कंवल भारती
यह दिलचस्प है कि भाजपा भगत सिंह को आतंकवादी नहीं मानती, बल्कि देशभक्त मानती है। आरएसएस भी अपनी प्रात: कालीन प्रार्थना में श्रद्धा के साथ भगत सिंह का स्मरण करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि दोनों घटनाओं के बीच 94 वर्षों का लंबा अंतराल होने के बावजूद, और विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में भी, दोनों घटनाओं में समानता है।
इतिहास में दर्ज 8 अप्रैल, 1929 को भारत की असेंबली में भगत सिंह और उनके साथियों ने दर्शक दीर्घा से बम फेंकने के बाद पर्चे बांटे थे, जिसमें लिखा था, “बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ (अर्थात धमाके) की जरूरत होती है।” बम फेंकने और पर्चे बांटने के बाद उन्होंने भागने का प्रयास नहीं किया, बल्कि अपने आपको गिरफ्तार करवाया। वे अपना अंजाम जानते थे।
इस घटना के 93 साल बाद 13 दिसंबर, 2023 को नए संसद भवन मेंदो नौजवानों ने पुन: उस घटना को दुहराया, और भारत के लोगों को भगत सिंह और उनके साथियों की याद दिलाई। इन नौजवानों ने लोकसभा में दर्शक दीर्घा से नीचे कूदकर, जहां शून्यकाल की कार्यवाही चल रही थी, कोई धमाका तो नहीं किया, और न ही पर्चे बांटे। लेकिन उन्होंने कोई पदार्थ जलाकर पीले रंग का धुआं जरूर किया, पर किसी भी संसद-सदस्य को किसी भी तरह का शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाया; बस “तानाशाही नहीं चलेगी” का नारा लगाया। भगत सिंह की तरह इन्होंने भी भागने का प्रयास नहीं किया। इसलिए, वे आसानी से सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ लिए गए। पुलिस की पूछताछ में उनकी पहचान लखनऊ के 25 वर्षीय सागर शर्मा और मैसूर के 35 वर्षीय मनोरंजन डी. के रूप में हुई है। पुलिस द्वारा दो नौजवान संसद भवन के बाहर भी पकडे गए, जिन्होंने उसी तरह का पीला धुआं बाहर भी पैदा किया था, जैसा संसद के भीतर किया गया था। ये थे हिसार (हरियाणा) की 42 वर्षीय नीलम आजाद और लातूर (महाराष्ट्र) के 25 वर्षीय अमोल शिंदे। पुलिस के अनुसार ये चारों युवक ललित झा नाम के युवक के संपर्क में थे।
सर्वविदित है कि 1929 में भारत अंग्रेजों का उपनिवेश था। अत: औपनिवेशिक सरकार की तानाशाही के प्रति अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में बम-धमाका किया था। अंग्रेज सरकार ने उन्हें आतंकवादी करार दिया, और उन्हें फांसी की सज़ा दी गई। लेकिन 2023 का भारत एक आज़ाद भारत है, जिसकी सत्ता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथों में है। भाजपा के शासन को अगले महीने दस साल पूरे हो जाएंगे। इन दस सालों में भाजपा सरकार ने जिस तरह धर्म के नाम पर नफरत का वातावरण पैदा किया, और बेलगाम निजीकरण के द्वारा बेरोजगारी पैदा की, उसके प्रति इन चारों युवकों ने संसद में धुआं करके और नारे लगाकर भाजपा शासन की तानाशाही के खिलाफ अपने रोष को व्यक्त किया है। भगत सिंह भी आतंकवादी नहीं थे, और ये युवक भी आतंकवादी नहीं हैं। किन्तु जैसे अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह और उनके साथियों को आतंकवादी माना, उसी तरह भाजपा सरकार ने भी इन चारों युवकों को आतंकवादी करार दिया, और आतंक-रोधी कानून के तहत उन पर कार्यवाही की है।
