पुष्पा गुप्ता
हजारों वर्ष पहले, जब वेदों का बोलबाला था, भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव नहीं बरता जाता था। फलवरूप समाज के सभी कार्यकलापों में दोनों की समान भागीदारी होती थी।
पुराणों के अनुसार जनक की राजसभा में महापंडित याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी नामक विदुषी के बीच अध्यात्म-विषय पर कई दिनों तक चले शास्त्रार्थ का उल्लेख है। याज्ञवल्क्य द्वारा उठाए गए दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने में विदुषी मैत्रेयी समर्थ हुईं।
लेकिन जीवन के कुछ बारीक मसलों को लेकर मैत्रेयी द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ होकर याज्ञवल्क्य डगमगाए। अंत में उन्हें हार माननी पड़ी।
स्पष्ट है कि नारियों की महिमा उस युग में उन्नत दशा में थी। एक पुरुष की पहुंच के बाहर की बारीक संवेदनाओं का अनुभव एक स्त्री कर सकती है।
पुरुष अपनी बुद्धि से संचालित है जबकि नारी अपनी आंतरिक संवेदनाओं से संचालित होती है।
बुद्धि बाहर से संचित की जाती है। बुद्धि जिस स्तर पर प्राप्त होती है, वह उसी स्तर पर काम करती है।
लेकिन आंतरिक संवेदना बाहरी मैल से अछूती रहने के कारण पवित्र है, यही नहीं, बुद्धि की तुलना में श्रेष्ठ भी है। इसलिए नारी संवेदना के स्तर पर पुरुष की अपेक्षा उन्नत होती है।
फिर नारी जिस सम्मान की अधिकारिणी है, उसे वह आदर-सम्मान देने से समाज क्यों मुकरता है?
प्रत्येक जमाने में पुरुष शरीर के गठन की दृष्टि से नारी की तुलना में अधिक बलवान रहा है। किसी देश में बाहरी शक्तियों का आक्रमण होने पर विदेशी सेना वहां की नारियों को ही अपना पहला लक्ष्य बनाती है।
ऐसे मौकों पर शारीरिक दृष्टि से अबला नारियों की रक्षा करने का दायित्व पुरुषों पर होता था। इससे फायदा उठाकर नारी को घर की चारदीवारी के अंदर बंद रखने की प्रथा तभी से शुरू हुई।
पुरुष को प्रमुखता देते हुए समाज के नियम बनाए गए। अधिकार का स्वाद चखने के बाद पुरुष-वर्ग नारी को बंद रखने की इस प्रथा को बदलने के लिए राजी नहीं हुआ। पुरुष-प्रधान समाज ने ऐसे विधि-विधान बनाए जिनके तहत नारी को उसके जन्म से पहले ही उसके न्यायोचित अधिकारों से वंचित रखा गया।
भारत में ही नहीं, विश्व के प्राय: सभी देशों में पुरुषों को प्राथमिकता देने के जो कुचक्र रचे गए नारी इनकी शिकार बनी। कुछ एशियाई देशों में ऐसे कानून बनाए गए थे जिनके मुताबिक पुरुष का वध किये जाने पर अपराधी को मृत्युदंड देने का विधान था, लेकिन नारी की हत्या करने पर वह गुनाह नहीं माना जाता था।
*स्त्री के खिलाफ पुरुषों ने नियम क्यों बनाए?*
इसलिए नहीं कि उसने स्त्री को अपनी तुलना में निम्न स्तर का समझ रखा था, बल्कि स्त्री उसकी तुलना में श्रेष्ठ है इस सत्य को समझने से उत्पन्न डर के कारण ही उसने ऐसे नियमों का निर्माण किया।
किसी बुद्धिमान पुरुष को और कोई नौकरी नहीं मिली, एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम ही मिला। एक दिन उसने कक्षा में बालक-बालिकाओं से पूछा, ‘पता है, पृथ्वी का वजन कितना है?’ गृह-कार्य के रूप में यह प्रश्न पूछा गया था।
बच्चों ने माता-पिता से पूछ कर उन्हें तंग किया।
कुछ अभिभावकों को उत्तर मालूम नहीं था। शेष माता-पिता ने अपने-अपने अंदाज से मोटामोटी कोई संख्या बताई।
अगले दिन कक्षा में छात्रों ने प्रश्न के अलग-अलग उत्तर दिए‘ सारे ही उत्तर गलत हैं’ कहते हुए उस बुद्धिमान शिक्षक ने ब्लैक बोर्ड पर कई अंकों वाली एक संख्या लिखकर बताया, ‘यही सही जवाब है।’
‘सर, मेरा एक डाउट है…’ एक बच्ची उठ खड़ी हुई। ‘आपने जो संख्या बताई है, वह गणना पृथ्वी पर रहने वाले लोगों को मिलाकर है या उन्हें छोडक़र?’
बुद्धिमान शिक्षक निरुत्तर था, उसने सिर झुका लिया।
स्त्री को समझने में नाकाम रहा है पुरुष
चाहे कितना बड़ा अक्लमंद हो, ऐसी कुछ बातें पृथ्वी पर मौजूद हैं जिन्हें समझना संभव नहीं है, ऐसी बातों में प्रमुख है, नारी।
विश्व के कई विषयों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके समझने में पुरुष समर्थ था। लेकिन उसके लिए पास में ही रहने वाली नारी की बारीक संवेदनाओं को समझना संभव नहीं हुआ। जो चीज अबूझ होती है, उसके प्रति डर पैदा होना स्वाभाविक है। इसी भय के कारण पुरुष ने नारी को अपनी नजर ऊंची करने का भी अधिकार नहीं दिया, उसे दूसरे दर्जे का बनाए रखा।
इसमें पुरुष का शारीरिक बल काम आया। फिर अपने बुद्धि-बल से उसने ऐसा कुचक्र रचा जिसके प्रभाव में पडक़र नारी को सदा पुरुष की छत्रछाया में रहना पड़ा।
नारियों ने साहस के साथ उठकर इस स्थिति को रोकने का कोई प्रयत्न किया? नहीं!
सक्रिय जीवन जीना बंद करके, पुरुष के साये में सुविधाजनक जीवन जीने के लिए वे भी तैयार हो गईं।
किंतु यही सत्य है कि स्त्री के सामने पुरुष या पुरुष के सामने स्त्री निम्न नहीं है। स्त्री और पुरुष को अलग करके देखने की कोई जरूरत नहीं है। दोनों के बिना परिवार, समाज, दुनिया कुछ भी पूर्ण नहीं होगा।