अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

किसानों की क्रांतिकारी बगावत…चौरी चौरा’ के 100 साल

Share

सुभाष चंद्र कुशवाहा

किसानों की क्रांतिकारी बगावत ने 4 फरवरी 1922 को न केवल भारतीय इतिहास बल्कि विश्व इतिहास का यादगार दिन बना दिया। आज चौरी-चौरा कांड हुवे 100 वर्ष हो गया। उस वक़्त ब्रिटिश भारत में संयुक्त राज्य के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा में हुई थी। चौरी-चौरा के डुमरी खुर्द के लाल मुहम्मद, बिकरम अहीर, नजर अली, भगवान अहीर और अब्दुल्ला के नेतृत्व में के नेतृत्व में किसानों ने आज ही के दिन 4 फरवरी 1922 में हजारों किसानों ने जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के अंग चौरी-चौरी थाने को फूंक दिया जिसमेें 22 सिपाही मारे गए।
इस दिन डुमरी खुर्द गांव के गरीब मेहनतकश जनता ने जमींदारों, दलाल पूंजीपतियों और ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ को खुलेआम चुनौती दिया और कुछ समय के लिए ही सही चौरी-चौरा के इलाके पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। इस घटना की तुलना बास्तील के किले पर फ्रांस की जनता के हमले और कब्जे से की जाती है। 14 जुलाई 1789 को फ्रांस की विद्रोही जनता ने फ्रांसीसी राजसत्ता के गढ़ बास्तील के किले पर पर कब्जा कर लिया था। इसी घटना ने फ्रांसीसी क्रांति का आगाज किया था।
चौरी-चौरा की घटना मूलत: भारत के गरीब और भूमिहीन किसानों की क्रांतिकारी बगावत थी। यह बगावत जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ थी। लेकिन साथ ही यह बगावत मोहनदास करम चंद्र गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की जमींदार समर्थ नीतियों के भी खिलाफ थी। भले ही जिन किसानों ने इस विद्रोह में भाग लिया और खासकर जिन लोगों ने इसका नेतृत्व किया वे लोग स्वयं को कांग्रेस का स्वयं-सेवक मानते थे और गांधी जी के स्वराज का अर्थ जमींदारों और पुलिस के अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति भी मानते थे। चौरी-चौरा की मेहनतकश जनता ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। ग्रामीण आबादी के सबसे नजदीक ब्रिटिश सत्ता के केंद्र के रूप में थाना ही था, जहां वे अपनी विद्रोह जता सकते थे। 4 फरवरी, 1922 को उन्होंने उस सत्ता को न केवल चुनौती दी, बल्कि विद्रोह की रात, चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और डाकघर पर तिरंगा फहरा कर, अपने संघर्ष का मकसद समाज के सामने रखा।
इस जन विद्रोह में चौरी-चौरा के 40 किलोमीटर के दायरे में 60 गांवों की मेहनतकश जनता शामिल थी। इनकी संख्या 2 से 3 हजार के बीच थी। इस विद्रोह का केंद्र दलितों, पिछड़ों और मुसलानों का गांव डुमरी खुर्द था। इस बगावत के नेता अब्दुल्ला चूड़ीहार, भगवान अहीर, बिकरम अहीर, नजर अली, रामस्वरूप बरई आदि थे। चौरी-चौरा की बगावत के लिए 19 लोगों को फांसी दी गई थी। इन 19 लोगों में अब्दुल्ला, भगवान अहीर, बिकरम अहीर, दुधई, कालीचरन कहार, लवटू कहार, रघुबीर सुनार, रामस्वरूप बरई, रूदली केवट, संपत चमार आदि को फांसी दी गई थी। 19 लोगों को फांसी देने के साथ ही, 14 लोगों को आजीवन कारावास और 96 लोगों को अलग-अलग तरह की सजाएं दी गई थी। फांसी और सजा पाये अधिकांश लोग पिछडे, दलित और मुसलमान थे। जिन लोगों को फांसी और अन्य सजाएं हुई उनके परिवारों पर किस कदर कहर टूटा कि यादकर रूह कांप जाती है। 
इस घटना ने जमींदारों-राजा एंव नवाबों और ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया। यह खबर पूरी दुनिया में फैल गई। जहां एक ओर दुनिया भर के जनपक्षधर क्रांतिकारी ताकतों ने इसका स्वागत किया और भारत में क्रांतिकारी तूफान की शुरूआत के रूप में देखा, लेनिन लिखा कि ‘हिन्दुस्तान की आजादी का रास्ता, चौरीचौरा से होकर गुजरता है, इसलिेए हजारों चौरीचौरा बनाओ’ वहींं जमींदारों को अपने संघर्ष की रीढ़ मानने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेता महात्मा गांधी भी इस विद्रोह से घबरा उठे। उन्होने मेहनतकश गरीब जनता की इस बगागवत को ‘गुंडों का कृत्य’ और ‘उपद्रवियों का कृत्य’ कहकर 12 फरवरी 1922 को राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आंदोलन को रोक दिया था। ऐसा कह कर महात्मा गांधी ने सीधे-सीधे जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के पक्ष में खड़े हो गए।
