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ग्रेट निकोबार द्वीप की प्राचीन जनजातियों के अस्तित्व पर ही संकट?

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स्वदेश कुमार सिन्हा|

आज दुनिया भर में सरकारें कॉरपोरेट मुनाफ़े‌ की होड़ में सदियों पुराने जंगलों को नष्ट कर रही हैं, जिसके फलस्वरूप वहाँ रह रही प्राचीन जनजातियों के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है, इसके साथ ही पर्यावरण के विनाश के कारण ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, जिससे अनियमित वर्षा, सूखा और बाढ़ आदि से आज समूची मानवजाति संकट में पड़ गई है। भारत में ओडिशा, बस्तर और झारखण्ड आदि में कीमती खनिज और कोयला निकालने के लिए सदियों पुराने वनों को नष्ट किया जा रहा है तथा वहाँ रहने वाली जनजातियों का विस्थापन हो रहा है।

ओडिशा के हंसदेव जंगलों को बचाने के लिए क़रीब दस वर्षों से वहाँ की जनजातियाँ आंदोलनरत हैं। यहाँ ज़मीन में भारी मात्रा में कोयला है, जिसका दोहन करने के लिए अडानी की कम्पनी इस समूचे वन-क्षेत्र को ही नष्ट करने पर उतारू है। इसी तरह का एक तात्कालिक मामला ग्रेट निकोबार द्वीप का है। ग्रेट निकोबार अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का हिस्सा है, जो बंगाल की खाड़ी के पूर्वी किनारे पर स्थित है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार भारत के ग्रेट निकोबार द्वीप को एक विशाल सैन्य और व्यापार केंद्र में बदलने के लिए 9 अरब डालर (€ 8.38 बिलियन) का निवेश करने की योजना बना रही है, लेकिन इस योजना ने पर्यावरणविदों, मानव वैज्ञानियों, वैज्ञानिकों, आदिमजाति अधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक संगठनों के बीच चिंताएँ बढ़ा दी हैं, जिनका मानना है कि यह मेगाप्रोजेक्ट सुदूर क्षेत्र की अनूठी पारिस्थितिकी को बर्बाद कर देगा। पारिस्थितिक चिंताओं से परे कई लोग इस प्रोजेक्ट का आदिम समुदायों पर प्रभाव से चिंतित हैं- विशेष रूप से शोम्पेन लोग पर( एक शिकारी समुदाय), जो हजारों वर्षों से ग्रेट निकोबार में बहुत कम बाहरी संपर्क के साथ रह रहे हैं।

भारतीय अधिकारियों का कहना है कि “ग्रेट निकोबार को विकसित करने की योजना हिंद महासागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता से प्रेरित है।” यह देखते हुए कि द्वीप की रणनीतिक स्थिति इसे सुरक्षा और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण बनाती है। यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि से लगभग 1,800 किलोमीटर (1,120 मील) पूर्व में, इंडोनेशिया के सुमात्रा के क़रीब और म्यांमार, थाईलैंड और मलेशिया से कुछ सैकड़ा किलोमीटर दूर स्थित है। वर्तमान में इसमें लगभग 8,000 निवासी हैं। भारत सरकार द्वारा अनुमोदित योजनाओं में एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर टर्मिनल के निर्माण की परिकल्पना की गई है;-

●       सैन्य और नागरिक उद्देश्यों के लिए दोहरे उपयोग वाला हवाई अड्डा;

●       एक गैस, डीजल और सौर-आधारित बिजली संयंत्र;

इन विकासों से द्वीप की जनसंख्या भी हज़ार से कई हज़ार में पहुँच जाएगी। अधिकारियों का कहना है कि “द्वीप की गैलाथिया खाड़ी पर स्थित होने वाला बंदरगाह दुनिया के सबसे व्यस्त शिपिंग लेन में से एक मलक्का जलडमरूमध्य के करीब होने के कारण खूब फलेगा-फूलेगा।”

योजनाएँ तेज गति से आगे बढ़ रही हैं, सरकार पिछले तीन वर्षों में विभिन्न अनुमोदन, मंजूरी और छूट हासिल करने में कामयाब रही है, जिससे कुछ लोगों ने ग्रेट निकोबार में भारत के अपने ‘हांगकांग’ के निर्माण के रूप में इस परियोजना की प्रशंसा की है। भारत के बंदरगाह जहाजरानी और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने संवाददाताओं से कहा कि द्वीप के विकास को आगे बढ़ाने के बारे में सरकार के पास कोई दूसरा विचार नहीं है।

सोनोवाल ने कहा, “यह सच है कि विभिन्न समूहों ने पर्यावरण संबंधी चिंताएँ व्यक्त की हैं, लेकिन उन्हें स्पष्ट रूप से संबोधित किया गया है।” हालाँकि आलोचकों का कहना है कि इस पहल से ग्रेट निकोबार के प्राचीन वर्षावनों को अपूर्णनीय क्षति होगी। भारत सरकार के अनुसार:- इस द्वीप में “दुनिया के सबसे अच्छे संरक्षित उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में से एक वन” है, लेकिन इसे रक्षा और व्यापार केंद्र में बदलने की योजना का मतलब लगभग 852,000 पेड़ों को काटना होगा।

पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि गैलाथिया खाड़ी का बड़ा बंदरगाह लेदर बैक समुद्री कछुओं के लिए अंडे देने के संवेदनशील क्षेत्र को नष्ट कर देगा। कछुओं के अंडे देने के स्थानों के अलावा प्रस्तावित ड्रेजिंग से डॉल्फ़िन और अन्य प्रजातियों को नुकसान होगा और खारे पानी के मगरमच्छ, निकोबार केकड़े खाने वाले मकाक और प्रवासी पक्षियों को भी द्वीप के विकास का ख़ामियाजा भुगतना पड़ेगा।

भारत के प्रबंधन उपकरण ‘एन्विरोंमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट (ईआईए)’ ने चेतावनी दी है कि बंदरगाह के निर्माण के दौरान ड्रेजिंग द्वारा खाड़ी के तट के किनारे मूंगा चट्टान को नष्ट किया जा सकता है। ईआईए ने एक मसौदा रिपोर्ट में कहा कि टाउनशिप, हवाई अड्डे और थर्मल पावर प्लांट सभी घने वन क्षेत्र वाले क्षेत्रों में बनाए जाएँगे, जो जैव विविधता को महत्वपूर्ण हद तक प्रभावित करेंगे। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि “घटते प्राकृतिक संसाधनों के साथ बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकीय बदलाव से आदिम  समुदाय खतरे में पड़ जाएँगे और संभवतः समाप्त हो जाएँगे।”

लंदन स्थित सर्वाइवल इंटरनेशनल; एक मानवाधिकार संगठन, जो स्वदेशी और आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए अभियान चलाता है, ने लगभग 300 लोगों की संख्या वाली एक स्थानीय जनजाति शोम्पेन के लिए होने वाले जोखिम की ओर इशारा किया है। समूह ने कहा कि शोम्पेन्स का पूरी तरह से विलुप्त होने का ख़तरा है।

सर्वाइवल इंटरनेशनल के निदेशक कैरोलिन पीयर्स ने डीडब्ल्यू को बताया, “यह कल्पना करना असंभव है कि शोम्पेन अपने द्वीप के इस विनाशकारी परिवर्तन से बच पाएँगे, अगर भारत के अधिकारी द्वीप को ‘भारत के हांगकांग’ में बदलने की अपनी महत्वाकांक्षा में सफल हो जाते हैं। भविष्य के निवासियों को पता होना चाहिए कि यह शोम्पेन की कब्रों पर बनाया गया था, अनादि काल से जिनकी यह मातृभूमि रही है।” सर्वाइवल इंटरनेशनल का कहना है कि अन्य शिकारियों की तरह शोम्पेन को अपने जंगल का गहन ज्ञान है और वे द्वीप की वनस्पतियों का कई तरीकों से उपयोग करते हैं।

इस महीने की शुरुआत में दुनिया भर के दर्जनों विद्वानों ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक खुले पत्र में समान चिंता व्यक्त की, उनसे निर्माण रोकने का आग्रह किया और अपेक्षित जनसांख्यिकीय बदलाव से उत्पन्न जोखिमों की ओर इशारा किया। हस्ताक्षरकर्ताओं; जिनमें नरसंहार अध्ययन के विशेषज्ञ भी शामिल थे, ने चेतावनी दी कि अनुमानित 650,000 बसने वालों या जनसंख्या में 8,000% की वृद्धि का मतलब शोम्पेन का अंत होगा।

यूके यूनिवर्सिटी के फेलो मार्क लेवेने ने कहा, “लोग इस (नये) ढांचे के भीतर अपनी शर्तों पर जीवित नहीं रह पाएँगे और वहाँ रहने वाले लोग न केवल शारीरिक रूप से पीड़ित होंगे, बल्कि वे मानसिक रूप से भी नष्ट हो जाएँगे। यह उन्हें मार डालेगा।” केवल स्थानीय जनजातियाँ ही खतरे में नहीं हैं। जनसंख्या के बड़े पैमाने पर प्रवासन का अर्थ यह भी होगा,कि लाखों लोगों को दुनिया के सबसे ख़तरनाक भूकंपीय क्षेत्रों में से एक में डाल दिया जाएगा। 2004 में ग्रेट निकोबार क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 9.3 तीव्रता का भूकंप आया था, जिससे रिकॉर्ड किए गए इतिहास की सबसे घातक सुनामी शुरू हो गई थी।

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