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गरीब गुरवे किस तरीके से अपनी रक्षा कर पाएंगे

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-सनत जैन

अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता अधिकार दिवस भारत में भी बड़े जोर शोर के साथ मनाया गया।उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों।उन्हें समय पर न्याय मिले। उपभोक्ता अधिकारों को लेकर कानून भारत में भी प्रचलित है। इस कानून के तहत 90 दिन के अंदर फोरम के लिए शिकायत का निराकरण करना आवश्यक होता है। जिला उपभोक्ता फोरम, स्टेट फोरम और राष्ट्रीय फोरम पर उपभोक्ताओं के मामले सुने जाते हैं। विभिन्न स्तर पर उपभोक्ताओं और कंपनी और तथा सेवा देने वालों के विवाद का निराकरण होता है। कानून में प्रावधान होने के बाद भी जिला उपभोक्ता अदालतों में कई वर्षों तक मामले लटके रहते हैं। राज्य सरकारों द्वारा जिला उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति समय पर नहीं की जाती है। जिसके कारण जिला उपभोक्ता अदालतों में हजारों की संख्या में शिकायतें, कई महीने और वर्षों तक पेंडिंग बनी रहती हैं। उनकी वर्षों सुनवाई ही नहीं हो पाती है। उपभोक्ता फोरम के चक्कर लगाते रहते हैं। उनकी शिकायतों का कोई निराकरण नहीं हो पाता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में 30528 शिकायतें जिला उपभोक्ता फोरम में लंबित है। चूंकि समय पर न्याय नहीं मिलता है। छोटे-मोटे मामलों में लोग शिकायत ही नहीं कर रहे हैं। राज्य उपभोक्ता फोरम में लगभग 10001 मामले भोपाल, इंदौर और जबलपुर बेंच में लंबित है। इसमें कई मामले 10 साल से अधिक से आयोग में लंबित हैं। राज्य उपभोक्ता फोरम में मुश्किल से दो या तीन मामलों की ही सुनवाई हो पाती है। बाकी के प्रकरणो मैं तारीख देकर आगे बढ़ा दिया जाता है।लगभग सभी प्रदेशों में उपभोक्ता फोरम की यही हाल है। जिला उपभोक्ता फोरम में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकारें सजग नहीं होती है।महीनों और वर्षों तक फोरम के पद खाली पड़े रहते हैं। उपभोक्ता फोरम में 90 दिन के अंदर शिकायतों पर फैसला करना होता है। फोरम मे 90 दिन में सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाती है। इस तरह के कानून से उपभोक्ताओं को लाभ नहीं मिल रहा है। उल्टे फोरम के चक्कर लगाते-लगाते उपभोक्ता न्याय पाने की आशा ही छोड़ देता है। भारत में कानून बनाने में सरकार, चाहे वह केंद्र की हो, या राज्य की सरकार हो। सरकारें कानून बड़ी तेजी के साथ बनाती है।उसके नियम निश्चित रूप से नागरिकों के हितों मे बने होते हैं। भारत की न्याय व्यवस्था और कानून के बारे में बात करें, न्यायालयों से कई वर्षों तक नागरिकों को न्याय नहीं मिल पाता है। जिसके कारण अब लोग तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख से परेशान होकर, न्याय व्यवस्था से परेशान हैं। यौन उत्पीड़न रोकने के लिए सरकार ने काफी कड़े कानून बनाए। कानून बन जाने के बाद ऐसा लग रहा था, कि अब यौन उत्पीड़न के अपराध कम होंगे। जब से कड़े कानून बनाए गए हैं।उसके बाद अपराधों की संख्या घटने के स्थान पर निरंतर बढ़ती जा रही है। कड़े कानून बन जाने के बाद, अब अपराधी यौन अपराध के साथ-साथ अपराध छुपाने के लिए हत्या जैसे अपराध भी करने लगे हैं।खाद्य पदार्थों की मिलावट को रोकने के लिए सरकार ने नियम और कानून बनाए हैं। खाद्य पदार्थों की मिलावट तो कम नहीं हुई। मिलावट की जांच के नाम पर सरकारी तंत्र ने अपनी वसूली जरूर तेज कर दी। महीनों और सालों तक मिलावट के शक में जो सैंपल एकत्रित किए जाते हैं। उनकी जांच ही नहीं हो पाती है। मामले न्यायालयों में पेश किए जाते हैं। जहां पर बड़ी-बड़ी कंपनियां जुर्माना देकर बच जाती हैं। गरीब गुरबों को जरूर जेल जाना पड़ता है। खाद्य पदार्थों का असंगठित क्षेत्र का रोजगार पूरी तरह से खत्म हो रहा है। वहीं कॉर्पोरेट का व्यवसाय लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हाल ही में अमूल दूध और मदर डेयरी के दूध के सैंपल की जांच हुई। दोनों कंपनियों के दूध में मिलावट पाई गई। गाजियाबाद के एसडीएम ने जुर्माना करके उन्हें आरोप से मुक्त कर दिया। दिल्ली की एक कोर्ट में मदर डेयरी के दूध में मिलावट होने के आरोप में जुर्माना करके छोड़ दिया। खाद्य पदार्थों में मिलावट और उपभोक्ताओं के साथ फर्जी विज्ञापन बड़े-बड़े फर्जी दावे करके लोगों को चूना लगाया जाता है।कानून बने हुए हैं। निश्चित समय सीमा पर फैसला करने का प्रावधान होता है।इसके बाद भी नागरिकों को, चाहे वह उपभोक्ता के रूप में हो, अथवा न्याय पाने की आशा से न्यायालय तक खुद चलकर पहुंचा हो।उसे समय पर न्याय नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में सरकार और सामाजिक संगठनों को गंभीरता से विचार करना होगा। कानून बनाने से अपराधों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। यदि समाज में नैतिकता नहीं होगी, तो कोई भी कानून बना लें, कानून का पालन नहीं हो पाएगा। कानून का पालन तो व्यक्ति को करना होता है। सरकार कानून बनाती है। उन कानूनो के हिसाब से यदि समय पर दंडित किया जाता है। लोग कानून का पालन स्वयं करते हैं। लोग भय के कारण भी कानून का पालन करते हैं। यदि व्यक्ति नैतिक है, तो वह स्वयं नियमों और कानून का पालन करने के प्रति सजग होता है। आज न्यायालयों मे कई वर्षों तक न्याय नहीं मिलता है। भारत में न्याय महंगा होता जा रहा है। नागरिकों की न्यायालय में जाकर न्याय पाने की इच्छा कम होती जा रही है।पिछले तीन दशकों में भारत सरकार ने विभिन्न किस्म के नियामक आयोग बनाकर उन्हें न्यायिक शक्तियां दी है। नियामक आयोग भी उपभोक्ता के शोषण करने का कारण बन रहे हैं। नियामक आयोग सरकार और बड़ी-बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के हितेषी बनकर सामने आ रहे हैं। समय पर लोगों को न्याय मिले, सरकार को इस दिशा मैं विशेष ध्यान देने की जरूरत है।केवल कानून बना देने से अपराधों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।समर्थ लोग तो अपने पैसे और ताकत के बल पर न्याय प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन असमर्थ और गरीब गुरवे जिनके पास पैसा ही नहीं है, वह किस तरीके से अपनी रक्षा कर पाएंगे।

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