लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के साथ भाजपा नेतृत्व ने सचमुच बड़ी नाइंसाफी की है। सुमित्रा जी, जिन्होंने पिछले पांच साल में अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए सरकार से कभी कुछ मांगा (हालांकि पूरे तीस साल के संसदीय जीवन में भी कुछ नहीं मांगा, जो बगैर मांगे मिल गया उसे ही अपने प्रयासों का प्रतिफल बताकर संतोष कर लिया)।
उनकी सहजता और विनम्रता देखिए, लोकसभा अध्यक्ष होते हुए भी उन्होंने सदन में हो या सदन के बाहर, अपने को पार्टी की ‘निष्ठावान कार्यकर्ता’ से ज्यादा कुछ नहीं समझा। संवैधानिक पद पर रहते हुए पार्टी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को कभी नहीं भूलीं।
सदन में विपक्षी सदस्यों के भाषणों के बीच टोका-टाकी करने और उनकी खिल्ली उड़ाने का फर्ज भी उन्होंने सत्तापक्ष के अन्य सदस्यों की तरह ही निभाया। कई बार मंत्रियों को सवालों में घिरता देख खुद उनके बचाव में सामने आई और विपक्षी सदस्यों को हड़काया।
सुमित्रा जी ने सदन में विपक्षी नेताओं पर प्रधानमंत्री के फूहड़ कटाक्षों पर कभी मैज तो नहीं थपथपाई लेकिन कई बार ठहाके लगाने में सत्तापक्ष के सांसदों का साथ जरूर दिया। सदन की कार्रवाई का संचालन भी पूरी तरह सरकार की इच्छा याकि निर्देशों के मुताबिक ही किया।
शीर्ष नेतृत्व की खुशी की खातिर लालकृष्ण और आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति को भी कई मौकों पर उपेक्षापूर्वक नजरअंदाज करने में संकोच नहीं किया। यहां तक कि एक बार तो लोकसभा में आडवाणी जी ने किसी मुद्दे पर बोलने की इच्छा जताई तो उन्हें बोलने की अनुमति देने से भी उन्होंने इंकार कर दिया। यह सब करने के कारण उन्हें देश के संसदीय इतिहास का सबसे निकृष्टतम स्पीकर भी कहा गया लेकिन उन्होंने बगैर उफ करे बर्दाश्त कर लिया।
इतना सब करने-सहने के बाद भी पार्टी नेतृत्व नहीं पसीजा और टिकट काट दिया। अब ऐसे में कौन कार्यकर्ता पार्टी के लिए ‘निष्ठापूर्वक’ काम करेगा?
Girish Malviya ने अर्ज किया है…….
रहते थे कभी….जिनके दिल में
हम जान से भी प्यारो की तरह,
भगाए गए हैं उनकी महफ़िल से
हम आज गुनहगारों की तरह।
अनिल जैन की पोस्ट
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