डॉ. विकास मानव
वैदिक साहित्य सिर्फ भारत की ही नही अपितु सम्पूर्ण विश्व की अमूल्य और मौलिक निधि है , इसमे ज्ञान विज्ञान का विषद भंडार है.
सिर्फ भारतीय ही नही अपितु विदेशी भी इसके ज्ञान के सम्मुख श्रद्धा से नत होते है. भारतीय आयुर्विज्ञान या आयुर्वेद वैदिक साहित्य का अभिन्न अंग है और आज का आधुनिक युग मे भी इसकी महत्ता कम नही हुई है.
भारतीय विद्याओं में आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा है। हमारे पूर्वजों ने इसे अतिपुरातन और शाश्वत कहा है। सुश्रुत के अनुसार, ब्रह्मा ने सृष्टि के पूर्व ही इसकी रचना की।
सभी संहिताकारों ने ब्रह्मा से आयुर्वेद का प्रादुर्भाव माना है। भारतीय वांग्मय के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों में आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति ने प्राप्त किया। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और उनसे इन्द्र ने उस ज्ञान को प्राप्त किया.
ब्रह्मणा हि यथाप्राक्तमायुर्वेदं प्रजापतिः।
जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्ततः।।
मनीषियों ने आयुर्वेद को उपवेद के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि कुछ विद्वान इसे ऋग्वेद का तथा अधिकाँश अथर्ववेद का अविच्छिन्न अंग मानते है। चरणव्यूह तथा प्रस्थानभेद में आयुर्वेद शब्द का प्रयोग हुआ है और वहाँ इसे ऋग्वेद का उपवेद माना गाया है, जबकि चरक, सुश्रुत, कश्यप आदि आयुर्वेदीय संहिताएँ आयुर्वेद का संबन्ध अथर्ववेद से मानती हैं। वैसे अधिकाँश विद्वानों के अनुसार, चिकित्साशास्त्र का उपजीव्य मुख्यतः अथर्ववेद ही है।
इसकी नौ शाखाएँ हैं- पैप्पलाद, तौढ़, मौद, शौनकीय, जलद, ब्राह्मपद, देवदर्श एवं चारणवैद्य।
गोपथ ब्राह्मण में इसे यद् भेषजं तद् अमृतं यद् अमृतं तद् ब्रह्म के रूप में निरूपित किया गया है।
अथर्ववेद भृग्वडिंगरस के रूप में भी प्रसिद्ध रहा है। अश्विनौ के समान अथर्वण और अंगिरस युग्म भी चिकित्सा की दो प्रचलित पद्धतियों की ओर संकेत करता है। अथर्वण मुख्यतः दैवव्यापाश्रय चिकित्सा करते थे और अंगिरस अंगों के रस से सम्बन्ध रखने के कारण युक्तिव्यापाश्रय से सम्बन्धित थे।
व्यवहार में वे क्रमशः सोम और अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते थे। वेदों में रुद्र, अग्नि, वरुण, इन्द्र, मरुत आदि देवता भिषक कहे गए हैं। परन्तु अश्विनीकुमारों को देवानां भिषजौ के रूप में निरूपित किया गया है।
वैदिक चिकित्सा विज्ञान में मनुष्य, पशु और वृक्ष :
आयुर्वेद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है “आयुष” और “वेद.”
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥
-चरक संहिता (1/40)
अर्थात जिस ग्रंथ में – हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था) – इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं).
साधारणतया आयुर्वेद के विषय मे हमने पढ़ा होगा कि इसके 8 मुख्य भाग है :
1)शल्य तन्त्र,
2) शालाक्य तन्त्र,
3) काय चिकित्सा तन्त्र,
4) भूत विद्या तन्त्र,
5) कौमारभृत्य तन्त्र,
6) अगद तन्त्र,
7) रसायन तन्त्र और
8- वाजीकरण तन्त्र
उपरोक्त के विषय मे कभी विस्तार से लिखूंगा , कुछ मुख्य वैदिक साहित्य के मानवों के संदर्भ में उल्लेख ऐसे है – ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं।
हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती।
ईसा से सैकड़ो वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा के अनुरूप ही है।
अब आयुर्वेद के कुछ अन्य विभाग के विषय में जान लेते है. जब हम अथर्ववेद का परिशीलन करते है तो हमे ये ज्ञात होता है कि आयुर्वेद में मनुष्य की चिकित्सा के अतिरिक्त पशु चिकित्सा एवम वृक्ष चिकित्सा के भी विभाग है :
1) – वृक्षायुर्वेद
वृक्षों एवम वनस्पतिओ की चिकित्सा.
सस्य वेद , वृहद पराशर संहिता आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
2)- पश्वायुर्वेद
पशुओ की चिकित्सा. इसके मुख्य विभाग हैं :
ऊष्ट्रायुर्वेद
मत्स्यायुर्वेद
मृगपक्षीशास्त्र
श्येनशास्त्र
गजायुर्वेद
अश्वायुर्वेद
गवायुर्वेद
शालिहोत्रः सुश्रुताय हयायुर्वेदमुक्तवान्। पालकाप्योउंगराजाय गजायुर्वेदमब्रवीत्॥
~अग्निपुराण (292.44)
- गजायुर्वेद
हाथी, जिसे संस्कृत में गज, नाग, अर्व, कुंजर, हस्ति, करि आदि भी कहा जाता है, प्राचीन काल में युद्ध के लिए महत्त्वपूर्ण जानवर माना जाता था और यह शत्रुओं के सामने सेना का बड़ा साहस माना जाता था।
आचार्य चाणक्य ने हाथी के पालन और उपयोग को लेकर जो सूचनाएँ दी हैं, वे मेगास्थनीज आदि के विवरण से पर्याप्त मेल खाती हैं।
बार्हस्पत्यसंहिता में कहा गया है-
पराशरसंहिता में चार प्रकार के हाथी बताए गए हैं : भद्रा, मन्दा, मृगा और मिश्रा।
बल, गति, सत्व, छाया आदि के आधार पर हाथियों की परीक्षा की जाती थी :
रिपुविजयः फलमेषां नागानां नागलक्षणोक्तानाम्।
संचरण साहस निरतस्य भवति नित्यं नरेन्द्रस्य।
सांग्रामिका द्विपा राजन सम्यग्लक्षण लक्षिताः।
मुनि पालकाप्य को प्रथमतः अंगनरेश के प्रति गजशास्त्र तैयार करने का श्रेय है। और उनके नाम से अनेक छोटे-बड़े हस्तिशास्त्र मिलते हैं।
पालकाप्य ने हाथी को प्रत्यक्ष देवता कहा है और नागजात्य स्वीकारा है :
प्रत्यक्षदेवता नागा देवजात्या यतस्ततः।
स्वामिनश्च भवन्त्येते तस्मात् प्रोक्तास्तु भूमिदाः॥
~वीरमित्रोदय, लक्षणप्रकाश, पेज : 321
पालकाप्य के काल तक हाथियों की विशेष चिकित्सा पर ध्यान दिया जाता था और गजवैद्य राज्याश्रय प्राप्त होते थे।
गजवैद्य भिषक्, विनीत, मेधावी, ग्रन्थों के अर्थों को जाननेवाले, राजा जैसा प्रियभाषी, महाभोग को ग्रहण करनेवाले, वाग्मी, प्रगल्भ, शान्तात्मा, बुद्धिमान, धार्मिक और पवित्रमन सहित सेना के इच्छुक, मधुर व कुलीन होते थे। (पेज 400). - अश्वायुर्वेद :
संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्रसंहिता है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि शालिहोत्र द्वारा अश्वचिकित्सा पर लिखत प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान को ‘शालिहोत्रशास्त्र’ नाम दिया गया।
शालिहोत्रसंहिता का वर्णन आज संसार की अश्वचिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्वचिकित्सक ‘शालिहोत्री’ कहा जाता है।
शालिहोत्रसंहिता में 48 प्रकार के घोड़े बताए गए हैं। इस पुस्तक में घोड़ों का वर्गीकरण बालों के आवर्तों के अनुसार किया गया है। इसमें लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होठ तथा छोटे कान और पूँछवाले घोड़ों को उत्तम माना गया है। मुँह की लंबाई 2 अंगुल, कान 6 अँगुल तथा पूँछ 2 हाथ लिखी गई है। घोड़े का प्रथम गुण ‘गति का होना’ बताया है।
उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तोंवाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है। शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम, त्रयण्ड (तीन वृषण वाला), त्रिकर्णिन (तीन कानवाला), द्विखुरिन (दोखुरवाला), हीनदंत (बिना दाँतवाला), हीनांड (बिना वृषणवाला), चक्रवर्तिन (कंधे पर एक या तीन अलकवाला), चक्रवाक (सफेद पैर और आँखोंवाला) दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं।
इस ग्रन्थ में घोड़े के शरीर में 12,000 शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु 32 वर्ष बताई गई है। - गवायुर्वेद :
पराशरः प्राह बृहद्रथाय गोलक्षणं यत् क्रियते ततोऽयम्। मया समासः शुभलक्षणास्ताः सर्वास्तथा- प्यागमतोऽभिधास्ये॥
~बृहत्संहिता (61.1)
पराशर ने गायों के लक्षणों को लिखा है और माना है कि कभी गायों की आँखों में आँसू नहीं हों, न ही कभी आँखें गंदली या रूखी हो। चूहे के समान आँखवाली, हिलते हुए सींगवाली, चपटे सींगवाली गाय, कृष्ण, लोहित वर्णवाली व गदहे के समान वर्णवाली गाय शुभ नहीं होती।
इसका अभिप्राय है कि गायें बहुत शुभ लक्षणोंवाली हों और इसके लिए गायों की प्रजातियों का पूरा ध्यान रखा जाए, क्योंकि संकरता शुभदायी नहीं होती.
साश्रुणी लोचने यासां रूक्षाल्पे च न ताः शुभाः। चलच्चिपिट श्रृंगाश्च करटाः खरसन्निभाः॥
मुनि का मत कि दस, सात या चार दाँतवाली, लम्बे मुंहवाली, बिना सींगवाली, झुकी हुई पीठवाली, छोटी तथा मोटी गरदनवाली, जौ के समान बीच से मोटी, फटे हुए खुरवाली, श्याम रंग की, लंबी जिह्वावाली, बहुत छोटे या बहुत बड़े गुल्फवाली, दुबली, कम अंगवाली या अधिक अंगवाली गायें नहीं होनी चाहिए.
दश सप्त चतुर्दन्त्योऽलम्बवक्त्रा न ताः शुभाः। विषाणवर्जिता ह्रस्वाः पृष्ठमध्याति सन्नताः॥ ह्रस्वस्थूल गला याश्च यवमध्याः शुभा न ताः। भिन्नपादा बृहद्गुल्फा याश्च स्युस्तनुगुल्फकाः॥ श्यावातिदीर्घजिह्वाश्च महत्ककुद संयुताः। याश्चाति कृशदेहाश्च हीना अवयवैश्च याः॥ न ताः शुभप्रदा गावो भर्तुयूथस्य नाशना॥
~भट्टोत्पलीयविवृत्ति (61.2-4)
इसके अतिरिक्त उनके रुग्ण होने पर उनकी चिकित्सा भी बताई गई है।
हमारा देश चिकित्साशास्त्र में सदैव अग्रणी रहा है और आयुर्वेद, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि ग्रंथ इसके उदाहरण हैं। परंतु इन ग्रंथों के अलावा भी वेदों में अनेक स्थानों पर चिकित्सा-विज्ञान के क्लोनिंग आदि जैसे अद्भुत प्रयोगों की चर्चा की गयी है।
यहाँ पर इन तथ्यों के सम्बंध में संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत की जा रही है जिससे कम-से-कम यह अनुमान तो अवश्य लगाया जा सकता है कि वैदिक ऋषियों को इसकी सम्पूर्ण जानकारी थी ।
क्लोनिंग, टिश्यू कल्चर एंव प्लास्टिक सर्जरी :
गांधारी के 100 पुत्र , विभिन्न पुराणों में चमड़े , बाल , अस्थि , मांस से नई पीढ़ी का जन्म कराना अक्सर पढ़ते ही रहते है हम जो आधुनिक युग मे सम्भव दिखता है.
कुछ वैदिक उल्लेख :
निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिर्या जरन्ता युवशा ताकृणोतन।
सौधन्वना अश्वादश्वमतक्षत युक्त्वा रथमुप देवाँ अयातन॥
~ऋग्वेद (1:161:7)
अर्थात हे सुधन्वा पुत्रों ! आपके श्रेष्ठ प्रयासों से चर्मरहित गौ को पुनर्जीवन मिला। अतिवृद्ध माता-पिता को आपने तरुण बनाया। एक घोडे से दूसरे घोडे को उत्पन्न करके उनको रथ में जोतकर देवों के समीप उपस्थित हुये।
यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन।
यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः॥
~ऋग्वेद (4:33: 4)
उन ऋभुओं ने एक वर्ष पर्यंत मरणासन्न गाय का पालन किया। उन्होंने एक वर्ष पर्यंत उसे अवयवों से युक्त किया तथा उसे सौंदर्य प्रदान किया। एक वर्ष पर्यंत उन्होंने उसमें तेज स्थापित किया। इन सम्पूर्ण कार्यों के द्वारा उन्होंने अमरत्व को प्राप्त किया।
याभिः शचीभिश्चमसाँ अपिंशत यया धिया गामरिणीत चर्मणः।
येन हरि मनसा निरतक्षत तेन देवत्वमृभवः समानश॥
~ऋग्वेद (3:60:2)
हे ऋभुगणों ! जिस सामर्थ्य से आपने चमसों का सुंदर विभाजन किया, जिस बुद्धि से आपने गौ को चर्म से संयुक्त किया, जिस मानस से आपने इंद्र के अश्वों को समर्थ बनाया; उन्हीं के कारण आपने देवत्व प्राप्त किया।
निश्चर्मणो ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः।
सौधन्वनासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितराकृणोतन॥.
~ऋग्वेद (1:110:8)
अर्थात हे ऋभुदेवों, आपने जिसके चर्म ही शेष रह गये थे, ऐसी कृषकाय (दुर्बल शरीर वाली) गौ को फिर से सुंदर हृष्ट-पुष्ट बना दिया , तत्पश्चात गौमाता को बछडे से संयुक्त किया । हे सुधन्वा पुत्र वीरों ! आपने अपने सत्प्रयासों से अति वृद्ध माता-पिता को भी युवा बना दिया।
तक्षभथं सुवृतं विद्मनापसस्तक्षन्हरी इन्द्रवहा वृषण्वसु।
तक्षन्पितृभ्यामृभवो युवद्वयस्तक्षन्वत्साय मातरं सचाभुवं॥
~ऋग्वेद (1:111:1)
अर्थात कुशल विज्ञानी ऋभुदेवों ने उत्तम रथ को अच्छी प्रकार से तैयार किया। इंद्रदेव के रथवाहक घोडे भी भली प्रकार से प्रशिक्षित किये। वृद्ध माता-पिता को श्रेष्ठ मार्गदर्शन देकर तरुणोचित उत्साह प्रदान किया.
युवाना पितरा पुनः सत्यमंत्रा ऋजुयवः।
ऋभवो विष्टयक्रत॥
~ऋग्वेद (1:120:4)
अर्थात अमोघ मंत्र-सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले ऋभुदेवों ने माता-पिता में स्नेहभाव संचरित कर उन्हें युवावस्था प्रदान किया।
पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना।
ते वाजो विभ्वाँ ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नो Sवन्तु यज्ञमII
~ऋग्वेद (4:33:3)
उन ऋभुओं ने यूप के सदृश जीर्ण होकर लेटे हुये अपने माता-पिता को सदैव के लिये युवा बना दिया।
शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम्।
~ऋग्वेद (4:35:5)
हे ऋभुओं ! आपने अपने कर्म-कौशल के द्वारा अपने मात-पिता को युवा बनाया तथा चमस को देवताओं के पीने योग्य बनाया।
इसी प्रकार 4:34, 4:36, 7:48, 10:176, आदि अनेक सूक्तों मे भारतीय चिकित्सा पद्धति के समुन्नत होने के अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं।