ पुरुषविरोध की राजनीति तक सीमित करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी है।
स्त्री-मुक्ति के कट्टर विरोधी फ़ासीवादी इस दिन को पुरातन रीति-रिवाज़ों और धार्मिक कर्मकाण्डों में क़ैद करने की कोशिश करते हैं। इस पूरे शोर में आम मेहनतकश स्त्रियों के संघर्ष और क़ुर्बानी की बदौलत स्थापित किये गये इस दिन के ऐतिहासिक महत्व को और स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को नये सिरे से खड़ा करने की ज़रूरत को पृष्ठभूमि में धकेल देने की साज़िश रची जाती है।
*कैसे बना 8 मार्च ऐतिहासिक दिन?*
8 मार्च, 1857 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में कपड़ा मिल की स्त्री मज़दूरों ने वेतन बढाने और काम के घण्टों को कम करने के लिए एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसको वहाँ की पुलिस द्वारा कुचल दिया गया। इसके दो वर्ष बाद स्त्री मज़दूरों द्वारा पहली यूनियन बनायी गयी।
8 मार्च, 1904 को रेडीमेड मिल व जूता बनाने वाली महिलाओं ने काम के घण्टे 16 से 10 करने की माँग को लेकर आन्दोलन किया। जिसमें कई स्त्रियों को जेल जाना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी संघर्षों और लड़ाइयों का सिलसिला जारी रखते हुए 8 मार्च 1908 को न्यूयॉर्क में सुई उद्योग की स्त्री मजदूरों ने वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर प्रदर्शन किया।
अमेरिका की स्त्रियों के इन संघर्षो को नया आयाम देते हुए 1910 में कोपेनहेगेन में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में 8 मार्च को जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी की क्रान्तिकारी नेता क्लारा जेटकिन का अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया।
1921 में स्त्रियों के बेमिसाल संघर्षो, कुर्बानियों, बहादुराना लड़ाइयों के चलते इसे सोवियत संघ का राजकीय उत्सव घोषित किया गया।
*भारत में बर्बर स्त्री उत्पीड़न :*
शासक वर्ग के महिला सशक्तिकरण, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसे ढोंग-पाखण्ड की असल सच्चाई यह है कि घरों, सड़कों, खेतों-फैक्ट्रियों, ऑफिसों, विश्वविद्यालयों-कॉलेजों सभी जगह स्त्रियों का उत्पीड़न कम होने की जगह बढ़ गया है।
बलात्कार और उसके बाद बर्बरतापूर्ण हत्या की घटनायें अभी हाल ही में अयोध्या से लेकर देश के कोने-कोने में हो रही हैं। फ़ासीवादी भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद इन घटनाओं में काफ़ी तेज़ी आयी है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2020 में स्त्री-उत्पीड़न के 49385 मामले दर्ज़ हुए थे जो 2022 में बढ़कर 65743 हो गए। स्त्रियों के उत्पीड़न में दोषियों को मिलने वाली सज़ा की दर 2021 के 25.2 प्रतिशत की तुलना में 2022 में घटकर 23.3 प्रतिशत हो गयी।
राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार 2019-20 की तुलना में घरेलू उत्पीड़न के मामलों में 2020-21 में 25.09 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भाजपा की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और उससे परिणामस्वरूप होने वाले या करवाये जाने वाले दंगों में स्त्रियाँ बर्बर बलात्कार और हत्या की शिकार हुई हैं।
स्त्रियों को भी धर्म के आधार पर बाँटा जा रहा है। दुनिया के सभी फ़ासिस्टों की तरह भारत के फ़ासिस्ट भी स्त्रियों को बच्चा पैदा करने, पालने तथा मन्दिर व रसोई में ही क़ैद रखना चाहते हैं। हाँ, शासक वर्ग की और शासन-सत्ता में शामिल स्त्रियों की बात अलग है। लेकिन उनसे आम स्त्रियों को कोई भी उम्मीद नहीं पालनी चाहिए क्योंकि वो पूँजीवादी पितृसत्ता की ही झण्डाबरदार होती हैं।
मौजूदा व्यवस्था में मेहनतकश स्त्रियों का श्रम बेहद सस्ता है। राष्ट्रीय सर्वेक्षण कार्यालय के मुताबिक़ ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ पुरुष मजदूरों की औसत दैनिक मज़दूरी 175.30 रुपये थी, वहीं महिलाओं की औसत दैनिक मज़दूरी सिर्फ़ 108.14 रुपये थी।
इसी तरह शहरी क्षेत्रों में पुरुष मज़दूरों की औसत दैनिक मज़दूरी 276.04 रुपये थी, जबकि महिलाओं की 212.86 रुपये थी।
*कौन खरीद-बेच रहा स्त्रियों के सस्ते श्रम और शरीर?*
मुट्ठीभर धनपशुओं के मुनाफ़े की हवस पर टिकी मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। इस व्यवस्था ने न केवल स्त्रियों के श्रम को सस्ते बिकाऊ माल में तब्दील कर दिया है बल्कि स्त्री के पूरे वजूद को उपभोग की सामग्री में बदल डाला है।
इस व्यवस्था ने न केवल पुरातन स्त्री विरोधी मूल्यों-मान्यताओं को अपनी ज़रूरत के हिसाब से अपना लिया है बल्कि स्त्रियों की मुक्ति के सपनों को बाज़ार की चकाचौंध में गुमराह कर दिया है। 1990-91 से जारी नयी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप ‘खाओ-पियो, ऐश करो’ की संस्कृति में लिप्त एक बर्बर किस्म का नव धनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है, जिसे लगता है कि वह पैसे के बल पर सबकुछ ख़रीद सकता है।
पूँजीवादी लोभ लालच और भोगवाद की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘कमोडिटी’ बना दिया है और पैसे के नशे में चूर इस वर्ग के भीतर उस ‘माल’ के उपभोग की उन्मादी हवस भर दी है। इन्हीं लुटेरी नीतियों ने एक आवारा, लम्पट पतित वर्ग भी पैदा किया है जो पूँजीवादी अमानवीकरण की सभी हदों को पार कर गया है। फ़ासीवादी भाजपा के सत्तारोहण के बाद बीमार व रुग्ण पितृसत्तात्मक सोच को और खुराक़ मिल रही है।
दूसरे, पूँजीपोषित स्त्री-विरोधी मूल्य-मान्यतायें पूँजीवादी मशीनरी के हर खम्भे में जड़ जमाये पैठी हुई हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़ मौजूदा विधायकों-सांसदों में से 151 पर स्त्री-उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज है। जिसमें सबसे ज़्यादा भाजपा के हैं। अभी केरल में यौन उत्पीड़न के एक मुकदमे में जज का बयान था-“कि यौन उत्पीड़न का आरोप टिक नहीं पाएगा क्योंकि शिकायतकर्ता ने यौन उत्तेजक तरीके से कपड़े पहने थे।”
थानों में मेहनतकश स्त्रियों के एफआईआर तक दर्ज नहीं होते उल्टे थानों में यौन उत्पीड़न के बहुत से मामले सामने आ चुके हैं। कुल मिलाकर, इस मशीनरी के अलग-अलग हिस्सों से स्त्रियाँ किसी न्याय की उम्मीद कैसे कर सकती हैं?