लेकिन यह दिलचस्प है कि भाजपा भगत सिंह को आतंकवादी नहीं मानती, बल्कि देशभक्त मानती है। आरएसएस भी अपनी प्रात: कालीन प्रार्थना में श्रद्धा के साथ भगत सिंह का स्मरण करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि दोनों घटनाओं के बीच 94 वर्षों का लंबा अंतराल होने के बावजूद, और विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में भी, दोनों घटनाओं में समानता है। असेम्बली में भगत सिंह का बम-धमाका और लोकसभा में दो युवकों का धुआं दोनों ही युवा-प्रतिरोध के प्रतीक हैं। भगत सिंह का प्रतिरोध सरकार के कई मुद्दों पर था; जैसे उन्होंने बांटे गए पर्चे में लिखा था कि “विदेशी सरकार पब्लिक सुरक्षा बिल को कड़ा करने और प्रेस की स्वतंत्रता का दमन करने जा रही है। वह मजदूरों के लिए काम करने वाले नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारी कर रही है। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।”
लेकिन यह आकस्मिक नहीं है कि जब इन युवकों ने लोकसभा में धुआं किया, तो भाजपा सरकार भी तीन आपराधिक कानून पास करने जा रही थी, जिसमें भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 शामिल थे, जिन्हें उसने विपक्ष के सांसदों को निलंबित करके, अपने ‘यसमैन’ सांसदों से हाथ उठवाकर इसी हफ्ते पास करा लिए।
परंतु 13 दिसंबर 2023 को धुआं करने वाले युवकों ने सिर्फ़ नारा लगाया कि तानाशाही नहीं चलेगी। उन्होंने इन विधेयकों का जिक्र नहीं किया, जो सरकार की तानाशाही को प्रमाणित करते हैं। उन्होंने और भी किसी विषय पर चर्चा नहीं की। लेकिन बाद में उन युवकों ने बताया कि वे रोजगार चाहते थे। वे चारों युवक उच्च और तकनीकी शिक्षा प्राप्त थे, पर उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी। उम्र निकली जा रही थी, पर उन्हें नौकरी के अवसर नहीं मिल रहे थे। बेरोजगारी क्या होती है, इसे केवल वही जानता है, जो इसे झेलता है। इसे संसद के वे सदस्य और मंत्रीगण कैसे जान सकते हैं, जिन्हें आकर्षक वेतन-भत्तों के अलावा रेल, बस, हवाई जहाज, आवास, चिकित्सा, टेलीफोन आदि की हर सुविधा मुफ्त में प्राप्त होती है और पूर्व होने पर शानदार पेंशन मिलती है।
भगत सिंह का विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं था, बल्कि संपूर्ण शासन-व्यवस्था के खिलाफ था। इन धुआं करने वाले युवकों का प्रतिरोध भी संपूर्ण शासन-व्यवस्था के खिलाफ था। इसीलिए उन्होंने अपना प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए संसद भवन को ही चुना, जहां नीतियां और कानून बनाकर देश की शासन-प्रणाली तय की जाती है। इसलिए देश की गरीब और बेरोजगार जनता इस संसद से यह क्यों नहीं पूछ सकती कि वह किस तरह की नीतियां और कानून बनाती है, किस तरह की शासन-व्यवस्था चलाती है कि गरीबी और बेरोजगारी कम होने के वजाए, दिन-दूनी और रात-चौगुनी बढ़ रही है? भाजपा-नेतृत्व कहता है कि उसकी सरकार में योग्य अर्थशास्त्री, योग्य शिक्षाशास्त्री और योग्य समाजशास्त्री हैं, जो शासन चलाते हैं, तो किस आधार पर देश में अशिक्षा बढ़ रही है? क्यों गरीबी और बेरोजगारी पैदा हो रही है? और क्यों समाज में गैर-बराबरी कायम है? इसका यही कारण हो सकता है कि इन शिक्षाशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों को अशिक्षा बढ़ाने, गरीबी और बेरोजगारी पैदा करने तथा समाज में गैर-बराबरी कायम रखने की कला में निपुण होना ही उनकी योग्यता है।
