पुष्पा गुप्ता
इस भुतहे माहौल में भूतों से कोई क्या डरेगा भला ! बल्कि भूत आजकल ज्यादा डरे-डरे रहते हैं उनसे जिन्होंने देश को इस क़दर श्मशान बना डाला है कि श्मशान ज्यादा सुकूनतलब जगह लगने लगा है !
तो लीजिये, भूतों के तीन किस्से जो बरसों पहले कभी सुनाई थी, एक बार फिर सुना रही हूँ!
1.
एक सुनसान इलाके में सड़क किनारे एक श्मशान था जहाँ एक भूत रहा करता था और देर रात उधर से गुज़रने वालों को डराकर यूँ ही अपने भूत-जीवन के मज़े लिया करता था I
एक रात उधर से गुज़र रहा एक कम्युनिस्ट (सही वाला, नक़ली वाला नहीं) उससे टकरा गया ई
भूत ने कम्युनिस्ट को घेरकर तरह-तरह से डराने की कोशिश की , लेकिन कम्युनिस्ट नहीं डरा I तब भूत खुद ही डर गया ! उसने कम्युनिस्ट से कहा,”मालिक, मैं आज से आपका गुलाम ! आप मेरे आक़ा !”
कम्युनिस्ट ने उसे झिड़कते हुए कहा,”हम किसी को गुलाम नहीं बनाते I हम दोस्त हैं ! और आइन्दा से कभी मुझे मालिक मत कहना ! कामरेड कहना !”
फिर वह भूत कम्युनिस्ट के साथ रहने लगा I वह भूत की तरह काम करता था और भूत की तरह पढाई-लिखाई भी करता था I कई श्मशानों में ग़रीब भूतों की यूनियनें बनाकर उसने अमीर भूतों का जीना दुश्वार कर दियाI
अपने ज़रूरी विचारधारात्मक काम के तौर पर वह भूत उन्नत चेतना वाले भूतों के बीच भौतिकवादी नज़रिए का भी प्रचार करता था और बताता था कि “यह भूत-वूत कुछ नहीं होता है I वैज्ञानिक नज़रिए की कमी से ऐसे डर और वहम पैदा होते हैं !”
2.
भूतलैण्ड के भूतों की सबसे बड़ी समस्या बोरियत और एलियनेशन की थी । खाना, कपड़ा, घर की भूतों को ज़रूरत होती नहीं थी, इसलिए उन्हें कोई भी काम नहीं करना पड़ता था । बिना कोई काम किये न जीने में कोई ख़ास आनंद आता था, न नाच-गाने में। यहाँतक कि इश्क़-मुहब्बत से भी सभी भूत-भूतनी बेज़ार रहा करते थे।
बोरियत मिटाने के लिए कभी किसी ज़िन्दा आदमी को कुछ देर हैरान-परेशान करते थे पर फिर उससे भी बोर हो जाते थे ।
भूत भीड़ में भी अकेले होते हैं, वे ज़िन्दगी का कोई मतलब या मक़सद नहीं ढूँढ़ पाते और बस यूँ ही जिये चले जाते हैं । यही भूत-जीवन की असह्य पीड़ादायी त्रासदी होती है।
फिर एकबार ऐसा हुआ कि भूतलैण्ड में एक नया भूत आया । वह हमेशा कोई एक कोना टिकाकर बैठा रहता था । कभी-कभी वह कहीं खड़ा होकर कुछ देर तक व्याख्यान देने वाले अंदाज में बोलने लग जाता था और फिर अपने उसी एकांत में जाकर बैठ जाता था।
भूतों की किसी धमाचौकड़ी में वह कभी शामिल नहीं होता था । ऐसा लगता था कि न तो उसे कोई बोरियत होती थी, न ही भूत-जीवन से उसे कोई शिक़ायत थी।
एक दिन एक बूढ़े भूत के पूछने पर उसने बताया कि उसे तो भूत बनने से कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा, दरअसल उसकी ज़िन्दगी भी ऐसी ही थी । उसने पूरी ज़िन्दगी कभी कोई काम नहीं किया । आम लोगों से उसका ज्यादा मिलना-जुलना भी कभी नहीं रहा।
बस वह अपने स्टडी रूम में बैठकर अकेले कुछ पढ़ता-सोचता रहता था और कभी-कभार कहीं लेक्चर देने चला जाता करता था । वह एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी था जिसकी विद्वानों में तूती बोलती थी।
उसकी बात सुनकर बूढ़े भूत ने कहा,”भाई, भूत बनने के लिए तुम्हें मरने की क्या ज़रूरत थी ? तुम तो ज़िन्दा ही एक भयंकर भूत थे!”
3.
भूत-प्रेत की कहानी देर रात को सुनने में ही असली मज़ा है।
श्मशान में एक भूत परिवार रहता था। परिवार का मुखिया बड़ा विकट प्रेत था। किसी के सिर पर सवार हो गया तो ओझा श्मशान में आधी रात को लाश का भोग लगाते हुए और खोपड़ी में ख़ून पीते हुए कई दिनों तक तांत्रिक अनुष्ठान करता था तब कहीं जाकर पीछा छोड़ता था।
फिर ओझा को एक नुस्खा मिल गया। एक दिन भूत के नखरों और ज़िद से तंग आकर उसने कहा कि अब अगर तुम फ़ौरन अपना रास्ता नहीं नापते हो तो मंत्रों की मार से तुम्हारी आत्मा को कट्टर उन्मादी फासिस्ट बना दूँगा और समय में पीछे ले जाकर 2002 के गुजरात में पहुँचा दूँगा, या फिर तुम को बिल्ला, रंगा या कनफटे के मरने पर उनके मृत शरीर में परकायाप्रवेश करा दूँगा।
इतना सुनना था कि भूत न सिर्फ़ अपने शिकार के शरीर से उतरकर बगटुट भागा बल्कि उस श्मशान से ही सपरिवार अपना डेरा-डंडा उठाकर दूर किसी पीपल के पेड़ पर चला गया।
कारण पूछने पर उसने पत्नी को बताया,”अरे भई, भूत-प्रेत हैं, लोगों को थोड़ा डराते-सताते हैं, पर इतने भी गिरे हुए, कमीने और नीच नहीं हैं कि देश और धर्म की दुहाई देकर नरसंहार करें, सामूहिक बलात्कार करें और लुटेरे धनिकों की कुत्तों की तरह सेवा करें। अब फासिस्ट तो हम नहीं बन सकेंगे। यह तो न हो सकेगा । हम ऐसे ही भले!”