अनिल जैन
हर कैलेंडर वर्ष अपने दामन में तमाम तरह की कड़वी-मीठी यादें समेटते हुए विदा होता है। ये यादें अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को लेकर भी होती हैं और राष्ट्रीय घटनाओं को लेकर भी।
कोरोना महामारी के चलते हाहाकार, चीत्कार और अफरा-तफरी से भरे साल 2020 और 2021 बाद 2022 का साल हमारे राष्ट्रीय जनजीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण रहा। इस साल में देश को नए राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति मिले। बेहद साधारण पृष्ठभूमि की द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बनी। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने भी इस साल दो प्रधान न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होते और तीसरे को पदासीन होते देखा।
संवैधानिक पदों पर इन निर्वाचनों और नियुक्ति के साथ ही इस साल जहां एक तरफ वे सवाल और गहरे हुए जो पिछले कुछ सालों से हमारे लोकतंत्र, संविधान और राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के लिए चुनौती बने हुए हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ घटनाएं ऐसी भी हुईं जिनसे हमें कुछ आश्वस्ति मिली कि हम उन चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं।
चुनावी राजनीति
हर साल की तरह यह साल भी चुनावी राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण रहा। इस साल देश के सात राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए। इन सात राज्यों में से छह राज्य भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले राज्य थे और एक में कांग्रेस की सरकार थी। भाजपा उत्तर प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में फिर से अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही, लेकिन एक राज्य हिमाचल प्रदेश उसके हाथ से निकल कर कांग्रेस के पास चला गया।
हिमाचल में जीती कांग्रेस
हिमाचल में कांग्रेस की जीत को इस लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों में यह कांग्रेस की पहली जीत रही। कांग्रेस ने जहां हिमाचल हासिल किया वहीं उसे पंजाब गंवाना पड़ा। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने आश्चर्यजनक प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा को करारी शिकस्त दी। पंजाब में पहली बार अकाली दल और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरी पार्टी सत्ता पर काबिज हुई।
यूपी में लौटी बीजेपी
पिछले पांच-छह सालों में पनपे भीषण सांप्रदायिक और जातीय तनाव, कोरोना के दौरान मची व्यापक अफरा-तफरी, तहस-नहस हो चुकी कानून-व्यवस्था की स्थिति आदि के चलते कई तरह के प्रश्नों में तब्दील हो चुके उत्तर प्रदेश में भाजपा का लगातार दूसरी बार जीतना भी उल्लेखनीय रहा। उसकी जीत से यह जाहिर हुआ कि उसने सूबे में धार्मिक आधार पर जो ध्रुवीकरण पिछले पांच-छह सालों में किया है उसे खत्म करना विपक्ष के लिए अभी भी एक बड़ी चुनौती है।
हालांकि उसकी सीटें पहले से काफी घटी और विपक्ष के रूप में समाजवादी पार्टी पहले से मजबूत होकर उभरी, लेकिन खास बात यह रही कि तीन दशक तक सूबे में एक निर्णायक राजनीतिक ताकत रही बहुजन समाज पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया। उसने जिस अनमने ढंग से चुनाव लड़ा,उससे माना गया कि उसने भाजपा के आगे समर्पण कर दिया।
ऑपरेशन लोटस
इन चुनावी हार-जीतों के बीच ही भाजपा का ऑपरेशन लोटस यानी राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों की डरा कर या लालच देकर तोड़ने विपक्षी दल की सरकार को गिराने का खेल इस साल भी जारी रहा। महाराष्ट्र में तीन साल पहले शिव सेना ने भाजपा से नाता तोड़ कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, जिसे भाजपा हजम नहीं कर पा रही थी। पहले उसने कांग्रेस और एनसीपी के विधायकों को तोड़ कर सरकार गिराने की कोशिशें कीं। उनमें नाकाम रहने पर आखिर उसने 30 साल तक अपनी सहयोगी रही शिव सेना को तोड़ दिया और उसके टूटे हुए धड़े के नेता की अगुवाई में सरकार बना ली।
इस पूरे नाटकीय घटनाक्रम में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट से जिस भूमिका की स्वाभाविक अपेक्षा थी, वह उन्होंने नहीं निभाई। दलबदल विरोधी कानून भी बेमतलब साबित हुआ। उस घटनाक्रम को छह महीने से अधिक हो गए हैं लेकिन चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट अभी तक शिव सेना के विभाजन से संबंधित कानूनी विवाद का निबटारा नहीं कर सके हैं।
महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन की सरकार को गिरा कर जो भाजपा ने जो खुशी हासिल की थी, वह ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी। महज दो महीने बाद ही बिहार में उसे आधी-अधूरी सत्ता से हाथ धोना पड़ा जब अगस्त महीने में नीतीश कुमार के जनता दल (यू) ने भाजपा से नाता तोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी दलों के साथ साझा बना ली।
नीतीश ने छोड़ा बीजेपी का साथ
हिंदी भाषी प्रदेशों में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है। साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी लेकिन राजनीतिक मजबूरी के चलते उसे अपने से छोटी पार्टी की अगुवाई में बनी सरकार में जूनियर पार्टनर बन कर रहना पड़ रहा था। उसी स्थिति में रहते हुए वह अपने सहयोगी दल जनता दल (यू) सहित अन्य सहयोगी दलों तथा कांग्रेस के विधायकों को तोड़ कर अपनी अगुवाई में सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी, जिसे नीतीश कुमार ने समय रहते ही भांप कर उसके मंसूबों को नाकाम कर दिया।
बिहार में भाजपा का जनता दल (यू) से गठबंधन टूटना भाजपा के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से भी बड़ा झटका है।
चुनावी हार-जीत और जोड़-तोड़ से अलग एक जिस एक अन्य बड़ी राजनीतिक घटना के लिए भी यह वर्ष याद किया जाएगा, वह है राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा। सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा बदनाम करने के तमाम प्रयासों और टेलीविजन मीडिया द्वारा नजरअंदाज किए जाने के बावजूद सितंबर महीने कन्याकुमारी से शुरू होकर अभी तक दिल्ली पहुंची इस यात्रा को जिस तरह का जनसमर्थन मिल रहा है, उससे और कुछ हो या न हो, मगर कांग्रेस संगठन में जरूर जान आई है और उसके नेता के तौर पर राहुल गांधी की भी एक नई छवि बन रही है।
इसी बीच कांग्रेस में वर्षों बाद हुआ पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भी इस वर्ष की महत्वपूर्ण घटना रही। पूरे 22 साल बाद कांग्रेस की अध्यक्षता गांधी परिवार से बाहर के नेता के पास आई। अलबत्ता कांग्रेस पर परिवारवाद और एक परिवार की पार्टी होने का आरोप लगाने वाली भाजपा में हमेशा की तरह इस बार भी अध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ और मौजूदा अध्यक्ष का ही कार्यकाल बढ़ा दिया गया।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर फैसला
चुनावी हार-जीत और जोड़-तोड़ की इन घटनाओं के अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले भी महत्वपूर्ण रहे। पहले फैसले में उसने 1991 में बने धर्मस्थल कानून को नजरअंदाज करते हुए वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण को मंजूरी दी, जबकि दूसरे फैसले में उसने अगड़ी जातियों के गरीब तबके को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों 10 फीसदी आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को जायज ठहराया। आरक्षण संबंधी यह फैसला भी उसने 1993 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले को पलटते हुए दिया।
ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में दिए गए फैसले ने जहां पुराने धार्मिक स्थलों को लेकर नए-नए विवाद खडे होने की गुंजाइश पैदा कर दी है, वहीं आरक्षण संबंधी फैसले ने संविधान में वर्णित आरक्षण की अवधारणा को ही बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट के ये दोनों फैसले देश में लंबे समय तक सामाजिक तनाव को बढ़ाने के कारण बन सकते हैं।
इन घटनाओं के अलावा पिछले सालों की तरह यह साल भी संवैधानिक संस्थाओं के और ज्यादा कमजोर होते जाने का गवाह बना। चुनाव आयोग अपनी विवादास्पद कार्यशैली को लेकर सुप्रीम कोर्ट से कड़ी फटकार सुनने के बाद भी रत्तीभर नहीं बदला। गुजरात विधानसभा के चुनाव में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए मतदान वाले दिन भी रोड शो और चुनावी रैलियां संबोधित करते रहे और चुनाव आयोग खामोश बना रहा।
विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ सरकार की ओर से प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, आयकर आदि केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का सिलसिला भी बदस्तूर जारी रहा।
सीमा पर चीन की घुसपैठ
राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भी सरकार का रवैया देश को निराश करने वाला रहा। चीन ने अरुणाचल प्रदेश के कई इलाकों में अपनी बस्तियां बसा कर अपने आधिकारिक नक्शे में उन इलाकों को अपना हिस्सा बताया लेकिन भारत सरकार चुप्पी साधे रही। सीमा विवाद के चलते ही दोनों देशों के बीच सैन्य झडपें भी होती रहीं लेकिन पूरे मामले में प्रधानमंत्री खामोश बने रहे।
यह साल धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के अभूतपूर्व रूप से ध्वस्त होने के लिए भी याद रखा जाएगा, जिसके नतीजे के तौर पर देश में गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी किस स्तर तक पहुंच गई है, यह जानने के लिए ज्यादा पड़ताल करने की जरूरत नहीं है।
इसकी स्थिति को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के जरिए बहुत आसानी से समझा जा सकता है। खुद सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत 80करोड़ राशनकार्ड धारकों को हर महीने मुफ्त राशन दिया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का सिलसिला इस साल भी बना रहा और वह सबसे बुरी तरह पिटने वाली एशियाई मुद्रा बन गया।
मोरबी पुल हादसा
यह विदा होता साल गुजरात के मोरबी में पुल टूटने से करीब 150 लोगों के मारे जाने के दर्दनाक हादसे का और उस हादसे के जिम्मेदार लोगों को सरकार द्वारा बचाने के प्रयासों का गवाह भी बना। इसी साल गुजरात और बिहार जैसे पूर्ण शराबबंदी वाले राज्यों में जहरीली से शराब से लोगों के मरने की भी कई घटनाएं हुईं। साल 2022 में ही देश ने सजायाफ्ता बलात्कारियों और हत्यारों की सजा माफ होते और जेल से छूटने पर उन्हें सम्मानित किए जाने वाले शर्मनाक दृश्य भी देखे।
महामारी के लौटने की आशंका
इस साल की शुरुआत होते-होते जहां पूरा देश कोरोना की महामारी से राहत महसूस करता दिख रहा था, वहीं साल खत्म होते-होते चीन में कोरोना के नए वैरिएंट के सक्रिय होने से उसके भारत में भी फैलने की आशंका जन्म लेने लगी है। हालांकि इससे बचाव के लिए सरकार ने नागरिकों के लिए अभी कोई प्रोटोकॉल निर्धारित नहीं किया है, लेकिन उसने इस महामारी के नए संस्करण की आड़ लेते हुए राजनीतिक लक्ष्य साधने की कोशिशें शुरू कर दी है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने पत्र लिख कर अपनी भारत जोड़ो यात्रा रद्द करने की अपील की है, जिसे फिलहाल कांग्रेस ने ठुकरा दिया है। कहा जा सकता है कि जिस महामारी से राहत की सांस लेते हुए यह साल शुरू हुआ था उसी महामारी के लौट आने की आशंका और उसकी आड़ में क्षुद्र राजनीतिक दांवपेंचों के साथ इस साल का समापन हो रहा है। लेते हुए यह साल शुरू हुआ था उसी महामारी के लौट आने की आशंका और उसकी आड़ में क्षुद्र राजनीतिक दांवपेंचों के साथ इस साल का समापन हो रहा है। ‘सत्य हिन्दी’