सरकार इन युवकों को आतंकवादी कह रही है, और उनके कृत्य को संसद पर हमला मान रही है। यह माना कि इन युवकों ने अपने प्रतिरोध को उसी 13 दिसंबर को अंजाम दिया, जिस दिन 2001 में संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था, पर यह आतंकवादी घटना नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उनके पास न बंदूकें थीं, न कोई अन्य घातक हथियार था और न कोई बम था। यह अगर संसद पर हमला होता, तो वे सिर्फ़ धुआं नहीं करते, फिर तो वे अंधाधुंध गोलियां चलाते और लोगों को मारते। लेकिन उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था। लेकिन संसद में अपनी बात कहने या प्रतिरोध करने का उनका यह तरीका, संभव है, उनका अंतिम विकल्प रहा हो, क्योंकि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, या प्रतिरोध के लोकतांत्रिक तरीके कुचल दिए जाते हैं, तो हताश, निराश और संत्रस्त युवक ऐसा ही रास्ता चुनते हैं, जो लोकतांत्रिक नहीं होता। लेकिन, संसद के ‘माननीय’ सदस्य उन धरनों और विरोध-प्रदर्शनों से अनभिज्ञ नहीं होंगे, जो इस दशक में शिक्षा की बदहाली, अनियमित सत्रों, लिखित परीक्षा देने के बाद भी सालों तक परिणाम ना आने, रिक्तियों को न भरने और बेरोजगारी के मुद्दे पर छात्रों और बेरोजगार जनता ने किए थे। ये आंदोलन बड़ी संख्या में हुए थे, और देश के लगभग हर राज्य में हुए थे। संघर्ष करने वाली समितियों ने देश के सत्ताधारियों को ज्ञापन भेजे थे। पर किसी भी विरोध-प्रदर्शन और ज्ञापन का सत्ता पर कोई असर नहीं हुआ। और परिणाम सामने है, न शिक्षा की बदहाली दूर हुई, न सत्र नियमित हुए, न नई भर्तियां हुईं, न बेरोजगारी दूर हुई। ऐसा नहीं है कि संसद में उनकी आवाज नहीं गूंजी, विपक्ष के सांसदों ने इन मुद्दों को उठाया भी, पर सत्ता क्यों कार्यवाही करती? सत्ताधारी जन-प्रतिनिधि संसद में मुंह में दही जमाए बैठे रहे, मुफ्त मिल रहीं सुविधाओं का उपभोग करते रहे, प्रधानमंत्री मोदी के आगे नतमस्तक होते रहे, उनकी जनविरोधी शासन-प्रणाली पर गदगद होते रहे। ऐसी स्थिति में सांसदों के बहरे कानों को सुनाने के लिए एक मात्र यही रास्ता बचता था, जो इन नौजवानों ने 13 दिसंबर को अपनाया।
दिल्ली के सेशन जज ने भगत सिंह को असेंबली बम-कांड में उम्रक़ैद की सज़ा दी थी। लाहौर हाईकोर्ट में उसके विरुद्ध की गई अपील में भगत सिंह ने जो कहा था, वह 13 दिसंबर, 2023 के धुआं-कांड के मामले में भी प्रासंगिक है। भगत सिंह ने कहा था, “विचारणीय बात यह है कि असेम्बली में हमने जो बम फेंके थे, उससे किसी भी व्यक्ति की हानि नहीं हुई थी। इस दृष्टिकोण से हमें जो कठोरतम सज़ा दी गई, वह बदले की भावना वाली है। जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी भी व्यक्ति के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नज़रों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति साधारण हत्यारे नज़र आएंगे। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाएगी, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? इस दिशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाए कि जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर, और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शान्ति स्थापित हो सकती है।”