चौरी-चौरा संघर्ष की हकीकत को ज्यादातर इतिहासकारों ने छिपाया और तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हम सभी जानते हैं कि भारत ही नही दुनिया के अधिकांश इतिहासकार शासक वर्ग के हितों का ख्याल कर उनके पक्ष में ही लिखते थे। इतिहास कभी भी आम जनता नही लिखती है। सदैव इतिहास को शासक वर्ग लिखता और लिखवाता है। जब शासक वर्ग इतिहास लिखेगा तो निश्चित ही अपने हिसाब से अपने वर्ग के हित मे ही लिखवायेगा ना कि जनता के हित में। जब आप चौरी-चौरा कांड को वर्गीय दृस्टिकोण से पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि आजादी की लड़ाई में ब्रिटिश सत्ता को नेस्तानाबूद करने वाले इस बगावत को गौरवान्वित करने के बजाय, इसको उपेक्षित किया गया है। यह उपेक्षा भारतीय सामंती समाज के उस वर्ग चरित्र को दर्शाती है, जहां मेहनतकश जनता को हमेशा उपेक्षित और तिरस्कृत किया गया है। जब भी आप इतिहास पढ़ें तो हमेशा वर्गीय चरित्र को ध्यान मे रखकर पढ़ें। यंहा इस चौरी-चौरा विद्रोह को वर्गीय दृस्टिकोण से पढ़ेंगे तो कई सारे गंभीर प्रश्न उठेंगे। चौरी-चौरा का किसान विद्रोह भारतीय इतिहास की कई फंतासियों, मिथकों और कुलीनतावादियों के दोगले चरित्र का पर्दाफाश करता है। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के वर्गीय चरित्र पर तो वामपंथी इतिहासकार एक हद तक प्रश्न उठाते हैं, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा आजादी का आंदोलन उच्च जातियों के नेतृत्व में उच्च जातीय वर्चस्व का भी संघर्ष था। आंबेडकर ने निरंतर स्वतंत्रता आंदोलन के उच्च जातीय चरित्र को अपने विमर्श और संघर्ष के केंद्र में रखा। यही काम प्रेमचंद्र ने अपने उपन्यास गोदान के अलावा कै कहानियों में किया है। गोदान का केंद्रीय निष्कर्ष यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्तियां उच्च जातीय और उच्च वर्गीय है। 
यह जनबगावत स्वत:स्फूर्त, अराजक और अनियोजित भीड़ द्वारा नहीं अंजाम दिया गया था बल्कि यह एक सुनियोजित तरीके से रणनीति बनाकर अंजाम दिया गया था। इस जन विद्रोह को अंजाम देने के लिए एक हद तक इसके नेतृत्वकर्ताओं ने एक रणनीति के तहत 4 फरवरी की सभा को सफल बनाने के लिए मात्र दो दिन की तैयारी में 40 किलोमीटर की परिधि के लगभग 60 गांवों के जनता को बुलाकर एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत की थी। गोरखपुर के कांग्रेसी मुख्यालय का नेतृत्व न मिलने के बावजूद उन्होंने अपना नेतृत्व विकसित किया और उसके निर्देशों का पालन भी किया। चौरी-चौरा के 60 गांवों के गरीब किसानों के विद्रोह के पीछे थानेदार गुप्तेश्ववर सिंह और अंग्रेजों द्वारा पोषित जमींदारों के जुल्म, जनता में आक्रोश पैदा कर रहे थे। दूसरी ओर गांधी, ‘महात्मा’, ‘फकीर’, ‘देवता’ और ‘चमत्कारिक पुरूष’ के रूप में समाचार पत्रों तथा देख अभिजात्यों द्वारा स्थापित किए जाने के बावजूद, किसानों की किसी भी समस्या का हल, कांग्रेसी आंदोलन के पास नहीं दिख रहा था। यहां तक कि ज्यादात्तर जुल्म ढाने वाले जमींदार कांग्रस के समर्थक थे। 
किसी गुलाम देश की आजादी, सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष के प्रयासों से नहीं मिलती, आजादी के लिए हमेशा जनसंघर्ष की जरूरत पड़ती है। ऐसे संघर्षों में कई बार हिंसा की उपस्थिति अधिनायकवादियों द्वारा अनिवार्य बनी दी जाती है तो कई बार स्वंय की हिफाजत के लिए भी हिंसा जरूरी हो जाती है। आत्मरक्षार्थ शस्त्र लाइसेंस देने के पीछे दुनिया भर में यही सिद्धांत अपनाया जाता है। यह बात चौरी-चौरा के मेहनतकश जनता पर भी लागू होता है, चौरी-चौरा की गरीब मेहनतकश जनता ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। ग्रामीण आबादी के सबसे नजदीक ब्रिटिश सत्ता के केंद्र के रूप में थाना ही था, जहां वे अपनी विद्रोह जता सकते थे और जताया भी। 
यह लेख सुभाष चंद्र कुशवाहा की किताब, चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन में दिये गये तथ्यों पर आधारित है।  
*अजय असुर**राष्ट्रीय जानवादी मोर्चा*

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें