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प्रतिकूल संदेश दे रहा है दस साल की सत्ता के बाद भी मोदी का छोटे-छोटे दलों पर डोरे डालना

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 राज कुमार सिंह

सत्ता के दावेदारों के दावे अपनी जगह हैं, पर नई सरकार के बारे में भविष्यवाणी करना इस बार उतना आसान नहीं, जितना पिछले दो चुनावों में था। बेशक, सत्तारूढ़ NDA के पास दस साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में लोकप्रिय चेहरा है। BJP की अगुआई वाले NDA ने मोदी सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा देते हुए क्रमश: 370 और 400 सीटों का लक्ष्य भी घोषित कर दिया है। मगर दस साल की सत्ता के बाद भी छोटे-छोटे दलों पर डोरे डालना प्रतिकूल संदेश दे रहा है।

कुनबा बढ़ाने की मजबूरी : NDA 26 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी के समय बना था। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP ने अकेले दम बहुमत मिलने के बावजूद केंद्र में NDA की ही सरकार बनाई, लेकिन उसका महत्व पिछले साल I.N.D.I.A. बनने के बाद ज्यादा दिखा। घटक दलों की संख्या में I.N.D.I.A. को पीछे छोड़ने के लिए NDA का कुनबा भी बढ़ाया गया। इस खेल में संसद में नाममात्र की उपस्थिति या बिना उपस्थिति वाले दलों को भी साथ लेने में संकोच दोनों में से किसी गठबंधन ने नहीं किया। क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि लोकसभा चुनाव में मुकाबला इतना कड़ा हो सकता है कि दो-चार प्रतिशत वोट रखने वाले दल-नेता भी महत्वपूर्ण साबित हों?

बिगड़े समीकरण : सवाल यह है कि 2019 लोकसभा चुनाव में विभाजित विपक्ष के बीच और मोदी की लोकप्रियता के चरम पर भी BJP बहुमत के लिए जरूरी संख्या से मात्र 31 सीटें ज्यादा जीत पाई और पूरा NDA 81 सीटें ज्यादा जुटा पाया, तो 2024 के चुनाव में 370 और 400 का लक्ष्य कैसे मुमकिन होगा? ध्यान रहे, जिन राज्यों में पिछले चुनाव में BJP और NDA ने शानदार प्रदर्शन किया था, वहां इस बार समीकरण गड़बड़ाया हुआ है।

राज से दोस्ती का प्रयास : 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र से पिछली बार NDA ने 41 सीटें जीती थीं। राज्य में सरकार के नेतृत्व को लेकर हुई तकरार के बाद अब दोनों अलग-अलग पाले में हैं। शिवसेना में विभाजन के बाद राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार गिर गई। बाद में NCP भी टूट गई। दोनों दलों से बगावत करने वाले गुट अब BJP के साथ NDA में हैं। उनके सहारे पुराना प्रदर्शन दोहरा पाने का भरोसा होता तो BJP राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से गठबंधन की कोशिश नहीं करती।

बंगाल में त्रिकोणीय मुकाबला : 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में पिछली बार BJP ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को टक्कर देते हुए 18 सीटें जीती थीं। विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. बनने के बावजूद तृणमूल सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है। तृणमूल, BJP और कांग्रेस-वाम मोर्चा के बीच दिलचस्प त्रिकोणीय चुनावी मुकाबले में BJP पर सीटें बढ़ाने से ज्यादा बचाने का दबाव रहेगा, क्योंकि ममता सरकार से नाराज वोटरों के लिए BJP से इतर भी एक विकल्प उपलब्ध होगा। तृणमूल और कांग्रेस-वाम मोर्चा अलग लड़कर भी जो सीटें जीतेंगे, वे चुनाव के बाद BJP विरोधी खेमे में ही रहेंगी।

रामविलास की कमी : 40 सीटों वाले बिहार में पिछली बार NDA ने 39 सीटें जीत कर लगभग क्लीन स्वीप किया था। नीतीश कुमार फिर पाला बदल कर NDA में लौट चुके हैं, पर रामविलास पासवान की कमी कौन पूरी करेगा, जिनकी लोक जनशक्ति पार्टी ने छह सीटें जीती थीं? रामविलास के निधन के बाद LJP भाई और बेटे की बीच बंट गई। पांच सांसदों के नेता के रूप में भाई पशुपति पारस को BJP ने केंद्र में मंत्री भी बना दिया था, लेकिन अब सीट बंटवारे में बेटे चिराग पर दांव लगाया है। दोनों में से कौन-सा फैसला गलत था- चुनाव परिणाम बताएंगे, लेकिन NDA के लिए 39 सीटें जीत खासा मुश्किल होगा।

कर्नाटक में कांग्रेस सरकार : 28 लोकसभा सीटों वाले कर्नाटक में पिछली बार BJP की सरकार थी। उसने वहां अकेले दम पर 25 सीटें जीती थीं। BJP समर्थित एक निर्दलीय भी जीता था। पिछले साल कांग्रेस के हाथों राज्य की सत्ता गंवा चुकी BJP के लिए पिछला चुनावी प्रदर्शन दोहरा पाना लगभग नामुमकिन माना जा रहा है। बेशक BJP ने एचडी देवेगौड़ा के JDS से गठबंधन किया है, फिर भी कर्नाटक में कांग्रेस की सीटें बढ़ने की तगड़ी संभावना है। आंध्र में तो BJP चंद्रबाबू नायडू की TDP को NDA में वापस लाने में सफल रही, लेकिन ओडिशा में नवीन पटनायक और पंजाब में सुखबीर सिंह बादल ने फिर दोस्ती करने से इनकार कर दिया है।

सर्वश्रेष्ठ के आगे : उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में BJP पिछले चुनाव में लगभग सर्वश्रेष्ठ चुनावी प्रदर्शन कर चुकी है। मोदी आंध्र, तमिलनाडु और केरल में खाता खोलने और दक्षिण में सीटें बढ़ाने की पूरी कवायद कर रहे हैं, पर जमीनी हालात अनुकूल नहीं।

लक्ष्य नहीं, महज नारा : ऐसे में जबकि पुरानी सीटें घटने का खतरा है, 370 और 400 सीटों का नारा माहौल बनाने की रणनीति ज्यादा है। बेशक चुनाव में कई बार मुद्दों से ज्यादा माहौल निर्णायक साबित होता है। BJP को माहौल बनाने में महारत भी हासिल है। उसके पास राम मंदिर, धारा-370 और तीन तलाक जैसे भावनात्मक मुद्दे हैं, लेकिन मुद्दों की कमी विपक्ष के पास भी नहीं।

विपक्ष के मुद्दे : वादा हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का था, लेकिन बेरोजगारी चरम पर है। वादा अच्छे दिन लाने का था, पर महंगाई बेलगाम है। वादा विदेश से काला धन वापस लाने और भ्रष्टाचार समाप्त करने का था, लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड योजना में हो रहे खुलासे ने इन दावों पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। ED, CBI और इनकम टैक्स विभाग की विपक्षी नेताओं के विरुद्ध अति सक्रियता पर भी सवाल उठ रहे हैं।

तटस्थ दलों की भूमिका : ऐसे में चुनाव परिणाम मुख्यत: इस पर निर्भर करेंगे कि सत्तापक्ष और विपक्ष में से कौन अपने मुद्दों को ज्यादा प्रभावी ढंग से उठाते हुए माहौल बना सकता है। जाहिर है, जो दल तटस्थ हैं, वे चुनाव परिणाम के बाद अपनी सुविधा के अनुसार ही राह चुनेंगे, क्योंकि राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु तो होता नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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