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भारत में 85% मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं मिलता

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 मुनेश त्यागी 

     भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारे देश के शहीदों ने जिनमें चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह आदि शामिल थे, उन्होंने देश की जनता के सामने एक प्रोग्राम रखा था जिसमें उन्होंने मांग की थी कि हमारे देश के मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलना चाहिए, सबको रोटी कपड़ा मकान शिक्षा स्वास्थ्य मिलना चाहिए, यूनियन बनाने का अधिकार मिलना चाहिए, मजदूरों को अपनी बात कहने की आजादी होनी चाहिए।

    शहीदों के इन महान विचारों को आगे बढ़ाते हुए, हिंदुस्तानी समाजवादी गणतंत्र संघ ने और उसके सदस्यों ने अपनी सारी जिंदगी इन्हीं मांगों के लिए आंदोलन किया और इनमें से बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों को काले पानी की सजा दी गई, मगर इन्होंने अपनी मांगे नहीं छोड़ीं। इसके बाद हमारा देश आजाद हुआ और भारत के संविधान में इन मांगों को प्रमुख स्थान दिया गया जिनमें कहा गया कि भारत में मजदूरों को न्यूनतम वेतन दिया जाएगा, समता समानता का अधिकार दिया जाएगा, किसानों की फसलों का वाजिब दाम मिलेगा, पूंजीपतियों को धन संकेंद्रण की इजाजत नहीं दी जाएगी।

     इसी भावना और इन्हीं सिद्धांतों के तहत हमारे देश में अनेक मजदूर कानून बनाए गए जैसे न्यूनतम वेतन अधिनियम, पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, क्षतिपूर्ति अधिनियम, ईएसआई अधिनियम, प्रोविडेंट फंड अधिनियम, स्थाई नौकरी का अधिकार। इस तरह लगभग 48 श्रम कानून मजदूरों के हकों और अधिकारों की रक्षा करने के लिए बनाए गए।

   पंडित नेहरू के शासनकाल में इन कानूनों और नियमों का पालन किया गया। बहुत सारे मजदूरों को ये कानून मोहिया कराए गए। मगर उसके बाद धीरे-धीरे इन कानूनों को लागू करना कम हो गया और पूंजीपतियों ने अपना मनमारा व्यवहार शुरू कर दिया, जिस कारण देश में बहुत सारी यूनियनें बनीं, बहुत सारी मजदूर फेडरेशन्स बनीं और मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए इन श्रम कानूनों को लागू करवाने की जंग छेड़ दी।

    बहुत सारे आंदोलन किए गए। इसी आंदोलन के तहत हम भी मजदूरों के न्यूनतम मजदूरों के कानून लागू करवाने और मजदूरों के लिए बने, न्यूनतम वेतन अधिनियम लागू करने की मुहिम में शामिल हो गए और कई बार जेल गए, क्योंकि मेरठ के मजदूर विरोधी मालिकान श्रम कानूनों को लागू नहीं करना चाहते थे और हमने श्रम कानून लागू करने की मुहिम छेड़ दी थी। इसी से चिढ़कर मेरठ के मालिकान ने एक साजिश के तहत, पहले तो प्रशासन ने हमें “जिला बदर” करने का फरमान जारी किया गया और बात बाद में दीवान रबर के मालिकान ने एक साजिश के तहत झूठे केस में फंसा कर, हमें जेल भिजवा दिया, जिसमें हमें 60 दिन जेल में रहना पड़ा और हमारे ऊपर एक साजिश के रूप में 17 धाराएं लगा दी गई, जिसकी जमानत इलाहाबाद हाईकोर्ट से हुई थी। उस समय भी मजदूरों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि कारखानेदार, उद्योगपति और पूंजीपति वर्ग, श्रम कानूनों को लागू नहीं कर रहे थे, मजदूरों का न्यूनतम वेतन नहीं दे रहे थे, बोनस का पेमेंट नहीं करते थे, ईएसआई एक्ट को लागू नहीं करते थे, भविष्य निधि के प्रावधानों को लागू नहीं करते थे जिस कारण मजदूरों को अपनी सुरक्षा कवच,,, हड़ताल के अधिकार,,, का इस्तेमाल करने पर मजबूर होना पड़ता था। 80 के दशक में भी हकीकत यह थी कि लुटेरे मालिकान श्रम कानूनों को लागू करने को तैयार नहीं थे।

     1991 में नई आर्थिक नीतियों और उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद जैसे इन श्रम कानूनों को लागू करने के चलन को तिलांजलि ही दे दी गई हो। इसके बाद अधिकांश पूंजीपति वर्ग, कारखानेदारों ने और उद्योगपतियों ने श्रम कानूनों का पालन नहीं किया, उनको लागू नहीं किया। धीरे-धीरे आर्थिक संकट बढ़ता चला गया और लाखों कारखाने बंद हो गये। जिस कारण करोड़ों मजदूरों की नौकरियां चली गई करोड़ों मजदूरों की जिंदगी पर संकट आ गया, जिसमें मालिकान ने मजदूरों को उनके देयों का कानूनी भुगतान नहीं किया।

