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 मुस्लिम वोट ने अपनी ताकत फिर से पहचान ली है,भाजपा की हार के बढ़ने की संभावना

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इस बार के लोकसभा चुनाव से उभरी इस हेडलाइन की ओर कम ही लोगों का ध्यान गया होगा कि मुस्लिम वोट की ताकत फिर से लौट आई है— जी नहीं, मुस्लिम सियासत या मुस्लिम नेतृत्व की ताकत नहीं. हुआ सिर्फ इतना है कि मुस्लिम वोट ने अपनी ताकत फिर से पहचान ली है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि ये नतीजे तब आए हैं जब कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीवी चैनलों को दिए अपने एक इंटरव्यू में यह रोना रोया था कि कई मुसलमानों को अभी भी यह लगता है कि वे यह फैसला कर सकते हैं कि भारत पर शासन कौन करेगा. ‘टाइम्स नाउ’ से बातचीत में मोदी ने कहा, “मुस्लिम समाज और उसके पढ़े-लिखे लोगों से मैं पहली बार यह कह रहा हूं कि वे अपने में दिल झांक कर देखें. सोचें कि आप लोग क्यों पिछड़ रहे हैं, क्या कारण है? आपको काँग्रेस के राज में कोई लाभ क्यों नहीं मिला? आत्म-मंथन कीजिए. आपके मन में जो यह भावना है कि आप यह फैसला कर सकते हैं कि किसे गद्दी पर बैठाना है और किसे हटाना है, तो यह भावना आपके बच्चों का भविष्य खराब कर रही है. दुनिया भर के मुसलमानों में बदलाव आ रहा है.”  

लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता है कि मुसलमानों ने उनकी बात नहीं सुनी? उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों को देख लीजिए. दोनों राज्यों में ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों का वोट प्रतिशत इस बार एनडीए के वोट प्रतिशत से ज्यादा रहा. मुसलमानों ने एकजुट होकर मतदान न किया होता तो ऐसा न होता. पुराने एक्जिट पोलों और दूसरे अध्ययनों के नतीजे हमें यही बताते हैं कि मुस्लिम मतदाता हमेशा भाजपा को हराने की रणनीति के तहत मतदान करते रहे हैं. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसी बार वे इतने नाटकीय रूप से सफल क्यों हुए, खासकर उत्तर प्रदेश में. और यह चाल बिहार और असम में क्यों सफल नहीं हुई, जबकि इन दोनों राज्यों में मुस्लिम मतदाता अच्छी संख्या में हैं और ‘इंडिया’ गठबंधन वहां तगड़ी चुनौती भी दे रहा था?

गौरतलब है कि मोदी के दौर में जो तीन लोकसभा चुनाव (2014, 2019, 2024 के) हुए या 2017 और 2022 में जो विधानसभा चुनाव हुए उनमें से किसी में भाजपा ने यूपी की 80 लोकसभा सीटों या 403 विधानसभा सीटों पर अपना एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं खड़ा किया. फिर भी उसे विशाल बहुमत मिलता रहा. तो अब यह नाटकीय उलटफेर क्यों हुआ?

यह भाजपा के लिए भी बड़ी चिंता का विषय है. पार्टी की इस भारी कमजोरी की खोज करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पक्ष में और विरोध में तलवारें खिंच गई हैं. खतरा यह है कि उत्तर प्रदेश में स्थिति सुधारे बिना भाजपा का पतन गहरा और तेज होता जा सकता है.  

पश्चिम बंगाल के नतीजों ने एक्जिट पोल वालों की साख खराब कर दी है और भाजपा के समर्थकों तथा विरोधियों को भी हैरानी में डाल दिया है. उत्तर प्रदेश में तो मुसलमानों की आबादी 20 फीसदी है (सारे आंकड़े पूर्ण अंक में लिये गए हैं क्योंकि 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है) लेकिन पश्चिम बंगाल में वे 33 फीसदी हैं. फिर भी, वहां की 42 सीटों में से 2019 में भाजपा ने 18 सीटें जीती थी और इस बार अपना आंकड़ा काफी बढ़ाने की उम्मीद कर रही थी, लेकिन उसे पिछले बार की आधी से थोड़ी ऊपर ही क्यों सीटें मिलीं? 

जिन राज्यों में भाजपा सीटें जीत सकती है उनमें वह यह सीधा फॉर्मूला लागू करती है— हिंदुओं के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट ले आओ तो अपनी जीत पक्की. यह फॉर्मूला यूपी में भी चलता था और इस तरह 20 फीसदी की मुस्लिम आबादी राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाती थी. पश्चिम बंगाल और असम में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत ज्यादा होने की वजह से पार्टी को करीब 60 फीसदी हिंदू वोट हासिल करना जरूरी होता था. 

मोदी की भाजपा ने करीब एक दशक से जिस मुस्लिम वोट को राष्ट्रीय परिदृश्य में अप्रासंगिक बना दिया था उसे इन चुनाव नतीजों, खासकर यूपी और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने पलट दिया है. 

मुस्लिम वोट के फिर से ताकतवर होने को लेकर हमने अब तक जो सवाल उठाए हैं उनका एक सीधा-सा जवाब है— हिंदू वोट. 

यह तो साफ है कि जब मुहम्मद अली जिन्ना अपना पाकिस्तान लेकर भारत से अलग हो गए उसके बाद से भारतीय मुसलमानों ने अपने मजहब के किसी शख्स को अपना नेता नहीं माना, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को भी नहीं. वे हमेशा अपने भरोसे के लायक हिंदू नेताओं की ओर देखते रहे.

ज़्यादातर तो वे काँग्रेस की ओर देखते रहे, जब तक कि 1989 में बाबरी-अयोध्या के विवादास्पद स्थल का ताला नहीं खोला गया था और उनका भरोसा नहीं टूटा था. उसके बाद यह वोट बैंक उन ताकतों की ओर मुड़ गया जो उन्हें वैसी ही सुरक्षा देने का वादा कर रही थीं. ये ताक़तें थीं— मुख्यतः हिंदी पट्टी में पुराने लोहियावादी मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव, और पश्चिम बंगाल में वाम दल. महाराष्ट्र और केरल, और दक्षिण भारत के दूसरे भागों में विकल्प उपलब्ध न होने के कारण मुसलमान काँग्रेस के साथ ही रहे. दूरदराज़ के कुछ इलाकों में मुस्लिम नेतृत्व उभरे.  

लेकिन मुसलमानों ने खुद जिन नये नेताओं को चुना उन्हें वे सत्ता दिलाने में सफल नहीं हुए. ये वो नेता थे जिन्होंने पर्याप्त संख्या में हिंदुओं के साथ मिलकर गठबंधन बनाए— मुलायम और लालू ने यादवों और कुछ पिछड़ी जातियों के साथ, बंगाल में वाम दलों ने निम्न वर्ग के हिंदुओं के साथ, तो विंध्य के दक्षिण में काँग्रेस ने अपने ठोस वोट बैंक के साथ.

यह सब हिंदी पट्टी में तब तक चला जब तक मुस्लिम वोट साढ़े तीन हिस्सों (सपा/राजद, बसपा, भाजपा और काँग्रेस) में बंटता रहा. तब आप उस विभाजन के तहत केवल 28-30 फीसदी वोट हासिल करके भी यूपी, या बिहार जैसे राज्यों पर राज कर सकते थे, जैसा कि मुलायम (2002 में), मायावती (2007 में), अखिलेश (2012 में) और लालू बार-बार दिखा चुके हैं. इसमें चाल यह थी कि मुस्लिम वोट के साथ जाति आधारित एक-दो हिंदू वोट बैंक को जोड़ लो, और अपना खेल बना लो! मोदी के उभार ने इस फॉर्मूले को विफल कर दिया. यादव और मायावती के किलों को छोड़ कई हिंदू मोदी के साथ हो लिये. 

तो इस बार के चुनाव में क्या बदल गया? मुसलमानों के उन्हीं हिंदू नेताओं ने पिछले पांच वर्षों से अपना सुर बदल दिया था और उन्होंने मुसलमानों के मसलों को कभी जोरदार तरीके से नहीं उठाया.  

अगर भाजपा ने 2014 में सात और 2019 में तीन मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करने के बाद इस बार केवल एक को खड़ा किया, तो इसकी वजह समझ में आती है. लेकिन यूपी में सपा ने केवल चार और काँग्रेस ने दो, और पश्चिम बंगाल में ममता ने छह मुस्लिम उम्मीदवारों को ही खड़ा किया. वे मुसलमानों पर अपनी निर्भरता को कम करके दिखाने की कोशिश कर रहे थे. मुस्लिम मुल्ले, कट्टरपंथी आवाजें, सभी खामोश रहीं. भाजपा को ध्रुवीकरण के कारण बनी गुंजाइश का फायदा नहीं उठाने दिया गया. 

जरा सोचिए कि भाजपा ने संदेशखाली में ‘महिलाओं पर हुए अत्याचार’ के मसले को इतने जोरदार तरीके से क्यों उठाया. सभी आंकड़े यही बताते हैं कि ममता ने भाजपा को 60 फीसदी हिंदू वोट का लाभ लेने से इसलिए रोक दिया क्योंकि महिलाओं पर वे काफी असर रखती हैं. भाजपा को लग रहा था कि वह उस वोट में सेंध लगा लेगी, मगर वह नाकाम रही. अब आपको यह भी पता चल गया होगा कि ममता ने 10 में से चार सीटें महिलाओं को क्यों दी. इसका नतीजा सामने है.

हवा में तिनके दूसरी जगहों पर भी उड़ रहे हैं. असम में बदरुद्दीन अजमल को सिफर हासिल हुआ. परिसीमन इस तरह की गई थी कि काफी मुस्लिम वोट एक चुनाव क्षेत्र ढुबरी में जमा हो जाएं और वे तीन क्षेत्रों को प्रभावित न करें. सीधी टक्कर में काँग्रेस के रकीबुल हुसैन ने न केवल अजमल को हराया बल्कि भारत में सबसे ज्यादा वोटों के अंतर से जीतने वाले उम्मीदवार बनकर उभरे.

मेरे विचार से यह मुस्लिम सोच के पुराने सामान्य ढर्रे में ढलने का अच्छा उदाहरण है. वे फिर से उन पार्टियों की ओर लौट रहे हैं, जो पर्याप्त संख्या में हिंदू वोट हासिल करके सही सेकुलर गठबंधन और वोट बैंक का निर्माण कर सकें. असम और बिहार के मामलों को आसानी से समझाया जा सकता है. असम में जातीय विभाजन न होने से काँग्रेस हिंदुओं में ज्यादा पैठ न बना सकी. बिहार में भाजपा के सहयोगियों, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी ने दलित वोटों को एकजुट रखा, जबकि मायावती यूपी में ऐसा नहीं कर पाईं.

इन तमाम वजहों से हम मुस्लिम वोट को पर्याप्त हिंदू वोटों की सहभागिता के साथ फिर से ताकतवर होते देख रहे हैं. यह संकेत दे रहा है कि भावी सियासत क्या रूप ले सकती है.

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