तीसरा, हमारे देश में पूँजीवादी लोकतन्त्र पुनर्जागरण, प्रबोधन और क्रान्ति के रास्ते स्थापित नहीं हुआ।
इस कारण हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्यों का बहुत गहरा अभाव है। पूँजीवाद के वर्तमान पतनशील दौर में न केवल नयी विकृतियों को जन्म दिया है बल्कि बहुत से पुराने मूल्यों-संस्थाओं को पूँजीवादी राजनीति ने अपना लिया है। फ़ासीवादी ताकतों ने पुरातनपंथी स्त्री-विरोधी सोच और संस्थाओं को समाज में नए सिरे से खाद-पानी देने का काम किया है।
बलात्कारी बाबाओं से लेकर खाप पंचायतों द्वारा स्त्री विरोधी विचारों की उल्टी की जाती रहती है लेकिन इनके मठों और दरबारों में आम स्त्रियों की मौजूदगी बनी रहती है। स्त्री विरोधी अपराधों पर स्त्रियों के कपड़े, मोबाइल इस्तेमाल करने, दोस्त बनाने आदि को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है।
जबकि पेशा, पोशाक और जीवनसाथी चुनने जैसे निर्णयों की आज़ादी दुनिया के बहुतेरे देशों में बहुत पहले ही हासिल कर ली गयी थी। बहुत-सी लड़कियाँ घर से कॉलेज तक परिजनों द्वारा जाने देने को ही परिजनों की उदारता या आधुनिकता मानती हैं।
स्त्रियों को यह बात समझनी होगी कि जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्हें बराबरी का हक़ ‘देने’ का अधिकार किसी को नहीं है, बल्कि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
*स्त्री-मुक्ति के लिए इंक़लाबी रास्ता!*
वास्तव में, स्त्रियों को अपनी वास्तविक मुक्ति के लिए अभी एक लम्बी लड़ाई लड़नी है। स्त्री-मुक्ति का रास्ता ‘स्त्री के लिए केवल स्त्री बोलेगी’ या इस पूँजीवादी पितृसत्ता को दुश्मन मानने की जगह ‘पुरुषों को दुश्मन’ मानने की अस्मितावादी राजनीति या इसी पूँजीवादी व्यवस्था में अपने लिए आज़ादी का कोई ‘टापू’ बना लेने की तरफ़ से होकर नहीं जाता।
हमें अपने उत्पीड़न के विरुद्ध पूँजीवादी मशीनरी के भरोसे रहने की बजाय तात्कालिक तौर पर गलियों-मुहल्लों, गाँवों-कस्बों-शहरों में अपने संगठन, जुझारू दस्ते बनाने होंगे।
हमें यह बात याद रखनी होगी कि पितृसत्ता से मुक्ति बिना पूँजीवाद के ख़ात्मे के बग़ैर उसी तरह सम्भव नहीं है, जिस तरह स्त्री-मुक्ति संघर्ष संगठित किये बग़ैर पूँजीवाद का ख़ात्मा सम्भव नहीं है। इससे बहुत साफ़ है कि स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा सभी शोषितों-उत्पीड़ितों के संघर्ष से जोड़ना होगा। यह मानवद्रोही व्यवस्था इन सभी की साझा दुश्मन है।
बहनो/साथियो, हमें अपनी चुप्पी तोड़नी होगी, हमें अपने वजूद को महज शरीर नहीं बने रहने देना है, हमें अपने सपनों को कुचलना एकदम से बन्द करना होगा। हमें क्रान्तिकारी बदलाव के रणक्षेत्र में उतरना होगा।
क्लारा जेटकिन, रोजा लक्ज़ेमबर्ग, सावित्रीबाई फुले-फ़ातिमा शेख, दुर्गा भाभी, प्रीतिलता बाडेदार जैसी बहादुर स्त्रियों से प्रेरणा लेनी होगी। हमें इस शोषक व्यवस्था के खिलाफ़ शोषितों, ग़रीबों-मज़लूमों, इंसाफ़पसन्द पुरुषों के साथ सदियों से दबाये अपने आक्रोश को ज्वालामुखी की तरह फटने देना होगा और मौजूदा पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को इतिहास की कचरापेटी के हवाले करने की तैयारी में जुट जाना होगा। (चेतना विकास मिशन).