     मजदूरों को छटनी मुआवजा और कारखाना बंदी मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया और और इस प्रकार मजदूरों के अरबों खरबों रुपए मालिकान डकार गए और और बहुत बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इनमें से अधिकांश श्रम कानून तोड़ने वाले मालिकान के खिलाफ आज तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई। मजदूरों की कारखाना बंदी का मुआवजा उन्हें नहीं दिलवाया गया, उनकी ग्रेच्युटी उन्हें नहीं दिलवाई गई, उनका बोनस उन्हें नहीं दिलवाया गया।

    1914 में मोदी सरकार आने के बाद यह उम्मीद की गई थी कि मोदी सरकार श्रम कानूनों का पालन करा कर, मजदूरों के हितों की रक्षा करेगी, उन्हें न्यूनतम वेतन का भुगतान कराएगी और श्रम कानूनों को लागू करवाएगी, मगर आज तो हालत और भी गंभीर हो गई है। आज बहुत सारे कारखानों में श्रम कानूनों को लागू नहीं किया जाता है, मजदूरों का न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता है, कारखाना बंदी का मुआवजा नहीं दिया जाता है, नौकरी से निकालने पर छंटनी मुआवजा नहीं दिया जाता है। मालिका द्वारा 90 परसेंट मजदूरों को नियुक्ति पत्र और वेतन पर्चियां नहीं दी जातीं। हालात यहां तक खराब है कि बहुत सारे कारखानों, बडी बडी दुकानों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में मजदूरों से 12, 12 घंटे काम कराया जाता है मगर उन्हें मासिक तनख्वाह सिर्फ 8 000 या ₹9000 ही दी जाती है। इस प्रकार उनका डबल ओवरटाइम तो क्या, उन्हें उनका न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जा रहा है।

    आज हालत यह है कि मोदी 15 अगस्त को जहां आजादी के 75 में अमृत महोत्सव की घोषणा कर रहे थे, बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे, वही हमारी बातों को, हमारी मांगों को सच साबित करते हुए, हिंदुस्तान अख़बार में खबर आई की भारत के 85% मजदूरों को न्यूनतम वेतन का भुगतान मालिकान द्वारा नहीं किया जाता है। इस खबर को पढ़कर बेहद अफसोस हुआ और बहुत बुरा लगा। बहुत सारे मजदूरों और मजदूर नेताओं, जजों और वकीलों के होश उड़ गए और हमें लगा कि 75 साल की आजादी के बाद भी मजदूरों को आजादी नहीं मिली है।

     एक और बहुत गज़ब की हकीकत का उल्लेख करना यहां बहुत जरूरी है। वह यह है कि इस देश के हजारों श्रम न्यायालयों और औद्योगिक ट्रिब्युनल्स में जो लाखों मजदूरों के केस चल रहे हैं। उनमें अधिकांश में मालिकान द्वारा मजदूरों के साथ जुल्म ज्यादती की गई हैं, उन्हें गैरकानूनी रूप से नौकरी से हटाया गया है, न्यूनतम वेतन का भुगतान नहीं किया गया है, ग्रेच्युटी का भुगतान नहीं किया गया है, कार्य के दौरान हुई दुर्घटना के फल स्वरुप हुई मौत का क्षतिपूर्ति का मुआवजा नहीं दिया गया है, ईएसआई और प्रोविडेंट फंड का पैसा मजदूरों के वेतन से काट कर, संबंधित कार्यालयों में जमा नहीं किया गया है। इन लाखों मामलों में भी मालिकान और पूंजीपतियों ने श्रम कानूनों का पालन नहीं किया है और उनका सरेआम उल्लंघन किया है।

    अगर कारखानों पर नजर दौड़ाई जाए तो हालत बहुत गंभीर हैं। 70 साल पहले और उसके बाद बनाए गए तमाम श्रम कानूनों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है और पूंजीपतियों ने अधिकांश श्रम कानूनों को लागू करना बंद कर दिया है। अधिकांश मजदूर गुलामों के स्तर तक पहुंच गए हैं। अब मजदूरों की सुनने वाला कोई नहीं है। सारे का सारा श्रम विभाग लगभग आंख बंद किए हुए बैठा है। उसने अपने अधिकारों अपने कर्तव्यों को तिलांजलि दे दी है और अब उनके यहां मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं है। वे अंधे तमाशबीन बन गए हैं। मजदूर समर्थक कानूनों को सरकार ने लगभग खत्म कर दिया है और उनके स्थान पर मालिकान के इशारे पर और उनके मुनाफों को बढ़ाने के ध्यान में रखकर जो चार श्रम संहिताएं लायी गई हैं, वे मजदूरों के गले के आधुनिकतम फंदे हैं जो मजदूरों को आधुनिक गुलाम बनाने के अलावा कुछ भी नहीं है।

     भारत की आजादी के पचहत्तर साल बाद भी मजदूरों को मालिकन के शोषण और अन्याय से मुक्ति नहीं मिली है। सरकार की इस निर्मम और क्रूर बेरुखी का नतीजा है कि आज भी मजदूरों को 85 परसेंट मजदूरों को उनका न्यूनतम वेतन नहीं मिल रहा है 90% मजदूरों को नियुक्ति पत्र और वेतन पर्चीयां नहीं मिलती हैं और बेहद परेशान करने वाली बात यह है कि सरकार का मजदूरों को न्यूनतम वेतन दिलाने का कोई इरादा नहीं है और यह मुद्दा उनके एजेंडे में ही नहीं है।

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